चर्चा है कि किसान आंदोलन विपक्ष की जगह ले रहा है। पर लोकतांत्रिक व्यवस्था वाली राजनीति में सापेक्षता का सिद्धांत तो पार्टी पालिटिक्स की ही पैरवी करता है। बेशक किसान आंदोलन अपनी जगह ले रहा है पर समय भी बहुत तेजी से निकल रहा है और बदल रहा है। क्रूर सत्ता और शासक समय के मोहताज नहीं, उनकी अपनी रफ्तार है। ऐसे में जरूरी है कि हम किसान आंदोलन को उसकी रफ्तार पर छोड़ कर कांग्रेस की तरफ देखें। इसलिए कि कांग्रेस समूचे देश में कहीं भी कमजोर नहीं हुई है।

आज कांग्रेस की जो गति है उससे उसके कार्यकर्ता निराश जरूर हैं पर थके नहीं हैं।हम सब देख रहे हैं कि कांग्रेस में क्या हो रहा है। कल इस विषय पर एक सारगर्भित चर्चा ‘सत्य हिंदी’ पर सुनी। पुष्पेश पंत, सै. इरफान हबीब और आलोक जोशी के साथ आशुतोष ने बातचीत की। लब्बोलुआब यह निकला कि कांग्रेस मोदी सरकार को निपटाएगी या खुद ही निपट जाएगी। इरफान हबीब का विश्लेषण बड़ा स्पष्ट और धारदार था। कांग्रेस में फूट के आसार दिख रहे हैं। उसके कारण भी सबके सामने हैं। पर सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस का क्या हश्र होगा। सवाल यह है कि कांग्रेस के ध्वस्त हो जाने का देश की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

पहले ही गली कूंचों में शोर है विकल्प का और कौन नहीं जानता कि तात्कालिक विकल्प कांग्रेस से बेहतर और कौन सा है। जब चौसर बदलती है तो भूमिकाएं भी खुद ब खुद बदल जाया करती हैं। फिलहाल यह बात गौण है कि कांग्रेस आज की सत्ता की गति, रफ्तार और कुकर्मो की जननी है। सच तो यह है कि आज की सत्ता कांग्रेस से कहीं बहुत आगे निकल चुकी है और यदि इस सत्ता को समय रहते रोका न गया तो जो हश्र आज हम कांग्रेस का देख रहे हैं वही हश्र देश का होता देखेंगे। सब जानते हैं कि तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं का यह सत्ता किस बेशर्मी से उपयोग कर रही है। हर संस्था के शीर्ष पर आरएसएस बुलंद है। दम घोंटू वातावरण में हम सब जीने को मजबूर हो रहे हैं।

ऐसे में यदि हम वोट की राजनीति में विकल्प की बात करें तो जरूरी है कि कांग्रेस को चाहते न चाहते हमें उसके वज़ूद को मजबूती के साथ बरकरार रखना होगा। मुझे लगता है हर कोई कांग्रेस के वर्तमान से नाखुश होते हुए चिंतित भी होगा। लेकिन इतना भर काफी नहीं। क्यों नहीं हमारे पत्रकार और देश की चिंता में घुले मरे जा रहे बुद्धिजीवी कांग्रेस संकट में स्वत: दखल देने की सोचते। क्या यह जरूरी नहीं कि सजग बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का एक प्रतिनिधिमण्डल गांधी परिवार और 23 जी वाले नेताओं से बीच बचाव करे।

‘परसेप्शन’ बहुत बड़ी चीज होती है। आज के समय में जो ‘परसेप्शन’ की लड़ाई जीत गया वह समझो सब कुछ जीत गया। राहुल गांधी कितना ही समझदार और सौम्य व्यक्तित्व वाला शख्स हो पर राजनीति और वह भी सत्ता के लिए की जाने वाली राजनीति में नौसीखिया ही कहा जाएगा। फिर रास्ता क्या हो, सवाल सबसे बडा़ यही है। रास्ता ऐसा हो जो देश भर के कांग्रेसियों में जान फूंक दे। यकीन मानिए जिस दिन कांग्रेस अपने बूते खड़ी हो गयी वह दिन मोदी सत्ता के लिए आखिरी हो सकता है।

