Narendra Modiदेश की जनता ने बड़ी आशा के साथ नरेंद्र मोदी को चुना था. लोगों को लगा था कि उन्हें कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार से मुक्ति मिलने के बाद राहत मिलेगी. भ्रष्टाचार कम होगा, महंगाई पर लगाम लगेगी और बेरा़ेजगारी की समस्या का हल निकलेगा.

नरेंद्र मोदी भी अपने चुनावी भाषण में यह कहते थे कि अच्छे दिन आने वाले हैं, लेकिन अच्छे दिन आए क्या? देश के 80 फीसद लोग ग़रीब है. ज़िंदगी जीने के लिए रा़ेज उन्हें ज़िंदगी से लड़ना पड़ता है. उनकी तकलीफों की सूची बहुत लंबी है, लेकिन सरकार से उनकी अपेक्षाएं बहुत कम हैं.

इसके ठीक विपरीत देश के 20 फीसद समृद्ध वर्ग की तकलीफें कम हैं, लेकिन उसकी अपेक्षाओं की सूची बहुत लंबी है. हर सरकार को यह तय करना होता है कि उसकी प्राथमिकता क्या है. दुर्भाग्य से जबसे देश में नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था लागू की गई, तबसे जितनी भी सरकारें आईं, उनकी प्राथमिकता में वे 80 फीसद लोग नहीं रहे, जो ग़रीब हैं.

अच्छे दिनों का सही मतलब तो यही था कि मोदी सरकार की प्राथमिकता बदलेगी, लेकिन नई सरकार ने भी वही काम किया, जो 1991 से होता आ रहा है. समस्या यह है कि ग़रीब तो परेशान हैं ही, उद्योगपतियों को भी अब लगने लगा है कि सरकार की दिशा-दशा ठीक नहीं है.

मतलब यह कि मोदी सरकार न तो उद्योग जगत को खुश कर पा रही है और न उन 80 फीसद लोगों को राहत दे पा रही है, जिन्हें मदद की वाकई ज़रूरत है. हक़ीक़त यह है कि पिछले 18 महीनों में हर वर्ग निराश हुआ है.

किसान परेशान हैं, मज़दूर आंदोलित हैं, युवाओं को रा़ेजगार नहीं मिल रहा है और महंगाई आसमान छू रही है. ऐसे में आर्थिक क्षेत्र में सरकार के सफल होने के सारे संकेत धुंधले होते दिख रहे हैं. लोकसभा चुनाव के पहले भी चौथी दुनिया लगातार यह कहता रहा कि नरेंद्र मोदी नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों को ही आगे लेकर जाएंगे.

लेकिन, जब उन्होंने अच्छे दिनों का सपना दिखाया, तो देश के बेरोज़गार युवाओं और ग़रीबों के बीच एक आशा जगी. देश के 80 फीसद लोगों के लिए अच्छे दिनों का मतलब स़िर्फ इतना है कि महंगाई कम हो और हर युवा को नौकरी मिले. बीते 18 महीनों के दौरान इन दोनों बिंदुओं पर मोदी सरकार विफल साबित हुई है.

वह बाकी सारी बातें कर रही है, लेकिन देश के आम लोगों की असल ज़रूरत पर उसका कोई ध्यान नहीं है. सरकार बार-बार यह बात ज़ोर-शोर से कह रही है कि देश की जीडीपी बढ़ रही है और महंगाई कम हो रही है. कहने का मतलब यह कि देश की आर्थिक स्थिति बेहतर हो रही है और लोगों को महंगाई से राहत मिल गई है.

वित्त मंत्री अरुण जेटली शायद यह भूल गए कि देश की जनता ने यूपीए सरकार की आंकड़ेबाजी से तंग आकर ही उसे बाहर का रास्ता दिखाया था. वित्त मंत्रालय हो या अन्य दूसरे मंत्रालय, सबने आंकड़ों की बाजीगरी को ही देश चलाना समझ लिया है. नीति आयोग के वाइस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है.

उन्होंने कहा कि भारत की विकास दर इस साल आठ फीसद पर पहुंचने वाली है. कुछ महीने पहले देश के विभिन्न अ़खबारों ने यह खबर दी थी कि भारत की विकास दर चीन से आगे बढ़ जाएगी और वह 7.5 फीसद होने वाली है. अब जबकि नतीजे आने लगे हैं, तो पता चला कि यह महज एक भ्रामक प्रचार था.

