parlimentजजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए ‘पैरवी में है दम, जज बनेंगे हम’ खबर राष्ट्रीय साप्ताहिक अखबार ‘चौथी दुनिया’ में प्रकाशित होने के बाद केंद्र सरकार ने अब नियुक्ति के मामले में सख्त रुख अपना लिया है. ‘चौथी दुनिया’ द्वारा जजों की नियुक्ति के मामले में धांधली का मामला उठाए जाने के बाद केंद्र सरकार ने जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी और इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) को इस मामले की जांच करने को कहा गया था. अब जजों की नियुक्ति के लिए केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट और सभी हाईकोर्ट में सचिवालय के निर्माण पर विचार कर रही है. यह सचिवालय सुप्रीम कोर्ट और देश के सभी हाईकोर्ट में नियुक्त होने वाले जजों की स्क्रूटनी करेगा. सचिवालय का प्रावधान मेमेरोडेंम ऑफ प्रोसिजर एमओपी में भी किया गया है. इसके साथ ही सचिवालय जजों और रिटायर्ड जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की शिकायत की भी जांच करेगा. हालांकि मुख्य न्यायाधीश और कॉलेजियम न्यायिक स्वतंत्रता को प्रभावित करने के आधार पर इस प्रक्रिया का विरोध कर रहे हैं.

केंद्र सरकार का मानना है कि देश के सभी हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में स्थायी सचिवालय का गठन होने से जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में पारदर्शिता आएगी. सरकार ने कानूनी जानकारों से सलाह-मशविरे के बाद इसे लागू करने का फैसला किया है. सरकार का मानना है कि जनता को यह जानने का अधिकार होना चाहिए कि किसी जज की नियुक्ति किस आधार पर और क्यों की गई है.

हाल में इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने करीब 50 नाम जजों की नियुक्ति के लिए भेजे थे, जिनमें अधिकतर जजों व नेताओं के बेटे और रिश्तेदारों के नाम शामिल थे. लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन नामों की सूची में ओबीसी, अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का एक भी वकील शामिल नहीं था. इस खबर के छपने के बाद केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति को लेकर एक बार फिर हरकत में आ गई है.

कानूनी जानकारों का कहना है कि न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर देश में एक ऐसी पक्षपातपूर्ण व्यवस्था को जन्म दिया गया, जहां जज एक कमरे में बैठकर यह तय कर लेते हैं कि उनका साथी जज कौन होगा? संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप बताते हैं कि यह अपने आप में अनूठा है कि इस देश में जज ही साथी जजों की नियुक्ति करते हैं. अमेरिका में भी जजों की नियुक्ति को सीनेट से पारित कराना पड़ता है. इसी का फायदा उठाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने जजों और नेताओं के नाते-रिश्तेदारों का नाम एक बंद लिफाफे में रख कर सुप्रीम कोर्ट भेज दिया था. अगर यह पक्षपातपूर्ण मामला सामने नहीं आता, तो अभी तक ये जज हाईकोर्ट में नियुक्त होकर लोगों को न्याय दिलाने का स्वांग रच रहे होते. लोगों का न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास बहाल रहे, इसके लिए जरूरी है कि जजों की नियुक्ति की निष्पक्ष, पारदर्शी और खुली व्यवस्था अपनाई जाए. धांधलीपूर्ण नियुक्ति प्रक्रिया के कारण कुछ अच्छे न्यायविद् न्यायिक प्रक्रिया से बाहर रह जाते हैं और कुछ अयोग्य लोग हेरा-फेरी कर उच्च न्यायिक पदों पर आसीन होकर न्याय व्यवस्था का मखौल बनाते हैं. यही कारण है कि केंद्र सरकार अभी जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं मानती.

केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर तनातनी का असर देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है. अभी हालत यह है कि देश में तीन करोड़ से ज्यादा मामले लंबित पड़े हैं. मई 2016 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने कहा था कि इन लंबित मामलों के निपटारे के लिए 40 हजार जजों की जरूरत है. वहीं देश में 24 हाईकोर्ट में 397 जजों के पद खाली पड़े हैं. इसमें सबसे बुरी हालत इलाहाबाद हाईकोर्ट की है. यहां 160 जजों की जरूरत है, जबकि अभी केवल 75 जज ही कोर्ट का काम देख रहे हैं. 2014 में तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने भी इस बात को स्वीकार किया था कि जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार पर द्रमुक का दबाव था. सरकार बचाने के लिए एक जज को पदोन्नति देने के मामले को उठाकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने न्यायिक प्रक्रिया में हलचल मचा दी थी. हालांकि कानून मंत्री ने यह स्वीकार किया था कि जज के कार्यकाल विस्तार का फैसला नियमों के तहत ही लिया गया था. लेकिन न जाने कितनी बार ऐसा हुआ होगा कि सरकार के दबाव में आकर मनोनुकूल जजों की नियुक्ति की गई होगी और उन्होंने उपकृत होने के बाद न्याय प्रणाली का मजाक बनाया होगा. यह एक अलग जांच का विषय हो सकता है, लेकिन जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगने के बाद यह जरूरी हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया अपनाने के बाद न्याय के उच्च पद पर आसीन लोगों की नियुक्ति करे, ताकि जनता का न्याय व्यवस्था में फिर से विश्वास बहाल किया जा सके. एक बात तो तय है कि न्यायिक प्रक्रिया में आमूल चूल परिवर्तन की जरूरत है. इसके लिए हम कहीं से भी शुरू कर सकते हैं, लेकिन जल्द बेहतर परिणाम चाहते हैं तो शुरुआत शिखर से ही करनी होगी.

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