बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय का गौरवपूर्ण अतीत रहा है. परंतु सरकारी अनदेखी के कारण इसके अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है. विश्वविद्यालय से संबंद्ध उत्तर बिहार के तकरीबन आधा दर्जन जिलों के 39 अंगीभूत एवं 40 निजी कॉलेज शिक्षक-शिक्षकेत्तर कर्मचारियों की कमी के कारण ठप्प पड़े हैं. विश्वविद्यालय में जो कार्यरत कर्मचारी हैं, वे भी अक्सर अपनी विभिन्न मांगों के समर्थन में आंदोलन करते रहते हैं. नतीजा है कि छात्रों का भविष्य अधर में पड़ गया है. यहां तो पढ़ाई के बारे में सोचना भी बेमानी है, जो छात्र-छात्राएं जिलों से कागजी त्रूटियों में सुधार कराने आते हैं, वो भी विश्वविद्यालय में ताला लटका देखकर मायूसी के साथ वापस लौट जाते हैं. विश्वविद्यालय परिसर में इनकी समस्या के निदान की कोई व्यवस्था नहीं है. मोतिहारी, बेतिया, सीतामढ़ी व वैशाली जिले के विभिन्न कॉलेजों में नामांकित छात्र-छात्राओं के लिए ससमय परीक्षा एक पहेली बनी हुई है. आलम यह है कि 2016 में बीए में एडमिशन लेने वाले छात्र अभी तक पार्ट वन की परीक्षा नहीं दे सके हैं.

विश्वविद्यालय से लेकर कॉलेजों तक की समस्या के संदर्भ में बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ अमरेंद्र नारायण यादव का कहना है कि यहां लगभग 70 फीसदी कर्मियों की कमी है. सरकारी निर्देश के आलोक में कुलपति के स्तर पर आइटसोर्सिंग के तहत सीमित कर्मियों को ही रखा जा सकता है, वो भी मात्र 11 माह के लिए. जहां तक विश्वविद्यालय के कर्मियों की मांग का सवाल है, तो चूंकि यह वित्तीय मामला है, इसलिए इसमें हमारे हस्तक्षेप से समाधान नहीं होगा. अनुकंपा व समान काम का समान वेतन के संदर्भ में सरकारी स्तर पर ही कोई पहल संभव है. इधर विश्वविद्यालय कर्मचारी संघ के सचिव गौरव का कहना है कि 12 अगस्त 2017 को विश्वविद्यालय प्रशासन एवं विश्वविद्यालय कर्मचारियों के बीच एक वार्ता हुई थी, जिसमें 10 बिन्दुओं पर सहमति व्यक्त करते हुए एक ज्ञापन सौपा गया था.

सौंपे गए ज्ञापन में कार्य दिवस एवं कार्यावधि के अलावा कार्य करने वाले कर्मियों के अल्पाहार राशि का भुगतान संबंधित पदाधिकारी के सत्यापन के बाद किए जाने और पूर्व में हुए शिक्षकेत्तर कर्मचारियों की प्रौन्नति के आलोक में वेतन निर्धारित कर 45 दिनों के अंदर उसका अनुमोदन सुनिश्चित करने पर सहमति बनी थी. लेकिन अब तक ऐसा नही किया जा सका है. 11 जनवरी 2018 को कर्मचारी प्रतिनिधियों को वार्ता हेतू बुलाया गया, लेकिन लगभग 40 मिनट के इंतजार के बावजूद सभा कक्ष में विश्वविद्यालय का कोई अधिकारी नहीं पहुंचा. नतीजतन पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के तहत 12 जनवरी से कर्मचारियों ने धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया. 16 जनवरी को कर्मचारियों ने कुलपति आवास के समक्ष प्रदर्शन किया.

