जिसकी आशंका थी वही तो हुआ। तीस अक्टूबर के दिन हमने लिखा था ‘मोदी पर घेरा नहीं, नीतीश पर वार’। हम तो दिल्ली से हज़ार किमी दूर बैठे हैं। एक आम जागरूक इंसान की भांति देखते और सोचते हैं। गांधी के गांव में गांधी की  नज़र से। इन चुनावों में हर पल लगा कि विपक्ष गलती कर रहा है। उस आदमी से पूरी तरह विमुख है जिसने येन केन प्रकारेण इंडिया की आधी और भारत की लगभग पूरी आबादी के दिमागों में अपनी छवि पैठा दी है। भारत के मतदाता की मजबूरी और लालच का मानचित्र उस व्यक्ति ने भलीभाँति समझा है। ऐसे व्यक्ति को छोड़ आप हमला उस पर कर रहे हैं जो स्वयं ही जा रहा है। इस बेवकूफी का नतीजा जो आया वह सबके सामने है।

इसी के साथ मैं एक बात हमेशा कहता और पूछता हूं कि दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवियों की बात क्या उन लोगों तक पहुंचती है जिनको निर्णय सुनाना है। जिनको सोचना समझना है। देहात के गरीब और देहाती महिलाएं। ये हमारी मृगतृष्णा है और उसमें हमारा हर बुद्धिजीवी संतुष्ट है। एक सवाल और कि मोदी और उनकी सरकार से लड़ने के लिए हमारा नेटवर्क क्या है। उनके पास पैसा, मीडिया, संगठन और बूथ लेवल तक के कार्यकर्ता हैं। ठोस आईटी सेल है जो मोदी की सत्ता के बाद ही बना और वजूद में आया।

बिहार के नतीजों के बाद एक निराशा वातावरण में छायी हुई है। आगे के चुनाव कैसे होंगे। जब हिंदुत्व का कापीराइट एक ही पार्टी ने मजबूती से पकड़ लिया है। राहुल गांधी नाम का जीव जगह जगह धोती पहन कर घूमे या कितना ही जनेऊ लपेटे, सिर्फ एक मजाक से ज्यादा कुछ नहीं।कल ही बराक ओबामा की टिप्पणी राहुल गांधी के बारे में आयी जिसने भाजपा के खेमों में और उत्साह भरा दिया है। पार्ट टाइम पालिटिक्स वाला व्यक्ति चुनाव के बीचोंबीच आराम करने शिमला चला जाता है। कहने का मतलब यह है कि हमने स्वयं मोदी के सामने मैदान खाली छोड़ा हुआ है। इसकी न हमारे विपक्ष को चिंता है और न बुद्धिजीवियों को। सोचने वाली बात यह है कि मोदी और अमित शाह ने जो पचास साल राज करने वाला फुलथ्रू छोड़ा तो उसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण क्या रहा है। क्या मोदी ने पांसे फेंक कर जो जीत हासिल की उसने उनके भीतर लबालब आत्मविश्वास भर दिया।

बिहार में तीसरा चरण आते आते लग रहा था कि टक्कर कांटे की हो चली है । तो अब आगे क्या होगा। सच पूछिए तो अब हमें सोशल मीडिया पर आने वाले कार्यक्रमों से एक वितृष्णा सी होने लगी है। इस सत्ता की दादागिरी हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रही है। अर्नब को जमानत इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। दुष्यंत दवे की आपत्ति राहत देती है पर नतीजा ? ऐसे भी पत्रकार और बुद्धिजीवी हैं जो कहते या भविष्य वाणी करते कुछ हैं और होता उलट है।

तो आगे का रास्ता क्या है। यह एक बड़ी उलझन है। हमें तो एक ही रास्ता नजर आता है कि तमाम विरोधी दलों के समझदार नेताओं को पूरे देश में चौबीसों घंटे दौरे करने चाहिए। आम आदमी पार्टी और स्वराज इंडिया के लोगों की टीमें गांव गांव का दौरा करें और वास्तविकता से लोगो को रूबरू करवायें। हिंदुत्व के बहकावे में आने से न रोटी मिलेगी, न कपड़ा, मकान। दूसरा, बुद्धिजीवी और राजनीतिक दलों के बीच एक समन्वय बने और सही दिशा में काम हो। अगर यह सब नहीं होता या नहीं करना है तो उन्हें बिना किसी हीलहुज्जत के पचास साल दे दिये जाएं ।

ऐसे उदास और गमगीन माहौल में ‘लाऊड इंडिया’ के कार्यक्रम देखना और सुनना बड़ा सुकून देता है। ‘चौथी दुनिया’ के संपादक रहे संतोष भारतीय दिग्गज पत्रकारों से जो साक्षात्कार कर रहे हैं उन्हें सुनने में एक ताजगी का एहसास इसलिए होता है कि हम उन पत्रकारों की सफलता के पीछे की मेहनत का जायज़ा लेते हैं। सबसे दिलचस्प होता है कि उन्होंने पत्रकारिता कैसे और क्यों शुरू की। कैसे वे इस क्षेत्र में आये। उनका पत्रकारीय सफर जानना कम रोमांचक नहीं होता। और संतोष भारतीय की एक खास कला या अदायगी। अभय कुमार दुबे, विनोद दुआ, अरविंद मोहन, कुरबान अली जैसों को तो पिछली बार सुना। इस बार आलोक पुराणिक, शीतल पी सिंह, मंगलेश डबराल और उर्मिलेश जी को सुना। मंगलेश जी से उनके सहारा के अनुभव भी पूछे जाने चाहिए थे जो काफी कड़ुवे रहे हैं। उर्मिलेश जी में बड़ी भलमनसाहत और साफगोई थी। अभी और सुने जाने हैं।

संतोष भारतीय जी ने राजनीति के इस कड़ुवे दौर में कुछ अलग हट कर पेश किया यह कुछ कुछ वैसा ही लगा जैसे राज्य सभा चैनल पर राजेश बादल के कार्यक्रम ‘विरासत’ के नाम से आते थे। पहले इसका नाम दूसरा था – ‘उनका शहर उनकी नजर’। बहरहाल, संतोष भारतीय जी का आभार। आशुतोष ने ट्रंप और जो बाईडन पर पुरुषोत्तम अग्रवाल से अच्छी बात की। बिहार चुनाव में जिस तरह सारे एक्जिट पोल धराशायी हुए हैं हमें लगता है उसी तरह सारे बुद्धिजीवी भी धराशायी हुए हैं। अब ये नये सिरे से कैसे क्या करेंगे, यही देखना है। आगे तो और रोमांचक मुकाबले हैं।

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