matayuवर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से तौबा कर ली है, जिसके सहारे 2007 में वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं. लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद समीक्षा करने बैठीं मायावती को यह समझते देर नहीं लगी कि उन्हें नई रणनीति के साथ अपनी जमीन पुख्ता करनी होगी. बात समझ में आते ही मायावती की सोच कोऑडिनेटर चयन में दिख भी गई. क़रीब दस वर्षों के बाद सोशल इंजीनियरिंग को तिलांजलि देकर बसपा प्रमुख ने दलितों-पिछड़ों और थोड़ा-बहुत मुसलमानों को विशेष तौर पर पार्टी में आगे बढ़ाने का फैसला लिया है. बदली रणनीति के तहत मायावती ने लखनऊ-फैजाबाद व इलाहाबाद जोन अपने पुराने विश्‍वासपात्र आर के चौधरी, पूर्व मंत्री अखिलेश अंबेडकर एवं आर एस कुशवाहा, कानपुर-झांसी व चित्रकूट जोन एमएलसी तिलक चंद अहिरवार, कमलेश भारती एवं एमएलसी नौशाद अली, वाराणसी-आजमगढ़ व मिर्जापुर जोन एमएलसी विजय प्रताप, डॉ. रामकुमार कुरील एवं वीरेंद्र सिंह चौहान को कोऑडिनेटर बनाकर सौंपे हैं.
इसी तरह गोरखपुर-देवीपाटन व बस्ती जोन राम सूरत चौधरी, सुधीर कुमार भारती, राजाराम गौतम, लालजी वर्मा एवं एमएलसी अतहर खां, अलीगढ़-आगरा जोन एमएलसी सूरज सिंह, सुनील कुमार चित्तौड़, एमएलसी प्रताप सिंह, रणधीर कश्यप एवं संघ रतन सेठी, मेरठ-बरेली-सहारनपुर व मुरादाबाद जोन राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी, पूर्व कोऑडिनेटर अतर सिंह राव, रणधीर कश्यप, मुकेश जाटव, सुरेश कश्यप, नरेश गौतम, रामनिवास पाल, गिरीश चंद्र जाटव, डॉ. संजीव लाल, चंद्रपाल सैनी, राममूर्ति, पी पी भारती, मुन्नालाल कश्यप एवं राजकुमार पाल को सौंपे हैं. बदलाव का असर नवनियुक्त जिलाध्यक्षों की तैनाती में भी दिखा. जिलाध्यक्ष के कई पदों पर दलित बिरादरी के नेताओं को बैठाया गया है. नए जिलाध्यक्ष के तौर पर मऊ की ज़िम्मेदारी राज विजय, आजमगढ़ की सुभाष गौतम, ललितपुर की जानकी प्रसाद, गाजीपुर की मनोज कुमार विद्रोही, श्रावस्ती की सहजराम गौतम, बलरामपुर की हरिराम बौद्ध, मथुरा की दारा सिंह, हमीरपुर की वीरेंद्र वर्मा, जालौन की राधाचरण बौद्ध, बरेली की ब्रह्म स्वरूप सागर और अमरोहा की ज़िम्मेदारी सोमपाल सिंह राठैार के कंधों पर डाली गई है.
