UP Busचुनाव आया तो नारा आया, ‘यूपी को ये साथ पसंद है’. पांच साल तो यूपी के लोग सुनते रहे, ‘सपा को हाथ नापसंद है’… नापसंदगी से पसंदगी में सपा का परिवर्तन उसके मूल चारित्रिक बदलाव की सनद है. ‘27 साल यूपी बेहाल’ के नारे से पुरसाहाल की तरफ लपकने वाली कांग्रेस के चरित्र के बारे में लोग पहले से जानते हैं.

ऐसे दो चरित्रों का मेल-मिलाप न उत्तर प्रदेश के लोगों को समझ में आया और न सपा के निवर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के नेता-कार्यकर्ता भी इस मौकापरस्त गठबंधन की गुत्थियां सुलझाने में लगे हैं. यह अवसरवाद दोनों पार्टियों के लिए जरूरी था. समाजवादी पार्टी अपने गहरे आंतरिक कलह के कारण जनाधार-नुकसान से आक्रांत थी तो कांग्रेस गहरे जमीनी-विलोप से.

ऐसी स्थिति में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी से जुड़ना या समाजवादी पार्टी का कांग्रेस से जुड़ना दोनों के लिए कितना फायदेमंद साबित होगा, यह कुछ दिनों में पता चल जाएगा. साथ ही यह चुनाव मतदाताओं की वैचारिक-परिपक्वता के बारे में भी बताएगा. लखनऊ के कुछ बुद्धिजीवियों ने कहा कि ‘27 साल यूपी बेहाल’ के बाद ‘यूपी को ये साथ पसंद है’, यह नागरिक भावनाओं के साथ खुला मजाक है. राजनीतिक पार्टियों ने मतदाताओं को निरा बेवकूफ ही समझ रखा है. बुद्धिजीवियों ने कहा, ‘यूपी को ये साथ पसंद नहीं है’.

सार्वजनिक सतह पर लड़े जा रहे समाजवादी पार्टी के परिवार-युद्ध से सबसे अधिक घबराहट या चिंता मुस्लिम मतदाताओं में थी. जो मुस्लिम मतदाता भाजपा के बरक्स सपा को ही कारगर प्रतिरोधी मानता था, वही पार्टी लचर दिखने लगी. ऐसे में उसे बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का विकल्प दिखा और बड़ी तादाद में मुस्लिम मतदाताओं के बसपा की तरफ रुख कर लेने के संदेश और संकेत मिलने लगे.

बसपा ने उत्तर प्रदेश के इस विधानसभा चुनाव में सर्वाधिक मुस्लिम प्रत्याशी खड़े किए. जबकि सपा ने बसपा की तुलना में आधा. बसपा नेता मायावती एक लंबे अर्से से लगातार दलित-मुस्लिम समीकरण दुरुस्त करने के एजेंडे पर काम कर रही थीं.

इसका परिणाम यह हुआ कि समाजवादी पार्टी से मुस्लिम मतदाताओं का खिसकाव तेजी से बसपा की तरफ हुआ. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ आने से मुस्लिम मतदाताओं का बिखरना रुकेगा, ऐसे तर्क दिए जा रहे हैं. लेकिन मुस्लिम मतदाताओं से आप बात करें तो पाएंगे कि मुस्लिम मतदाता अपना मत दो दलों में बंटता हुआ देखना नहीं चाह रहा.

2012 के चुनाव में मुस्लिम मतों का 39 प्रतिशत समाजवादी पार्टी को और 18 प्रतिशत कांग्रेस को मिला था. गठबंधन के बाद दोनों दल दोनों प्रतिशत को मिला कर देख रहे हैं और फूले नहीं समा रहे हैं. लेकिन सपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां पिछले चुनाव में बसपा को मिले 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट का प्रसंग याद नहीं कर रहीं. यह प्रतिशत और कितना बढ़ा है, यह तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता चलेगा.

लेकिन बसपा का मुस्लिम मत जिस तरह लगातार बढ़ा है, उससे कुछ राजनीतिक संकेत तो मिल ही रहे हैं. 2002 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 9 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिला था. यह 2007 के चुनाव में बढ़ कर 17 प्रतिशत और 2012 के चुनाव में 20 प्रतिशत पहुंच गया. इसके साथ ही बसपा को मिला 26 प्रतिशत दलित वोट भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए. सपा-कांग्रेस गठबंधन भले ही ध्यान न दे, लेकिन उसके लिए यही चिंता का विषय है और यही चुनौती भी है.

कांग्रेस का भी मुस्लिम वोट प्रतिशत बढ़ा है. लेकिन उसकी राजनीतिक जमीन क्रमशः पोपली होती चली गई. इसका उसे अहसास भी है, इसीलिए उसने सपा से दोस्ती का हाथ भी बढ़ाया. कांग्रेस भाजपा को ही अपना मूल शत्रु मानती है. साथ ही वह यह भी अच्छी तरह समझती है कि अब वह अकेले दम पर भाजपा को नहीं हरा सकती.

