राजस्थान में कहा गया कि वहां एक बार कांग्रेस रहती है, दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी रहती है. वहां के लोग हर पांच साल में सरकार बदलते हैं. लेकिन क्या ये सही कारण हैं? ये सही कारण इसलिए नहीं हैं कि जितने भी लोग, खासकर तटस्थ और साख वाले पत्रकार इन राज्यों में गए, उन्हें हर जगह लोग ये शिकायत करते नहीं मिले कि हमारे पास खाने का सामान नहीं है या हमें राज्य की योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है या हमें मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं पसंद है, बल्कि वे नोटबंदी, जीएसटी को लेकर शिकायत करते मिले, वे यह कहते मिले कि किसानों को उनसे किए गए वादों के मुताबिक दाम नहीं मिला, किसानों की लागत कम करने का कोई उपाय नहीं किया गया, फसल का वाजिब दाम नहीं मिला और न ही इसके लिए कोई नियम बना और न ही सरकार बेरोजगारी के खिलाफ कोई काम करती हुई दिखी.

अगर ये कारण सही हैं, तो इन कारणों को दूर करने का जिम्मा राज्य सरकारों का नहीं था, इन कारणों को दूर करने का जिम्मा केंद्र सरकार का था, जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. तीनों राज्यों में लोगों ने वोट एंटी इनकम्बेंसी जैसे शब्द के आधार पर नहीं दिए. लोगों में सिर्फ असंतोष नहीं था, लोगों में नाराजगी थी.


rahul2019 में होने वाले आम चुनाव से पहले हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को सेमी फाइनल नाम देना सही नहीं है, क्योंकि कोई भी चुनाव सेमी फाइनल नहीं होता, हर चुनाव का एक अलग जज्बा होता है, अलग निर्णय होते हैं, अलग सवाल होते हैं. उत्तर भारत के तीन राज्य जिन्हें राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के रूप में हम जानते हैं, इनमें हुए विधानसभा चुनावों ने कुछ स्थितियां साफ की हैं और दो मुख्य राजनीतिक दलों को सीख भी दी है.

कुछ नेताओं के बड़बोलेपन, कुछ नेताओं के अति आत्मविश्वास पर भी इन चुनावों ने पूर्ण विराम लगाया है. हम सबसे पहले बात कर रहे हैं, भारतीय जनता पार्टी की, जिसकी इन तीन राज्यों में सरकार थी. भारतीय जनता पार्टी ने तीनों राज्यों में वापसी के लिए सारी कोशिशें की. उसने पूरे मंत्रिमंडल समेत पार्टी के प्रमुख लोगों को इन तीनों राज्यों के चुनाव में लगाया.

भारतीय जनता पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने बहुत समय इन तीनों राज्यों में दिया. उन्होंने अपनी पार्टी में आत्मविश्वास जगाने के लिए बड़ी होशियारी से पार्टी कार्यकर्ताओं के दिमाग में यह बात भरी कि वो अगर मेहनत करेंगे तो उनका बूथ मैनेजमेंट हर हाल में भारतीय जनता पार्टी को जीत दिलाएगा. भारतीय जनता पार्टी के बूथ मैनेजमेंट के सिद्धांत ने विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस को डरा भी दिया था.

एक तो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में भी सरकार है और राज्य में भी, अधिकारी उनकी पसंद के हैं. बूथ मैनेजमेंट जैसा भारी भरकम शब्द जो चुनाव जिताने के लिए अब तक भारतीय जनता पार्टी के नेता इस्तेमाल करते रहे हैं, आतंक का पर्याय बन गया था. मतदान के बाद के नतीजों को लेकर टेलीविजन बहस में शहनवाज हुसैन बार-बार कह रहे थे कि हमारे पास सबकुछ है, लेकिन इसके बाद एक ब्रह्‌मास्त्र है और वो है, अमित शाह का बूथ मैनेजमेंट और बूथ कमेटियों का सक्रिय होना.
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हार का एक सामान्य कारण तलाशा गया कि यह पंद्रह साल की सत्ता के खिलाफ लोगों का रोष और असंतोष था. राजस्थान में कहा गया कि वहां एक बार कांग्रेस रहती है, दूसरी बार भारतीय जनता पार्टी रहती है. वहां के लोग हर पांच साल में सरकार बदलते हैं.