वर्ष 2015-16 की पहली तिमाही में विकास दर 7.5 फीसद से कम यानी स़िर्फ 7.0 फीसद हो पाई. अब पता नहीं कि सरकार आंकड़ों का कौन-सा खेल खेलकर वार्षिक विकास दर 7.5 या 8.0 फीसद पर पहुंचाएगी. जबकि विकास के सारे मानक निराशा की ओर इशारा कर रहे हैं.

जुलाई से सितंबर यानी मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में लगातार तीसरी बार बिक्री और मैन्युफैक्चरिंग में गिरावट देखने को मिली. बिक्री में गिरावट के चलते व्यापार जगत में हड़कंप मचा हुआ है, जिसका सीधा असर घरेलू निवेश पर पड़ रहा है. ज़्यादा मुना़फे का मतलब ज़्यादा निवेश है. मुना़फे में कमी के चलते घरेलू निवेशक पैसा नहीं लगा रहे हैं.

नतीजतन, मार्च 2015 से अब तक निजी क्षेत्र में प्रस्तावित निवेश में 30 फीसद की कमी आई है. सरकार विदेशी निवेश के बारे में यह तो प्रचारित कर रही है कि उसमें पिछले साल के म़ुकाबले 37 फीसद का इजा़फा हुआ है, लेकिन निजी क्षेत्र में 30 फीसद की कमी आई है, इस पर कहीं कोई बात नहीं हो रही. रियल स्टेट सेक्टर का हाल खराब है. लोगों के पास पैसा नहीं है.

ऋृण की ब्याज दर में बहुत ही कम कमी आई है, इसलिए पुराने फ्लैट खाली पड़े हैं और नया प्रोजेक्ट लाने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. इसके चलते इस सेक्टर में बेरा़ेजगारी भी बढ़ी है. औद्योगिक उत्पादन का हाल भी कमोबेश यही है. अप्रैल से सितंबर के बीच वह महज 3.94 फीसद की बढ़त दर्ज करा सका.

मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की स्थिति भी दयनीय है, वह स़िर्फ 2.64 फीसद की दर से बढ़ रहा है. अगर कोर सेक्टर की बात करें, तो उसकी वृद्धि दर में गिरावट आई है. उसमें 2014-15 की पहली छमाही में 5.07 फीसद की वृद्धि हुई थी, जो इस बार घटकर महज 2.33 फीसद रह गई है.

लेकिन, इन तमाम आंकड़ों से आम जनता को क्या लेना-देना! भारत जैसे देश में आम जनता के लिए अच्छी आर्थिक नीति का मतलब स़िर्फ यही है कि वह नीति, जिससे महंगाई कम हो जाए.

इसके अलावा देश की जनता को और कोई अपेक्षा शायद नहीं है. महंगाई के नाम पर जो आंकड़ेबाजी होती है, वह खासी मजेदार है. हर शख्स कहता है कि सब्जियां महंगी हो गई हैं, दालें महंगी हो गई हैं, तेल महंगा हो गया है.

लेकिन, सरकार कहती है कि महंगाई नियंत्रण में है. सरकार के मुताबिक, कंज्यूमर प्राइज इनडेक्स और होलसेल प्राइस इंडेक्स में कमी आई है और कमोडिटी इंडेक्स प्राइस जुलाई में 3.69 फीसद और अक्टूबर में 5.0 फीसद ही रहा. अक्टूबर में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 5.25 फीसद रही.

यह अजीब इत्तेफाक है कि मोदी सरकार के 18 महीनों के कार्यकाल में पिछले 11 महीनों से निर्यात में लगातार गिरावट देखी जा रही है. अक्टूबर 2015 में निर्यात में 17.5 फीसद की गिरावट देखी गई. पिछले साल यानी अक्टूबर 2014 में 25.89 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात हुआ था, जबकि इस साल इस महीने में स़िर्फ 21.35 बिलियन डॉलर मूल्य की वस्तुओं का निर्यात हुआ. पिछले कई महीनों में निर्यात का यही हाल रहा है.

विश्लेषकों का मानना है कि इस साल जिस तरह निर्यात बाधित हुआ, वह 2008-09 के दौर से भी खराब है. निर्यात कम होने के अलावा मुसीबत यह है कि देश में व्यापार करने वाली कंपनियों को भी ऩुकसान हो रहा है. उनकी परेशानी यह है कि लोग सामान नहीं खरीद रहे हैं. क़रीब 1,600 कंपनियों, जिन्होंने साल की दूसरी छमाही के नतीजे पेश किए, की बिक्री में 4.8 फीसद की कमी आई है.

