किसान आंदोलन हमें मोदी के व्यक्तित्व को समझने का नया मौका दे रहा है। यह महज एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा का मसला नहीं है। अब यह उस व्यक्ति की मंशा को समझने का उद्यम बन चुका है। क्या मोदी खुद को इतिहास के नायक के रूप में स्थापित करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।

क्या मोदी अनचाहे तरीकों से इतने क्रूर हो सकते हैं जहां उन्हें लेकर हमारे भीतर स्टालिन और हिटलर जैसों की छवि उभरने लगे। क्या ऐसी कल्पना भारत में संभव है कि कोई प्रधानमंत्री देश के अन्नदाता की उपेक्षा कर संगीत के आनंद में डूब जाए। बनारस में लेज़र शो के संगीत में ताल पर थपकी देते हुए अपनी तस्वीर जानबूझकर प्रस्तुत करे।

इसके मायने क्या हैं। दरअसल यह घमंड है जिसका संदेश वे पूरे देश को देना चाहते थे और उन्होंने दिया। कह सकते हैं कि अब नीरो बंसी नहीं बजाता ताल पर थपकी देता है। इस घमंड या अहंकार में देशवासियों के साथ समूचे विपक्ष के लिए भी संकेत है। मैं फिर जीतूंगा और देखना मैं फिर कैसे जीतूंगा।

पर संभव है इस बार मोदी गच्चा खा जाएं। समझदार लोग बता रहे हैं कि किसानों के नाम पर लाये गये ये तीन बिल केवल किसानों को तबाह करने वाले नहीं हैं। ये अस्सी फीसदी जनता को परोक्ष अपरोक्ष रूप से प्रभावित करेंगे। यानी अगर यह आंदोलन जल्दी नहीं सिमटा तो जो संदेश पूरे देश में जाएगा और जा रहा है वह मोदी के लिए परेशानी का सबब निश्चित रूप से बनेगा।

पर मोदी के घमंड का दूसरा पक्ष यह भी है कि स्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल बन जाएं मुझे परास्त कौन करेगा। सीधा सा समीकरण है मेरे सामने कौन। दार्शनिक तरीकों से सोचने वाले लोग विकल्प की कल्पना को हवा में उड़ाते चले हैं पर यह गरीबों से भरा भारत देश है।

यहां देहाती आदमी दार्शनिक नहीं है वह भोलेपन से पूछता है कि मोदी का विकल्प कौन है क्योंकि उसे वोट देना है। इसे दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी नहीं समझेंगे पर अनपढ़ और क्रूर मोदी खूब समझते हैं। जब तक देश की सीमा, देश के दुश्मन देश और सैनिकों के नाम पर वोट मिलते रहेंगे तब तक लोकतंत्र के नाम पर मोदी में अहंकार बना रहेगा।

लाल बहादुर शास्त्री ने देश के जवान और किसान दोनों को तराजू के दो समान पलड़े मान कर ‘जय जवान जय किसान’ का नारा बुलंद किया था। मोदी की चाल देखिए जवानों को कैश करा कर किसानों को कारपोरेट के हवाले करने का खेल रचा। भारत जैसे गरीब देश को कारपोरेट के हवाले करने का स्वप्न वही व्यक्ति देख सकता है जो गांधी के सपनों को जूतों से कुचलने का दुस्साहस रख सकता हो। मोदी साबित कर रहे हैं गांधी, लोहिया, जेपी उनके लिए केवल नाम भर हैं।

क्रूरता की सीमा देखिए बिना इमरजेंसी का खौफ दिखाए देश की तमाम सरकारी संस्थाओं, शैक्षणिक संस्थानों और न्यायिक क्षेत्र तक को झुका कर अपनी जद में ले लिया। 2019 के चुनावों के तत्काल बाद मेरी योगेन्द्र यादव से फोन पर लंबी बात हुई थी। उन्होंने आशंका व्यक्त नहीं की थी, बल्कि मुझे जैसे सूचित किया था कि सुप्रीम कोर्ट को भी ये लोग अपने प्रभाव में ले लेंगे।

यानी न्यायिक संस्थाओं पर भी इनका कब्जा हो जाएगा। ये कब्जा हो गया। सबसे ज्यादा पैसा हासिल कर लिया। सबसे ज्यादा सदस्य संख्या हो गयी। सबसे ज्यादा स्वयं सेवकों की फौज खड़ी कर ली। पार्टी में अधिनायक वाद खड़ा कर दिया। दिमाग वालों के सामने जड़ बुद्धि के वोटर तैनात कर दिये तो घमंड क्योंकर न हो। पर इस बार यह घमंड टूटेगा क्या। मध्यप्रदेश के उपचुनावों और बिहार चुनाव ने तो कहा नहीं। पर प. बंगाल के चुनाव क्या कहेंगे उस पर बहुत कुछ निर्भर करता है।

किसान आंदोलन शाहीन बाग में तब्दील नहीं हो सकता। बहुत स्पष्ट कारण है वह मुस्लिम समाज से जुड़ा आंदोलन था। यह आंदोलन हर जाति, धर्म के किसान की आन बान शान से जुड़ा है। अंग्रेजों की तर्ज पर तोडने, बिखराव पैदा करने और बदनाम करने के सारे खेल हो रहे हैं। लेकिन खूबी यही है कि किसान हर बात को समझ रहा है। तो क्या यह आंदोलन मोदी काल के संक्षिप्त इतिहास को धराशायी करने के लिए काफी है।

शायद ऐसा हो भी। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आजकल लोगों की याद्दाश्त बड़ी कमजोर होती है। वे मोदी की पिछली सारी क्रूरता जो नोटबंदी से शुरू हुईं थीं, सब भूल चुके हैं। और मोदी हर चीज और हर दुश्मन को याद रखने के लिए जाने जाते हैं। तो किसान आंदोलन नये मोदी को हमारे सामने प्रस्तुत करेगा। देखना है कि वह क्रूर होगा या क्रूरतम। याकि किसी नये बाजीगर की तरह अट्टहास करने वाला। फिर भी लोहा गरम है वार करने वाला चाहिए।

 

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