modi governmentकहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए, अब तो चिराग भी मयस्सर नहीं शहर के लिए. अगर बात प्रधानमंत्री मोदी के वादों और किसानों के मौजूदा हालात पर की जाए तो यह शेर एकदम फिट बैठता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट बताती है कि साल 2014 से 2015 के बीच किसानों की आत्महत्या दर में 42 फीसदी का इजाफा हुआ है.

इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य यह कि एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में 8007 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं 2014 में यह संख्या 5650 थी. 2015 में जिन 8007 किसानों ने आत्महत्या की, उनमें से करीब 80 फीसदी ने साहूकारों से नहीं, बल्कि बैंकों से कर्ज लिया था. आमतौर पर अब तक इसके लिए साहूकारों को दोष दिया जाता था.

तो क्या इस रिपोर्ट के आधार पर यह नहीं माना जा सकता है कि बैंकों ने ही अब साहूकारों की जगह ले ली है. एक तरफ तो ये बैंक बड़े-बड़े उद्योगपतियों का कर्ज माफ कर देती है या उनसे औने-पौने में समझौता कर लेती है, वहीं सरकार भी कॉरपोरेट घरानों को कॉरपोरेट टैक्स में भारी छूट दे देती है. इधर देश के अन्नदाताओं को सरकारी बैंकों और सूक्ष्म वित्तीय संस्थानों से कुछेक हजार का कर्ज लेकर अपनी जान देनी पड़ रही है.

जाहिर है, आज सरकार ही साहूकार की भूमिका में आ गई है. (देखें बॉक्स) सवाल है कि मोदी सरकार के उस नारे का क्या हुआ, जिसमें कहा गया था कि बहुत हुआ किसानों पर वार, अबकी बार मोदी सरकार. किसानों ने तो उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया, लेकिन  आज तक उन्हें स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों का लाभ नहीं मिला, जिसकी गूंज तब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की तकरीबन हर एक सभा में सुनने को मिलती थी.

नोटबन्दी के दौरान किसानों के मरने की खबर आई. पंजाब के किसान महिंदर सिंह पन्नू को अपनी बेटी की शादी के लिए बैंक से पैसा नहीं मिल पा रहा था. नतीजतन, उन्होंने आत्महत्या कर ली. उधर, नोटबन्दी की वजह से पैसा न मिलने के कारण मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ से भी किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरें मिलीं. वैसे, नोटबन्दी के दौरान कितने किसानों ने आत्महत्याएं की या उनकी मौत हुई, इसकी विस्तृत जानकारी अगले कुछ समय में आएगी. फिलहाल, एनसीआरबी रिपोर्ट की बात करें तो साल 2015 में महाराष्ट्र में 3030, तेलंगाना में 1358, कर्नाटक में 1197, छत्तीसगढ़ में 854 और मध्यप्रदेश में 516 किसानों ने आत्महत्याएं की.

इन राज्यों में सर्वाधिक किसानों ने आत्महत्याएं की. 2015 में किसानों के अलावा कृषि क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों द्वारा भारी संख्या में आत्महत्या किए जाने की बात भी एनसीआरबी की रिपोर्ट में है. रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2015 में 4595 कृषि श्रमिकों (कृषि क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर) ने आत्महत्याएं की. इस तरह देखें, तो सिर्फ 2015 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 12,602 लोगों ने आत्महत्याएं की.

किसानों का दिवालिया होना और उन पर भारी कर्ज लद जाना, किसान आत्महत्या की बड़ी वजह रही. कृषि से ज़ुडे अन्य मुद्दे आत्महत्या की दूसरी वजहें रहीं, जैसे सूखा, फसल बर्बाद होना आदि. 2015 में आत्महत्या करने वाले किसानों में से करीब 73 फीसदी छोटे और सीमांत किसान थे, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन थी. जाहिर है, किसानों की दुर्दशा दूर करने के लिए बनाई गई स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को अमल में लाकर प्रधानमंत्री को अपना वादा पूरा करना चाहिए.