सरकार यह बात प्रचारित करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती कि विदेशी निवेश के मामले में उसे सफलता मिली है. आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 में 36 बिलियन डॉलर का निवेश भारत में हुआ था और चालू वित्त वर्ष (2015-16) में अब तक 44 बिलियन डॉलर का निवेश हो चुका है. हक़ीक़त यह है कि 2005 में भारत में नौ बिलियन डॉलर और 2007 में 37 बिलियन डॉलर का विदेशी निवेश हुआ था.

लेकिन, अब तक सबसे ज़्यादा विदेशी निवेश 2011-12 में हुआ यानी 46.5 बिलियन डॉलर का. इसलिए सालाना 37 से 47 बिलियन डॉलर का विदेशी निवेश सामान्य ही माना जाएगा. जब तक 60 बिलियन डॉलर का विदेशी निवेश नहीं होता, तब तक यह नहीं माना जाएगा कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से विदेश निवेश में बढ़ोत्तरी हुई है.

विदेशी निवेश हो या फिर चंद औद्योगिक घरानों को फायदा पहुंचाने की नीतियां, यह सब सरकार के लिए तो महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन आम जनता के लिए इनका और आंकड़ेबाजी का कोई मतलब नहीं है.

मूलभूत बात यह है कि भारत में 60 से 70 फीसद लोग कृषि पर निर्भर हैं और वे हमारी अर्थव्यवस्था से अलग- थलग हैं, उनकी स्थिति दयनीय है. आज भी ज़्यादातर किसान भगवान भरोसे यानी मानसून पर आश्रित हैं.

बारिश हुई, तो अच्छी फसल होती है और अगर मौसम ने धोखा दे दिया, तो वे बिल्कुल असहाय हो जाते हैं. न तो कोई बीमा होता है और न कोई वैकल्पिक व्यवस्था. ग्रामीण इलाकों में भूमिहीन मज़दूरों की संख्या ज़्यादा है, इसलिए मनरेगा जैसी योजनाएं वहां के लिए कारगर साबित हो सकती थीं, लेकिन मनरेगा भी भ्रष्टाचार का एक बड़ा केंद्र बनकर रह गई.

जिस देश में 60 फीसद आबादी के पास खर्च करने के लिए पैसे न हों, वहां भला उद्योग कैसे सफल हो सकता है! वित्त मंत्री को यह समझना होगा कि भारत को उन आर्थिक नीतियों की ज़रूरत है, जो गांव के लोगों को आर्थिक मजबूती दे सकें. मौजूदा हालत यह है कि ज़्यादातर किसान कर्ज में डूबे हुए हैं.

इसलिए जब तक गांव के लोगों को अर्थव्यवस्था से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक देश का विकास संभव नहीं है. सरकार मेक इन इंडिया को आगे बढ़ाना चाहती है, तो बढ़ाए, लेकिन कृषि क्षेत्र में जारी डेथ इन इंडिया पर कौन ध्यान देगा? किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले में महाराष्ट्र ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. यह किस प्रकार के अच्छे दिनों की सौगात है कि किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया एवं ब्रिटेन समेत दुनिया के विभिन्न देशों में जा-जाकर भारतीय मूल के लोगों को भारत आने का निमंत्रण दे रहे हैं. हर जगह वह यही कहते हैं कि अब भारत में माहौल बदल गया है, इसलिए भारत आकर आप अपना भविष्य चमकाएं और देश को आगे बढ़ाएं.

टीवी पर प्रसारित होने वाले इन कार्यक्रमों को देख-सुनकर हर भारतीय का सीना गर्व से फूल तो जाता है, लेकिन हक़ीक़त चिंतित करने वाली है. हमने ब्रेन ड्रेन के बारे में तो सुना है, लेकिन आज भी भारत से प्रोफेशनल्स, उद्यमियों एवं व्यापारियों का पलायन जारी है.

न्यू वर्ल्ड वेस्थ नामक संस्था के सर्वे से यह चौंकाने वाली हक़ीक़त सामने आई है कि पिछले 14 सालों में क़रीब 61,000 करोड़पति भारत छोड़कर किसी दूसरे देश में पलायन कर चुके हैं. भारत छोड़ने के उनके ़फैसले के पीछे पहली वजह यहां की ऊंची कर प्रणाली है. दूसरी वजह सुरक्षा व्यवस्था है और तीसरी वजह बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा है.