लेकिन क्या ये सही कारण हैं? ये सही कारण इसलिए नहीं हैं कि जितने भी लोग, खासकर तटस्थ और साख वाले पत्रकार इन राज्यों में गए, उन्हें हर जगह लोग ये शिकायत करते नहीं मिले कि हमारे पास खाने का सामान नहीं है या हमें राज्य की योजनाओं का लाभ नहीं मिल रहा है या हमें मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं पसंद है, बल्कि वे नोटबंदी, जीएसटी को लेकर शिकायत करते मिले, वे यह कहते मिले कि किसानों को उनसे किए गए वादों के मुताबिक दाम नहीं मिला, किसानों की लागत कम करने का कोई उपाय नहीं किया गया, फसल का वाजिब दाम नहीं मिला और न ही इसके लिए कोई नियम बना और न ही सरकार बेरोजगारी के खिलाफ कोई काम करती हुई दिखी.

अगर ये कारण सही हैं, तो इन कारणों को दूर करने का जिम्मा राज्य सरकारों का नहीं था, इन कारणों को दूर करने का जिम्मा केंद्र सरकार का था, जिसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. तीनों राज्यों में लोगों ने वोट एंटी इनकम्बेंसी जैसे शब्द के आधार पर नहीं दिए. लोगों में सिर्फ असंतोष नहीं था, लोगों में नाराजगी थी.

भाजपा का अति आत्मविश्वास
इसलिए इस बार का वोट रोष या असंतोष से उपजा वोट नहीं है, गुस्से से उपजा हुआ वोट है, जिसने भारतीय जनता पार्टी को तीनों राज्यों से हटा दिया. भारतीय जनता पार्टी ने छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में 15 साल के अपने शासनकाल में लोगों की यथाशक्ति मदद करने की कोशिश, लेकिन उसके बाद भी हुई हार यह बताती है कि यह चुनाव, केंद्र सरकार के प्रति मुख्य रूप से असंतोष का जनमत संग्रह था.

लोगों को भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा भाषा पर संयम न रखना पसंद नहीं आया. लोगों के मुद्दों कोे चुनाव का केंद्र न बनाना शुरू से उनके मन में एक नफरत पैदा करने लगा था और दूसरी ओर जब सत्तारूढ़ पार्टी ने उन सवालों को सामने रखा और उनके ऊपर अपना सारा कैंपेन केंद्रित कर दिया, जिन सवालों का लोगों की जिंदगी से कोई रिश्ता नहीं था, तब शायद लोग निराशापूर्ण गुस्से में चले गए. राम मंदिर भारतीय जनता पार्टी का महत्वपूर्ण मुद्दा था.

भारतीय जनता पार्टी के अनुषांगिक संगठन ने राम मंदिर बनाने को लेकर एक कैंपेन शुरू कर दिया कि अगर हम जीतेंगे तो राम मंदिर बनेगा. विश्व हिन्दू परिषद ने इस आग में घी का काम किया. भारतीय जनता पार्टी और संघ के नेताओं के बयान तेजी के साथ आए. इस चुनाव को हिन्दू-मुस्लिम मुद्दों में या धु्रवीकरण की कोशिशों में बदल दिया गया.

भारतीय जनता पार्टी को लगा कि अगर तीनों राज्यों में हमारी सरकार बन जाएगी, तो हम इन मुद्दों को लेकर सारे देश में अपना कैंपेन चलाएंगे. शायद जनता ने ये सोचा कि अगर ये मुद्दे सामने हैं, तो पिछले साढ़े चार साल में तो हमें कुछ मिला ही नहीं, शायद इस बार भी कुछ नहीं मिले. कहीं ये हमें राम मंदिर का सपना दिखाकर हमारे दर्द, हमारे आंसू, हमारी तकलीफ और हमारी जिंदगी के कालापन को और न बढ़ाते चले जाएं.

दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री और अमित शाह ने कांग्रेस का विरोध इस तरह से किया, जिससे ऐसा लगा कि कांग्रेस की ही सत्ता है, जिसे भारतीय जनता पार्टी उखाड़ना चाहती है. ‘एक परिवार का शासन’, ‘सोनिया गांधी विधवा हैं’ जैसी बातें इशारे में कही गईं. राहुल गांधी और उनके परिवार पर जो हमले किए गए, उसने भी लोगों को बताया कि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के मन में कोई सम्मान है ही नहीं.

इन बातों ने लोगों के मन में और संदेह पैदा कर दिया कि हम तो चुनाव जीत ही रहे हैं, हम तो सरकार बना ही रहे हैं, हम तो हर हालत में सत्ता में आएंगे ही आएंगे और जब हम ईवीएम खोलेंगे, तो वोट भारतीय जनता पार्टी का ही निकलेगा. भारतीय जनता पार्टी और खासकर प्रधानमंत्री और अमित शाह द्वारा लोगों को यह न बताना कि हमारी राज्य सरकारों ने पिछले पांच साल या 10 साल या 15 साल में क्या किया है, लोेगों की चिंता को और बढ़ा दिया.