पिछले दिनों दो चार एपीसोड बहुत जोरदार देखे। पिछले शनिवार सरकार द्वारा ओटीटी प्लेटफार्म के बहाने सोशल मीडिया पर नकेल कसने को लेकर आलोक जोशी द्वारा ‘सत्य हिंदी’ के मैनेजिंग डायरेक्टर कमर वहीद नकवी से बातचीत बहुत सारगर्भित थी। उसी शाम किसान आंदोलन पर संतोष भारतीय की अखिलेंद्र प्रताप सिंह से बातचीत उतनी ही शानदार थी। अगले दिन रविवार को संतोष जी ने अभय कुमार दुबे से बातचीत की। वह तो हमेशा की तरह ही थी लाजवाब। एक एपिसोड संतोष भारतीय का वैक्सीन में फंगस को लेकर था।

वह इतना प्रभावी था कि मैंने कई लोगों को भेजा। इस अपील से कि इसे जरूर सुना जाए पूरा। ऐसे ही अचानक कल अरविंद मोहन से संतोष जी की कोई पुरानी, शायद बिहार चुनाव के समय की बातचीत सुनी। गांधी पर अरविंद मोहन जो अद्भुत काम कर रहे हैं उसकी पूरी जानकारी के साथ और भी पत्रकारिता संबंधी भी जानकारियां मिलीं। संतोष जी की प्रस्तुतिकरण की शैली निराली है मानना होगा। कोई भी मजबूर हो सकता है पूरा सुनने के लिए। एक बार सुन कर देखिए संवाद की शैली धीमी धीमी आवाज में।

ऐसी शैली अपूर्वानंद की है। आशुतोष, पुण्य प्रसून वाजपेयी और इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमन तिवारी जैसे लोग भागते दौड़ते से दिखते हैं। आलोक जोशी का विश्लेषण सुनने को भी व्यक्ति वहीं ठिठक जाता है। सबसे अलग हट कर कही गयी बात में हमेशा दम होता है। भाषा सिंह के कार्यक्रम नियमित आ रहे हैं और कोई कोई एपीसोड तो बहुत जानदार बन पड़ता है। आरफा खानम इस बार कुछ कम दिखीं।

वीश कुमार का प्राइम टाइम अपनी धार में बरकरार है। एक सुझाव मित्रों का है रवीश के लिए। वह यह कि रवीश एक ही बार में बिना ब्रेक लिए अपनी बात क्यों नहीं कह देते। इस तरह उनका कार्यक्रम नान स्टाप चालीस मिनट का हो जाएगा। और लोगों को तसल्ली भी होगी। अभी ब्रेक के बाद बहुत कम बचते हैं देखने वाले। यह शायद रवीश भी जानते होंगे। विनोद दुआ अपने तकिया कलाम ‘बहरहाल’ के साथ चल रहे हैं कभी जोरदार कभी खानापूर्ति जैसा।

कुल मिला कर हम सब और यह देश बेहद खतरनाक दौर से गुजर रहा है। अमेरिकी थिंक टैंक ‘फ्रीडम हाउस’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में नागरिक स्वतंत्रता का निरंतर क्षरण हो रहा है। रिपोर्ट ने भारत को ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ देश में शामिल किया है। पिछले दिनों हैरान करने वाला आंकड़ा हमारे ही यहां से आया था जब पता चला कि पिछले दो सालों में छ: हजार तीन सौ केस राष्ट्रद्रोह के हमारे यहां दर्ज हुए हैं। निरपराध बुद्धिजीवी जेलों के अंदर हैं। बुद्धिजीवियों से पहले ही दिन से खौफ खायी सरकार किसान आंदोलन से और खौफ में आ गयी है। समय धीरे धीरे ऐसा आ रहा है कि बहती हवा से भी यह सरकार खौफ खाएगी और जुल्म ढहाए जाएंगे आम इंसानों पर।

बसंत पांडे

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