ये वे लोग हैं, जो नौकरी की तलाश में विदेश नहीं जा रहे, बल्कि जमे-जमाए उद्यमी हैं, जो भारत से अपनी पूरी कमाई और व्यापार समेट कर दूसरे देशों की ओर रुख कर रहे हैं.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, ज़्यादातर भारतीय अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, यूएई एवं सिंगापुर जाना पसंद करते हैं. इन सभी जगहों पर प्रधानमंत्री मोदी का दौरा हो चुका है. अब यह नहीं पता कि उनके दौरे के बाद कितने भारतीय वापस भारत लौटे या वापस आने की योजना बना रहे हैं.

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि लोग भारत से इसलिए पलायन कर रहे हैं, क्योंकि यहां पीने का सा़फ पानी तक उपलब्ध नहीं है, शहरों में अव्यवस्था के साथ-साथ प्रदूषण है, खाने-पीने की चीजों में मिलावट है.

दरअसल, लोग इन तमाम अव्यवस्थाओं से तंग आ चुके हैं, इसलिए जिनके भी पास पैसा है, वे दूसरे देश में बसने की सोचने लगते हैं. पिछले एक साल के दौरान मुंबई से 619 और दिल्ली से 157 करोड़पति देश छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गए.

हालात जब ऐसे हैं, तो श्रेष्ठ भारत का सपना कैसे पूरा होगा? समझने वाली बात यह है कि इन तमाम समस्याओं का निदान इनके कारणों में छिपा है. अगर भारत में सरल कर प्रणाली हो, सख्त क़ानून-व्यवस्था एवं सुरक्षित माहौल हो, अच्छी शिक्षा व्यवस्था हो, शुद्ध पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित हो, प्रदूषण रोकने के इंतजाम हों और मिलावटखोरों के साथ सख्ती बरती जाए, तो यह पलायन रोका जा सकता है.

भारत छोड़कर विदेश जाने वाला यह वर्ग स़िर्फ अकेले नहीं जाता, बल्कि अपने साथ वह पैसा, रा़ेजगार और व्यापार भी ले जाता है तथा अपने पीछे कई लोगों को बेरोज़गार छोड़ जाता है. मोदी सरकार की नज़र अब तक इस भीषण समस्या पर नहीं गई है.

मोदी सरकार अंतरराष्ट्रीय संगठनों की नीतियों के माध्यम से देश में अच्छे दिन लाना चाहती है. यह प्रयोग देश के कई प्रधानमंत्री कर चुके हैं, लेकिन वे नाकाम रहे. समझने वाली बात यह है कि नव-उदारवादी व्यवस्था में जब तक हम अपने लोगों को सामान खरीदने की ताकत नहीं देंगे, तब तक अर्थव्यवस्था में गतिशीलता नहीं आएगी.

भारत में किसी भी सरकार का ध्यान इस ओर नहीं गया. अब तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का भी विश्वास डोलने लगा है. अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडी ने कहा है कि आर्थिक सुधारों के लिए यदि ज़रूरी क़दम न उठाए गए, तो उसका असर भारत में होने वाले निवेश पर पड़ेगा.

मूडी ने यह भी कहा कि राज्यसभा में भारतीय जनता पार्टी के पास जो संख्या बल है, उससे यह नहीं लगता कि मोदी सरकार आर्थिक सुधारों के मद्देनज़र कोई बड़ा क़दम उठा पाएगी. एक तऱफ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं निराश हो रही हैं, वहीं दूसरी तऱफ देश की जनता मुश्किलों में घिरती नज़र आ रही है.

मोदी सरकार को आर्थिक बदलाव के लिए अविलंब सक्रिय होना पड़ेगा. उद्योग, कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात समेत कई क्षेत्रों की स्थिति ठीक नहीं है. मोदी सरकार के 18 महीने बीत चुके हैं.

लोग अब सरकार की नीतियों के नतीजे देखना चाहते हैं. मोदी सरकार अगर विफल होती है, तो देश निराशा के एक ऐसे दौर में जा पहुंचेगा, जिसमें कई लोगों का प्रजातांत्रिक व्यवस्था से विश्वास उठ जाएगा.

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