पता नहीं क्यों, भारतीय जनता पार्टी यह मानती है कि लोगों में समझ नहीं है. वो अभी भी 2014 के कैंपेन को, अतिप्रचार को अपनी जीत का कारण मानती है. वही गलती उसने इन चुनावों में की. यह समझना कि अतिप्रचार का वो फॉर्मूला फिर काम करेगा और लोग अपने आसपास की हकीकत को, वास्तविकता को नहीं देखेंगे, ये सब भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ गया.

भारतीय जनता पार्टी को समझना चाहिए कि कांग्रेस के नकारेपन, खासकर 2014 से पहले कांग्रेस के 10 साल के शासनकाल में पांच साल के दौरान हुए स्कैम की कहानियों से जिस तरह कांग्रेस का चेहरा दागदार दिखाई दिया और प्रशासनिक ढांचा चरमरा गया, उसका बदला लेने के लिए लोगों ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाया. लोग नरेंद्र मोदी के जरिए अपनी जिंदगी को बदलता हुआ देखना चाहते थे, इसलिए अच्छे दिन की बात गांव-गांव में दोहराई गई थी और नरेंद्र मोदी को इतना भारी बहुमत मिला था. इतना बहुमत राजीव गांधी के बाद किसी को नहीं मिला.

वादों-आश्वासनों का मायाजाल
यह न नरेंद्र मोदी समझ सके और न ही भारतीय जनता पार्टी. उन्होंने सोचा कि यह भारतीय जनता पार्टी की जीत है या संघ की विचारों की जीत है, लेकिन ऐसा नहीं था. देश की जनता उनके साथ अपनी जिंदगी बदलने के लिए खड़ी हुई थी. प्रधानमंत्री ने पहले पचास वादे किए, उन वादों से फिर हर रोज एक नया वादा निकला. लेकिन उन वादों से जमीन पर कहीं कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दिया. ऊपर से दावे किए गए कि सारे वादे पूरे कर दिए गए हैं.

देश में बदलाव के वादे किए गए, लेकिन लोगों को अपने आसपास, अपनी जिंदगी में कोई बदलाव होता नहीं दिखाई दिया. फिर अचानक कहा गया कि वो वादे तो जुमले के रूप में किए गए थे. नितिन गडकरी ने तो साफ कर दिया कि लोग अगर उसे लेकर भ्रम में आ गए तो हम क्या करें, हमने तो यूं ही वादे किए थे, हमें थोड़े ही पता था कि हमारी सरकार आ जाएगी.

लोगों ने अपने को छला हुआ महसूस किया. उसका गुस्सा इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को भुगतना पड़ा. भारतीय जनता पार्टी ने तीनों राज्यों के चुनावों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पूरी तरह घुमाया. तेलंगाना सहित हर चुनावी राज्य में योगी आदित्यनाथ ने जितने भाषण दिए, वो भाषण देश के लोगों को बांटने में अहम कोशिशों के रूप में देखे गए.

योगी जी ने हनुमान जी की भी जाति बता दी. सवाल यह है कि आप जो कर रहे हैं, अगर उसके ऊपर वोट नहीं मांगते, झूठे वादों के ऊपर वोट मांगते हैं, तो लोग आपको वोट क्यों देंगे? क्या किसानों और नौजवानों का गुस्सा आपको कहीं दिखाई नहीं दिया. चूंकि दिखाई नहीं दिया, इसलिए आपने कोई काम भी नहीं किया. आपने वो काम किए जिन कामों को शायद करना आवश्यक नहीं था.

वो भी काम ऐसे हुए, जिनसे कोई तार्किक रास्ता नहीं बन पाया. प्रधानमंत्री ने अच्छी-अच्छी बातें की, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए अपने किसी राज्य सरकार को कोई तरीका नहीं बताया. अब जब चुनाव खत्म हो गए हैं, नतीजे सामने आ गए हैं, भारतीय जनता पार्टी यह सीख लेने के लिए तैयार ही नहीं है कि अगर हमने वो काम नहीं किए जिनका आश्वासन हमने देश की जनता को दिया है, तो उसके लिए आगे आने वाले समय में और मुसीबतें खड़ी होंगी.