स्वामीनाथन आयोग ने अपनी सिफारिशों में बताया था कि सीलिंग सरप्लस और बंजर भूमि का वितरण किया जाए, ताकि भूमिहीन लोगों को जमीन मिल सके. मुख्य कृषि भूमि और जंगल की जमीन कॉरपोरेट क्षेत्र को ग़ैर कृषि प्रयोजनों के लिए देने पर रोक लगाई जानी चाहिए, लेकिन आज भी यह बदस्तूर जारी है. राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाहकार सेवा की स्थापना की जानी चाहिए. कृषि भूमि की बिक्री विनियमित करने के लिए एक तंत्र की स्थापना की जानी चाहिए.

किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए माइक्रो फाइनांस नीतियों का पुनर्गठन करना चाहिए, सस्ती क़ीमत, सही समय-स्थान पर गुणवत्तायुक्त बीजों और अन्य सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कार्यान्वयन में सुधार करते हुए यह उत्पादन की औसत लागत की तुलना में कम से कम 50 फीसद अधिक होनी चाहिए. लेकिन, दुख की बात है कि सरकार इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने के बजाए नोटबन्दी जैसे कॉस्मेटिक सर्जरी के काम में व्यस्त है.

बैंक बन गए साहूकार

बैंक कैसे साहूकार की भूमिका में आ गए हैं, इसका उदाहरण है मध्य प्रदेश. यहां कर्ज वसूलने के जो मानक और मापदंड मध्य प्रदेश सरकार ने तय किए हैं, वह किसान आत्महत्या की एक बड़ी वजह है. आज मध्य प्रदेश का किसान लाखों रुपए कर्ज में डूबा हुआ है. किसान क्रेडिट कार्ड के तहत मिलने वाली इस सरकारी ऋृण योजना की शर्त यह है कि किसानों को हर साल पूरा ऋृण लौटाना अनिवार्य होता है.

ऋृण लौटाने की आखिरी तारीख 15 मार्च निर्धारित है. अगर कोई किसान 15 मार्च तक पैसे जमा नहीं करेगा, तो वह डिफॉल्टर हो जाएगा. वहीं किसानों को अपनी उपज का पैसा मंडी से मिलता है, जो 15 अप्रैल को खुलती है. ऐसे में, 15 मार्च की निर्धारित तारीख के बाद किसानों को 6 फीसदी अधिक ब्याज देना पड़ता है.

इस ऋृण योजना के तहत किसानों पर 15 मार्च की तलवार लटकी होती है. किसानों को मदद देने के बजाय सरकार और बैंक ही साहूकार की भूमिका में आ जाते हैं. किसानों के पास 15 मार्च तक ऋृण लौटाने का पैसा नहीं होता तो बैंक उस किसान को फिर से लोन दे देती है. बैंक अगले ही दिन इस नए लोन से मिले पैसे को जमा करा लेता है. इस तरह कागज पर किसान पिछले साल का कर्ज लौटा देता है और 16 फीसदी ब्याज देने से बच भी जाता है.

लेकिन, किसानों को जो नया लोन मिलता है, उसमें वह पिछले लोन का 10 फीसदी जोड़ कर देता है. अगर किसी किसान ने एक लाख रुपए का लोन लिया था,तो बैंक उसे अगले साल एक लाख 10 हजार रुपये का लोन दे देता है. लिहाजा, किसान हर साल 10 फीसदी के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा कर्ज में दबा चला जा रहा है. किसान क्रेडिट कार्ड के नाम पर जीरो फीसदी ब्याज के नाम पर जो मदद दी जा रही है, ये मदद ही असल में किसानों को आत्महत्या करने पर विवश कर रही है.

किसान आत्महत्या के मामले में शीर्ष छह राज्य (2015)

राज्य   खुदकुशी कुल प्रतिशत

महाराष्ट्र 3030       37.8

तेलंगाना 1358       17

कर्नाटका 1197       14.9

छत्तीसगढ़      854         10.7

मध्य प्रदेश     581         7.3

आंध्रप्रदेश       516         6.4

-एनसीआरबी

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