बहुत सारे लोग समझते हैं कि भारत का संविधान बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के सपनों का संविधान है. सच ये है कि एक नव-स्वाधीन देश का जैसा संविधान वह बनाना चाहते थे, ये हू-ब-हू वैसा नही है. संविधान सभा की तत्कालीन संरचना, सोच और उस दौर के राजनीतिक परिवेश में जितना भी संभव था, उन्होंने अपने सहयोगियों से मिलकर संविधान का प्रारूप पेश किया. नियमानुसार, यह प्रारूप अलग-अलग समय प्रस्तुत और स्वीकृत हुए प्रस्तावों-सुझावों की रोशनी में तैयार हुआ.

सच ये है कि डॉ अम्बेडकर की इससे भी ज्यादा सुसंगत, साफ और समावेशी संविधान की परिकल्पना थी. इसकी एक संक्षिप्त झलक अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिसंघ के ज्ञापन में मिलती है, जो उन्होंने काफी समय लगाकर तैयार किया था. ‘संयुक्त राज्य भारत का संविधान’ शीर्षक से वह उनके संपूर्ण वाङ्मय के खंड 2 में संकलित भी है. कई अन्य आलेखों और संबोधनों में भी डॉ अम्बेडकर ने संविधान की अपनी धारणा पर प्रकाश डाला है. इसके बावजूद वह मानते थे कि इस संविधान की रोशनी में अगर भावी सत्ता-संचालक समाज और देश के हक में काम करेंगे तो भारत को एक बेहतर समाज बनाया जा सकता है. राजनैतिक लोकतंत्र के साथ सामाजिक लोकतंत्र हासिल किया जा सकता है.

उनके लिए सामाजिक लोकतंत्र का मतलब था: सामाजिक जीवन का वह मार्ग जो स्वातंत्र्य, समता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करे. उनका मानना था कि एक वास्तविक लोकतंत्र में स्वातंत्र्य, समता और बंधुत्व को एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. सोचिये, संविधान हासिल करने के सत्तर साल बाद आज हम कहां खड़े हैं?
संविधान सभा में 25 नवम्बर, 1949 के अपने ऐतिहासिक संबोधन में डा अम्बेडकर ने भारत के भावी समाज और लोकतंत्र की वृहत्तर चुनौतियों पर प्रकाश डाला.

उनका वह संबोधन आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास का महानतम भाषण है. भारतीय राष्ट्र-राज्य आज जिस गहरे संकट और वैचारिक अंधेरे में फंसा दिखता है, डा. अम्बेडकर का ऐतिहासिक संबोधन वहां से बाहर निकलने का हमे रास्ता दिखाता है. संपूर्णता में देखें तो यह वही रास्ता है, जो शहीद भगत सिंह जैसों का स्वप्न था: ‘राजनीतिक जीवन की समानता’ को ‘सामाजिक और आर्थिक जीवन’ में लाना.

पर आज उस रास्ते पर चलने वाले किधर और कितने हैं? सच ये है कि आजादी के बाद उस रास्ते पर नहीं चलने के कारण ही आज हम इस भयावह मोड़ पर पहुंचे हैं. वर्षो की गलतियों के चलते ही ये मंज़र सामने आया है. यहां से सही और सुसंगत रास्ते की तरफ मुड़ना कठिन जरूर है पर असंभव नहीं. सही राजनीति और महान् राजनीतिज्ञ ही मुश्किल दिखते परिदृश्य को सहज और सुसंगत बनाते हैं. इसके लिए बहुत ईमानदारी, समझदारी, धीरज और साहस की जरूरत है. संविधान दिवस ऐसी चुनौतियों पर गंभीरता से सोचने का अवसर देता है. सोचिये और देश व समाज के लिए कुछ बेहतर करने की कोशिश कीजिये.
संविधान-दिवस की बधाई और शुभकामनाएं!

उर्मिलेश

 

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