हो सकता है भारतीय जनता पार्टी के नेता यह मानते हों कि देश की जनता मूर्ख है, जो हमारे महान उद्देश्यों को समझ नहीं पा रही है, क्योंकि इन्होंने तो देश से 2022 तक का समय मांगा है. ये 2019 की बात ही नहीं करते हैं, ये तो 2022 से 2024 तक रहने का दावा करते हैं.

ऐसा खुद प्रधानमंत्री जी और अमित शाह कह रहे हैं. यह जो धारा है, सोचने का जो तरीका है, इसने लोगों को हिला दिया, डरा दिया. यह मैं नहीं कहता, लेकिन यह सच है. इसलिए भारतीय जनता पार्टी को एक ऐसा वक्त देखना पड़ रहा है, जिसकी उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी.

वादों को लेकर सचेत रहे कांग्रेस
कांग्रेस पार्टी अब अजगर की तरह सो जाए या वो जगी ही रहेगी, लोगों में इस बात को लेकर संदेह है. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी बहुत आसानी से ये सोच सकते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के कैंपेन और कांग्रेस पार्टी द्वारा दिए गए तर्कों को लोगों ने पसंद किया और उनका समर्थन किया. अगर कांग्रेस पार्टी और खुद अध्यक्ष राहुल गांधी ईमानदारी से सोचते हैं, तो अपने लिए वे एक ऐसा रास्ता अख्तियार करने जा रहे हैं, जिसपर निश्चितता नहीं बल्कि पूर्ण अनिश्चितता है. जिस तरह से कांग्रेस के गुस्से के खिलाफ नरेंद्र मोदी को लोगों ने 2014 में वोट दिया था, उसी तरह इस बार नरेंद्र मोदी व भारतीय जनता पार्टी के उन आश्वासनों के खिलाफ लोगों ने वोट दिया है, जिन्हें भारतीय जनता पार्टी जमीन पर नहीं उतार पाई.

भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के बड़बोलेपन और अहंकार के खिलाफ अपना गुस्सा उतारने के लिए लोगों को एक हथियार चाहिए था. अगर वहां कोई तीसरी पार्टी भी होती तो हो सकता है कि लोगों ने उसे वोट दे दिया होता. चूंकि इन तीनों जगहों पर मुख्य विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस ही थी, इसलिए लोगों ने कांग्रेस को अपना गुस्से को प्रकट करने का हथियार बनाया.

हालांकि कांग्रेस ने भी वैसे ही वादे किए हैं, जैसे भारतीय जनता पार्टी ने किए थे और उनको पूरा नहीं कर पाई थी. कांग्रेस की तरफ से कहा गया था कि कैबिनेट की पहली मीटिंग में किसानों की कर्जमाफी का फैसला होगा. अगर शुरू के 10 दिनों में किसानों की कर्जमाफी नहीं होती है, तो क्या होगा? हालांकि अब कांग्रेस की तरफ से कहा जा रहा है कि यह 10 दिनों में हो जाएगा.

मैं कहता हूं, आप एक महीने में भी फैसला कर लें. लेकिन अभी उन तीनों प्रदेशों की अलग-अलग आर्थिक स्थिति आपके सामने नहीं है, जहां आप जीते हैं. आपके आर्थिक सलाहकार सक्षम नहीं हैं कि उसका आकलन कर सकें. भारतीय जनता पार्टी के आर्थिक सलाहकारों ने तो देश की अर्थव्यवस्था डूबो दी. मैं नहीं कहता कि नोटबंदी की वजह से अर्थव्यवस्था डूबी या जीएसटी की वजह से डूबी.

लेकिन अर्थव्यवस्था डूबी, क्योंकि आपके पास आर्थिक विशेषज्ञ नहीं हैं, जो देश की आर्थिक स्थिति के हिचकोलों का सामना कर सकें. परिणामस्वरूप प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार धीरे-धीरे इस्तीफा दे रहे हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर का इस्तीफा हो गया. अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार सुर्जीत भल्ला ने इस्तीफा दे दिया. कांग्रेस को इस स्थिति को संभालने की जो तैयारी करनी चाहिए, उसे लेकर लोगों को विश्वास नहीं है कि कांग्रेस के पास इस स्थिति को संभालने वाले लोग हैं.