सियासत की भेंट चढ़ी छात्र एकजुटता

बिहार में उच्च शिक्षा का यह महत्वपूर्ण केंद्र हुक्मरानों की अनदेखी का खामियाजा तो भुगत ही रहा है, छात्र संगठनों की आपसी एकजुटता भी राजनीति की भेंट चढ़ गई है. छात्रों का समूह विभिन्न राजनीतिक मंचों में बंटकर अपनी अहमयित खोने लगा है. यही कारण भी है कि विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों की मांग को अहमियत नहीं देता. छात्रों व कर्मचारियों की मांग को लेकर छात्र हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के प्रदेश प्रवक्ता सह विश्वविद्यालय अध्यक्ष संकेत मिश्रा का कहना है कि कर्मचारी संघ के आंदोलन को विश्वविद्यालय प्रशासन नजरअंदाज कर रहा है. छात्र एवं कर्मचारी हित में जायज मांगों को मान लिया जाना चाहिए.

इससे समय की बर्बादी रुकेगी और छात्रों के भविष्य से खतरा टलेगा. वहीं पूर्व विश्वविद्यालय अध्यक्ष सह भाजपा बुद्धिजीवि प्रकोष्ठ के संयोजक मुन्ना सिंह यादव का कहना है कि कर्मचारियों के अनिश्चितकालीन हड़ताल के कारण विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों को परेशानी उठानी पड़ रही है. कर्मचारियों को अपनी जायज मांगों को लेकर उच्च न्यायालय जाना चाहिए. 16 जनवरी को छात्र राजद कार्यकर्ताओं ने छात्र संघ का चुनाव कराने की मांग को लेकर विश्वविद्यालय में प्रदर्शन किया और कुलपति का पुतला फूंका. छात्र राजद के विश्वविद्यालय अध्यक्ष चंदन आजाद ने कहा कि विश्वविद्यालय में कुलाधिपति के आदेश का पालन नहीं हो रहा है.

राजभवन ने 15 जनवरी से चुनाव की प्रक्रिया शुरू करने का आदेश दिया था. लेकिन अब तक इस दिशा में कुछ भी नहीं हुआ है. 30 हजार छात्रों का रिजल्ट पेंडिंग है. 2016 में पार्ट-1 में नामांकन लेने वाले छात्रों की अब तक परीक्षा भी नहीं हुई है. प्रदर्शन के समय विश्वविद्यालय परिसर में मौजूद रहे छात्र-छात्राओं के अभिभावकों ने भी विश्वविद्यालय प्रशासन के प्रति गहरा रोष जताया. उनका कहना था कि अब यह विश्वविद्यालय महज एक दिखावा बन कर रह गया है. मामूली काम के लिए भी बार-बार दौड़ लगाने की विवशता बनी हुई है. लेकिन इससे न तो कर्मचारियों को और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन को कोई मतलब है. शिक्षा के सर्वांगीण विकास का दावा करने वाले जनप्रतिनिधियों को भी दलगत राजनीति से ही मतलब रह गया है. अगर यही आलम रहा तो बहुत जल्द ही विश्वविद्यालय अतीत का अध्याय बन कर रह जाएगा.

खत्म हो जाएगी बिहार के सबसे बड़े विश्वविद्यालय की पहचान

अपनी गुणवतापूर्ण शैक्षणिक व्यवस्था के कारण कभी बिहार ही नहीं वरन देश भर में चर्चा के केंद्र में रहने वाले मगध विश्वविद्यालय की पहचान धीरे-धीरे घूमिल होती जा रही है. देश का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय होने की इसकी ख्याति भी अब खत्म होने वाली है. 1992 में पहली बार बंटने के बाद अब एक बार फिर से मगध विश्वविद्यालय का बंटवारा होने जा रहा है. अब इससे अलग होकर पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय अस्तित्व में आएगा. बिहार सरकार ने 1992 में मगध विश्वविद्यालय से शहाबाद और कैमूर क्षेत्र को अलग कर आरा में वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय बना दिया था. उस समय मगध विश्वविद्यालय के 19 अंगीभूत कॉलेज वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय को दिए गए थे. उसके बाद मगध विश्वविद्यालय के पास मात्र 44 अंगीभूत कॉलेज रह गए, लेकिन अब राज्य सरकार ने इससे पटना प्रमंडल के कॉलेजों को अलग कर पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय बनाने का निर्णय लिया है.