उसने बिहार में नीतीश-लालू के साथ गठबंधन बनाया और उसमें उसे सफलता हासिल हुई. उसी फार्मूले पर चलते हुए कांग्रेस ने यूपी में अखिलेश का साथ पकड़ा. अब कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत करती हुई 2019 के लोकसभा चुनाव में उतरना चाहती है. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा के अस्तित्व पर अन्य कई दलों से बातचीत कर रही है. इसमें बसपा से उसे परहेज नहीं है.

यूपी में गठबंधन की घोषणा के बाद पहली साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी राहुल गांधी ने कहा कि बसपा नेता मायावती के प्रति उनके मन में अत्यंत सम्मान है. ऐसा राहुल गांधी ने ‘ऐवें’ नहीं बोल दिया था. राहुल की इस बोली पर अखिलेश असहज भी हुए थे. 2019 को लक्ष्य पर रखते हुए ही तृणमूल कांग्रेस की नेता व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उत्तर प्रदेश में अपना प्रत्याशी नहीं उतारा और जद (यू) नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रत्याशी उतार कर भी उसे वापस ले लिया और उत्तर प्रदेश का मैदान छोड़ दिया.

सपा-कांग्रेस गठबंधन के बृहत्तर हित जो भी हों, लेकिन जमीनी स्तर पर कई कोणीय चुनौतियां दोनों पार्टियों को झेलनी पड़ रही हैं. खास तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में दोनों दलों के नेता एक साथ और एक मंच पर आने से हिचक रहे हैं. एक दूसरे के खिलाफ ही वे राजनीति करते रहे, अब अचानक शीर्ष नेताओं के फैसले से उनकी राजनीति मुश्किल में आ खड़ी हुई है.

कमोबेश पूरे उत्तर प्रदेश में ऐसी ही स्थिति है. 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे और तमाम साम्प्रदायिक तनाव की घटनाओं के लिए कांग्रेसी नेता सपा सरकार को ही दोषी ठहराते आए हैं. इसे लेकर कांग्रेस नेताओं की सपा नेताओं से कई बार झड़पें तक हो चुकी हैं. पूरे प्रदेश में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की एक बुकलेट पर चर्चा हो रही है, जिसमें समाजवादी सरकार के कामकाज का पोस्टमॉर्टम किया हुआ है.

आप याद करें, किसान यात्रा के दौरान प्रदेशभर में बुकलेट बांटी गई थी, जिसमें सपा सरकार के कार्यकाल के तमाम निर्णयों और घटनाओं की धज्जियां उड़ाई गई थीं. अब गठबंधन की घोषणा के बाद लोग उसी बुकलेट के जरिए कांग्रेस-सपा के ताजा प्रस्फुटित प्रेम की धज्जियां उड़ा रहे हैं.

एक बसपा नेता ने कहा कि इस गठबंधन को मुस्लिम इसलिए भी वोट नहीं देगा, क्योंकि मुसलमान बाबरी विध्वंस के लिए कांग्रेस को भी उतना ही दोषी मानते हैं. समाजवादी पार्टी भी प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं को अबतक यही पाठ पढ़ाती चली आ रही है. राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन का बुंदेलखंड के कुछ विधानसभा क्षेत्रों में फायदा मिल सकता है.

लेकिन व्यापक दायरे में वे इस गठबंधन को समाजवादी पार्टी के लिए घाटे का सौदा ही मानते हैं. समीक्षकों का कहना है कि अगर समाजवादी पार्टी ने समझदारी से काम नहीं लिया तो कांग्रेस उसका सहारा लेकर काफी अंदर तक पैठ बना सकती है. पहले कलह और अब गठबंधन से समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल भी उतना ऊंचा नहीं रहा है.

यूपी में कुपोषण के खिला़फ कांग्रेस ने पोस्टर-युद्ध चलाया था

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने जिस कांग्रेस पार्टी के साथ दोस्ती की है, उसी कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में फैले कुपोषण के मसले पर अखिलेश सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी. यूपी में कुपोषण के खिलाफ बाकायदा कांग्रेस का पोस्टर-युद्ध चल रहा था. सपा-कांग्रेस गठबंधन की जमीन कितनी खोखली है, इन बातों से समझा जा सकता है. कांग्रेस के पोस्टरों के जरिए 27 साल यूपी बेहाल के तहत यह कहा गया था कि उत्तर प्रदेश में हर दिन साढ़े छह सौ बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं.