बसपा प्रमुख के लिए लोकसभा के नतीजे हताशा पैदा करने वाले रहे. इसी के बाद पार्टी में बदलाव की बयार चल पड़ी. मायावती ने बसपा के ब्राह्मण चेहरे सतीश मिश्र को किनारे कर दिया है और एक बार फिर वह दलित संग पिछड़ों के एजेंडे पर वापसी करती नज़र आ रही हैं. विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद मायावती ने बसपा संगठन का जो नया ढांचा तैयार किया है, उसमें ब्राह्मणों एवं मुसलमानों की जगह दलितों में ग़ैर जाटव और पिछड़ों में अति पिछड़ों पर अधिक फोकस किया गया है. लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न जीत पाने के बाद मायावती ने पहली प्रतिक्रिया में जब कहा था कि
बार-बार उनके समझाने के बावजूद सवर्ण, मुस्लिम एवं पिछड़ा समाज गुमराह हो गया, जिससे पार्टी एक भी सीट नहीं जीत सकी, तभी से माना जा रहा था कि बसपा में बड़ा उलटफेर देखने को मिलेगा. सोशल इंजीनियरिंग में जिस फॉर्मूले के गुणा- भाग पर उनकी उम्मीदें टिकी थीं, वह तार-तार हो गया. भाजपा के रणनीतिकारों ने बसपा के सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले की हवा निकाल दी. कहा यह भी गया कि मायावती की सोशल इंजीनियरिंग के कारण दलित भी बसपा में स्वयं को महफूज नहीं समझ रहा था. खासकर, मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जब मायावती पीड़ित दलितों का हाल-चाल लेने नहीं गईं, तो दलित मतदाता उनसे काफी नाराज़ हो गए. उनके दिमाग में यह बात घर कर गई कि मायावती मुस्लिम मतदाताओं को नाराज़ नहीं करना चाहती थीं, इसीलिए उन्होंने दंगा पीड़ित दलितों से दूरी बनाए रखी. मायावती अब ऐसी गलतफहमियां आगे बढ़ाने के लिए तैयार नहीं हैं.
हार के कारणों की समीक्षा के दौरान मायावती का रुख कई मामलों में चौंकाने वाला रहा. बसपा संगठन एवं पदाधिकारी बनाने से लेकर विधानसभा-लोकसभा का टिकट दिलाने तक में जिन जोन कोआर्डिनेटरों की अहम भूमिका होती है, उस टीम में उन्होंने एक भी ब्राह्मण चेहरा शामिल नहीं किया. पार्टी के मुस्लिम चेहरे नसीमुद्दीन सिद्दीकी, एमएलसी अतहर खां एवं नौशाद अली ही अपनी जगह सुरक्षित रख पाए. निवर्तमान कोऑर्डिनेटर मुनकाद अली तक जगह नहीं बना पाए. इसके विपरीत ग़ैर जाटव एवं अति पिछड़ा वर्ग से कई नए लोग जोड़े गए. क़रीब एक दर्जन से ज़्यादा जिलों में नए जिलाध्यक्ष बनाए गए हैं, जिसमें ग़ैर जाटव एवं कुछ पिछड़े चेहरों को तवज्जो मिली है. पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा पार्टी में अति पिछड़ा वर्ग के मुख्य चेहरे माने जाते थे. एनआरएचएम घोटाले में घिरने की वजह से उनके बसपा से बाहर होने के बाद इस वर्ग पर फोकस कम हो गया था, लेकिन अब पार्टी इस ओर लौटती नज़र आ रही है.
इसके अलावा बसपा को लेकर दलितों के बीच जाटव एवं ग़ैर जाटव की खाई गहरा चुकी है. नए सांगठनिक ढांचे में ग़ैर जाटव को भी महत्व देकर मायावती इस खाई को पाटने की कोशिश कर रही हैं, ताकि उनके ऊपर दलितों में एक वर्ग विशेष को महत्व देने का आरोप न लगे. जानकार कहते हैं कि मायावती के पास कोई रास्ता नहीं बचा था, क्योंकि इधर कुछ वर्षों में दलितों में यह बात घर कर गई थी कि बसपा में दलित वोटों की पूंजी सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर सवर्ण एवं मुस्लिम प्रत्याशियों को ट्रांसफर करने का काम हो रहा है. बसपा में कई ऐसे चेहरे सामने आ गए हैं, जिनका दलितों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है. कुछ दलित चिंतक बसपा में आए बदलाव पर उत्साहित होकर कहते हैं कि मायावती पार्टी को पुनर्गठित करते हुए ग़ैर जाटव एवं अति पिछड़ों को जोड़ने की जो कोशिश कर रही हैं, वह बसपा के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन यह काम सर्व समाज को जोड़े बगैर पूरा नहीं हो सकता, यह हकीकत भी मायावती को भूलनी नहीं चाहिए, जिस फॉर्मूले पर वह लौटती नज़र आ रही हैं, उस पर बसपा पहले भी काम कर चुकी है, पर कभी सत्ता के निकट नहीं पहुंच सकी. ऐसे में दलितों के हितों के साथ-साथ संगठन में सोशल इंजीनियरिंग भी चलती रहनी चाहिए.

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