राज्य सरकार की ओर से जब पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय बनाने की घोषणा की गई, तभी यहां के शिक्षक, शिक्षकेतर कर्मी और छात्र संगठनों के नेताओं ने इसका विरोध किया. राजनीतिक दलों ने भी सरकार के इस फैसले का विरोध किया और राज्य सरकार के निर्णय को गलत बताया. पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने तो मगध विश्वविद्यालय के बंटवारे को गलत करार देते हुए इस मुद्दे पर आन्दोलन करने की भी बात कही थी. लेकिन इन सबके बावजूद राज्य सरकार की ओर से पाटलिपुत्र विश्वविद्याालय के गठन की प्रकिया शुरू की जा चुकी है. इस बंटवारे से मगध विश्वविद्यालय के अंतर्गत आनेवाले पटना व नालंदा जिले के 25 अंगीभूत कॉलेज और तकनीकी, डेंटल व बीएड कॉलेज भी नवगठित पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में चले जाएंगे. इसके बाद मगध विश्वविद्यालय में गया, जहानाबाद, नवादा, औरगंाबाद और अरवल यानि सिर्फ मगध प्रमंडल के मात्र 19 अंगीभूत कॉलेज ही रह जाएंगे. अभी मगध विश्वविद्यालय में 44 अंगीभूत, 4 अल्पसंख्यक अंगीभूत, 200 संबंद्ध 56 बीएड तथा कई फार्मेसी व वोकेशनल कॉलेज हैं.

बिहार के तत्कालीन शिक्षामंत्री और दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री सतेन्द्र नारायण सिन्हा के प्रयासों से 1962 में स्थापित मगध विश्वविद्यालय के पहले कुलपति थे, मशहूर इतिहासकार डॉ केके दत्ता. जब देश के किसी भी विश्वविद्यालय में पचास से अधिक अंगीभूत कॉलेज नहीं थे, उस समय मगध विश्वविद्यालय के पास 63 अंगीभूत कॉलेज थे. शुरू में इस विश्वविद्यालय की काफी गरिमा थी, लेकिन 1985 के बाद मगध विश्वविद्यालय में आने वाले अधिकतर कुलपतियों, कुलसचिवों तथा अन्य पदाधिकारियों ने इसे अपना चरागाह बनाने में ही ज्यादा दिलचस्पी ली. यहां की शैक्षणिक और प्रशासनिक व्यवस्था को ठीक करने पर बहुत कम ध्यान दिया गया, जिसके कारण मगध विश्वविद्यालय पिछले ढाई दशक में फर्जी डिग्री, वितीय गड़बड़ी और शैक्षणिक अराजकता के कारण पूरे देश में बदनाम हो गया.

जब मगध विश्वविद्यालय के बंटवारे की खबर आई थी, तभी यहां के शिक्षकों व शिक्षकेत्तर कर्मियों ने इसका विरोध किया था, इसके लिए एक अगस्त 2016 को विश्वविद्यालय मुख्यालय में धरना दिया गया था. इससे जुड़े लोगों ने इस बंटवारे को मगध विश्वविद्यालय का असामयिक निधन मानते हुए इसके विरोध में 13 दिन का शोक मनाते हुए श्राद्ध कर्म भी किया था. लेकिन इनकी आवाज नहीं सुनी गई. मगध विश्वविद्यालय के सिनेट के सदस्य तथा मुठा के महासचिव डॉ ब्रजेश राय का कहना है कि 1992 में इस विश्वविद्याालय का बंटवारा कर वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय बनाया गया था, जिसका दंश अभी तक मगध विश्वविद्यालय झेल रहा है. अब पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के निर्माण के बाद मगध विश्वविद्यालय के अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो जाएगा.

विश्वविद्यालय परिसर का 119 एकड़ भूमि सरकार आईआईएम को दे चुकी है, जबकि आवंटित भूमि पर मगध विश्वविद्यालय का स्टेडियम, छात्रावास तथा आवासीय क्वाटर बने हुए हैं. इसके बदले मगध विश्वविधालय को 900 करोड़ का मुआवजा मिलना था. लेकिन वो भी अब तक नहीं मिल सका है. विश्वविद्यालय शिक्षकेतर कर्मचारी संघ के महासचिव डॉ अमरनाथ पाठक ने कहा कि इस विश्वविद्यालय का विभाजन एक साजिश के तहत हो रहा है. कुलपतियों द्वारा मगध विश्वविद्यालय की डिपोजिट राशि को भी धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है.

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