उत्तर प्रदेश में कुपोषण एक खौफनाक सच है. आधिकारिक रिपोर्ट भी यही कहती है कि उत्तर प्रदेश में हर रोज 650 बच्चों की मौत कुपोषण के कारण हो रही है. 70 प्रतिशत बच्चों का जन्म सरकारी अस्पतालों में होता है. इसके बावजूद न तो ब्रेस्ट फीडिंग को बढ़ावा मिल पा रहा है न माओं की सेहत ऐसी है कि वे अपने नवजात को स्वस्थ दुग्धपान करा सकें. 50 फीसदी से अधिक माताएं खून की कमी से जूझ रही हैं.

ये आंकड़े जिला अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से जुटाए गए हैं. सरकारी आंकड़ों से अलग सामाजिक संगठनों के सर्वे बताते हैं कि तीन लाख से भी ज्यादा बच्चों की मौत हर साल कुपोषण से हो जाती है. प्रदेश में 12 लाख 60 हजार बच्चे अति कुपोषित हैं. आंकड़े बताते हैं कि हर 7वां बच्चा निर्धारित वजन से कम (अंडरवेट) है. आधे से ज्यादा बच्चों की लंबाई औसत से कम है.

पांच साल की उम्र के चार में से तीन बच्चे खून की कमी (एनीमिक) के शिकार हैं. छह में से पांच माताएं बच्चों को छह महीने तक दूध पिलाने लायक नहीं हैं. इसके कारण बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पा रहा है. महिलाएं खुद रक्त-अल्पता (एनीमिया) का शिकार हैं. प्रसव के लिए सरकारी संस्थाओं में आने वाली महिलाओं में 50 प्रतिशत से अधिक महिलाओं में खून की कमी पाई जाती है. ऐसी माताओं के बच्चों में बुद्धि-विकास भी कम होता है. करीब 35 लाख बच्चे पौष्टिक आहार नहीं मिलने के कारण सूखा रोग से पीड़ित हैं.

उत्तर प्रदेश में कुपोषण का मसला सूचना के अधिकार के तहत भी आधिकारिक तौर पर उजागर हो चुका है. कुछ ही अर्सा पहले उर्वशी शर्मा को सूचना के अधिकार के तहत जो जानकारी मिली उससे साबित हुआ कि उत्तर प्रदेश को कुपोषण मुक्त बनाने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा किए जा रहे दावे खोखले हैं. प्रदेश में राज्य पोषण मिशन के तहत जरूरतमंद लोगों तक पौष्टिक पदार्थ पहुंचाने के अखिलेश सरकार के दावे हकीकत से बिल्कुल विपरीत पाए गए थे.

सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा ने आरटीआई के तहत यह जानने की कोशिश की थी कि प्रदेश में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या कितनी है. प्रदेश के बाल विकास पुष्टाहार विभाग ने जो जवाब दिया है वह चौंकाने वाला था. सरकारी विभाग ने बताया कि मायावती का कार्यकाल रहा हो या अखिलेश सरकार का, प्रदेश सरकार ने कुपोषण के संबंध में कोई भी अध्ययन या सर्वेक्षण नहीं कराया, जिससे यह पता चल सके कि प्रदेश में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या कितनी है.

उत्तर प्रदेश के बाल विकास सेवा एवं पुष्टाहार निदेशालय के पास कुपोषण की समस्या से ग्रसित पुरुषों, महिलाओं, किन्नरों, बालकों, बालिकाओं और शिशुओं की संख्या की कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं थी. सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर किस आधार पर अखिलेश सरकार ने राज्य पोषण मिशन के शुभारंभ पर जरूरतमंद लोगों तक पौष्टिक पदार्थ पहुंचाने का दावा किया था?

जब आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं, तो इस मिशन से प्रदेश की एक लाख महिलाओं को जोड़े जाने का दावा कैसे किया गया? उल्लेखनीय है कि अखिलेश यादव ने भारी सरकारी तामझाम के साथ बाल विकास पुष्टाहार मंत्री की मौजूदगी में प्रदेश में कुपोषण के खिलाफ राज्य पोषण मिशन का शुभारंभ किया था. तब अखिलेश ने कहा था कि राज्य पोषण मिशन के तहत उनका लक्ष्य जरूरतमंद लोगों तक पौष्टिक पदार्थ पहुंचाना और इस मिशन से सूबे की एक लाख महिलाओं को जोड़ना है.

इस तरह के दावे और उस पर उठ रहे तमाम सवाल पूरी तरह अनुत्तरित हैं. कांग्रेस भी इन सवालों का जवाब मांग रही थी, लेकिन चुनाव आते ही कांग्रेस उन जवाबों की तलाश छोड़, अखिलेश के साथ हाथ मिला कर सत्ता जुगाड़ में मशगूल हो गई. जनता से असलियत में जुड़े मुद्दे इस सियासी चकाचौंध में गुल हो गए.

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