2019 के लिए कांग्रेेस को पेश करना होगा मोदी की नीतियों का विकल्प
अभी लोग राहुल गांधी को सुन रहे हैं, पर इन राज्य सरकारों के अगले दो-तीन महीने के कामकाज को देखकर लोग अंदाजा लगा लेंगे कि लोकसभा में वो किस तरह का रुख अख्तियार करेंगे. यह मान लेना कि जो फैसला विधानसभा के चुनाव में लोगों ने किया, वही लोकसभा के चुनाव में भी करेंगे, मुझे लगता है थोड़ा सा स्थिति का गलत आकलन करने जैसा होगा.

अभी अगर नरेंद्र मोदी चेतते हैं, तो कांग्रेस के लिए चिंता की बात है और अगर नरेंद्र मोदी नहीं चेतते हैं, तो लोग जानना चाहेंगे कि कांग्रेस के पास नरेंद्र मोदी की नीतियों के विकल्प क्या हैं? अगर कांग्रेस पार्टी देश के लोगों को यह नहीं समझा पाई कि वो सही विकल्प है, तो उसके लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में विजय पाना आसान नहीं होगा.

वैसे भी, बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नहीं है. ओड़ीशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस की स्थिति बहुत ही खराब है. उन सब में कांग्रेस हिचकोले खा रही है. कहीं पर बिल्कुल नहीं है, तो कहीं पर बहुत कम है. राहुल गांधी अगर संगठन को एक्टिव करने की, चुस्त-दुरुस्त करने की, उसे सक्रिय करने की जिम्मेदारी संभाल पाते हैं, जो कि बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बराबरी का मैदान मिलेगा.

लेकिन अगर राहुल गांधी ने ये सीख नहीं ली कि गुजरात में उनकी हार के पीछे उनके संगठन की कमजोरी थी या मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुमत के नजदीक खिसकते हुए पहुंचना भी उनके संगठन की कमजोरी थी, तो फिर उनके लिए 2019 प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह रहेगा. छत्तीसगढ़ को लेकर भारतीय जनता पार्टी बहुत आश्वस्त थी, लेकिन छत्तीसगढ़ में भाजपा क्यों हारी, इसका विश्लेषण भारतीय जनता पार्टी कभी नहीं करेगी.

छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी इसलिए हारी, क्योंकि उसने वहां के सारे लोगों को नक्सलवादी मानकर व्यवहार करना शुरू किया. एक तरफ वहां सरकारी हिंसा है, जो सलवा जुडूम केे नाम पर है और दूसरी तरफ नक्सलवादियों के खिलाफ पुलिस और प्रशासन का अभियान है.

यह मानना गलत है कि वहां जो भी अपनी तकलीफ के लिए आवाज उठाता है या अपनी भूख के खिलाफ आवाज उठाता है, वो व्यक्ति नक्सली है और जो उनके समर्थन में लिखते हैं, जो उनके समर्थन में बुद्धिजीवी भाषण करते हैं, वो अर्बन नक्सल हैं. अगर भारतीय जनता पार्टी यह समझ जाएगी कि नक्सलवाद मानवीय समस्या है, विकास की समस्या है न कि कानून व्यवस्था की समस्या है, तो शायद ज्यादा अच्छा हो, पर भारतीय जनता पार्टी इसे शायद नहीं समझेगी.

वो कोशिश करेगी कि इस समस्या को लेकर वो कोई हमलावर रुख अख्तियार करे. कांग्रेस इस मसले में भारतीय जनता पार्टी से ज्यादा समझदार है, ऐसा मैं मानता हूं. लेकिन कांग्रेस पार्टी के ही चिदंबरम जब गृहमंत्री थे, तब उन्होंने नक्सलवादियों को सेना के जरिए समाप्त करने की योजना बनाई थी, लेकिन उस समय के सेना के चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ ने ऐसा करने से मना कर दिया था.

अब देखना यह है कि आने वाले चुनावों में क्या कांग्रेस सामूहिक विपक्षी दलों का मोर्चा बना पाती है या क्या ऐसा कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ले आती है, जिसमें सारे भाजपा विरोधी दल शामिल हों और ईमानदारी के साथ अपने-अपने राज्य में लोकसभा का चुनाव लड़ सकें. चुनाव लड़ने के बाद ये मिलकर अपना नेता चुन लें, तो बेहतर होगा.

अगर कांग्रेस जिद करेगी कि चुनाव से पहले ही उसके नेता को गठबंधन का नेता स्वीकार कर लिया जाए, तो शायद परेशानी होगी. दूसरी तरफ, भारतीय जनता पार्टी अब तक की गई गलतियों को सुधारने या अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए नई कोशिशों की शुरुआत अगर नहीं करती है, तो 2019 का चुनाव उसके लिए भी दिवास्वप्न की तरह हो जाएगा.

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