ठहरे हुए तालाब में हलचल है। किसी ने बड़ा सा पत्थर दे मारा है। या यों कहिए कि जब दिन बुरे आते हैं तो घिर कर आते हैं। चौतरफा आते हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बोबड़े गये, रमन्ना आये तो जैसे ठहरे हुए तालाब में हलचल सी हुई। फैजान मुस्तफा ने बता दिया था कि रमन्ना या रमना बड़े काम के हैं। एकदम शांत। पर काम में बेहद ईमानदार। कोरोना से जुड़े मसलों को जस्टिस चंद्रचूड़ की बेंच को सौंपना कुछ मायने रखता है। ठीक वैसे ही जैसे बोबड़े द्वारा सब जरूरी मामलों को अरुण मिश्रा की बेंच को सौंप देना। लेकिन जब कलई खुलती है तो सुई भर भी कुछ रह नहीं जाता। अगर आज यह सरकार अरुण मिश्रा पर मेहरबान न होती, उन्हें उपकृत न किया होता तो साधारण नागरिक जान ही न पाता कि मिश्रा कितने बड़े बड़े दागों को अपने चोगे में छिपाए बैठे हैं।

प्रहसन का प्रसंग देखिए कि एक तरफ मोदी सरकार अरुण मिश्रा जैसे कुख्यात जज को मानवाधिकार का सोंटा सौंप रही है वहीं सुप्रीम कोर्ट की नयी व्यवस्था सरकार की नाक में दम किये बैठी है। जस्टिस चंद्रचूड़ की अदालत सवाल पर सवाल दाग रही है। तालाब में पत्थर की हलचल ने देश का ध्यान अचानक सुप्रीम कोर्ट की ओर दिलाया है। रिटायर जज अरुण मिश्रा के कुकर्मों की लंबी फेहरिस्त है। जिसे ‘सत्य हिंदी’ के शीतल पी सिंह ने बखूबी पेश किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत वीडियो को जब आप देखें और सुनें तो यह अहसास करेंगे कि कितना अनर्थ हुआ है। सारे महत्वपूर्ण फैसले। सब पर बेगुनाही की मोहर।

गुजरात के गृहमंत्री हरेन पंड्या की मौत से लेकर सहारा-बिड़ला डायरी, जस्टिस लोया केस से लेकर अमित शाह के बेटे जय शाह की संपत्ति के मामले तक अनेक ऐसे मामले जिन्हें मिश्रा ने चुल्लू भर दूध में टनों लीटर पानी की मार्फत घोल कर फेंक दिया। शीतल पी सिंह का वीडियो देखते हुए तो ऐसा जान पड़ता है जैसे अरुण मिश्रा नाम का कोई ऐसा डस्टबिन है जिसमें जिस केस को चाहे फेंकते चलिए। सत्ता और न्यायपालिका के ‘नेक्सस’ का इसे घनघोर पाप कहिए। लेकिन यह पाप भी बड़े फूहड़पन से हुआ है। कांग्रेस के शासन में भी ऐसे पाप खूब हुए लेकिन इतनी फूहड़ता नहीं दिखी कभी। शीतल जी का वीडियो देखिए और सुनिए। हैरान रह जाएंगे। संग्रहणीय है। दुख है कि किसी के पापों और कुकर्मों के काले चिठ्ठे को आप संग्रह करें।

मुस्कुराने के दिन इसलिए भी हैं कि जस्टिस चंद्रचूड़ की बेंच ने मोदी सरकार को नीचे से ऊपर तक हिला कर रख दिया है। राजनीति के विशेषज्ञ सही कहते थे बंगाल के चुनाव नतीजे बहुत कुछ तय करेंगे। यह बात स्वयं मोदी जी और उनके करीबी भी समझते थे।पहली बार किसान आंदोलन ने मोदी सरकार का घमंड तोड़ने का काम किया। बंगाल चुनाव इस घमंड को फिर से पटरी पर लाने की साधना थी। जो चकनाचूर हुई। अब हाल कुछ ऐसा है जैसा ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’। अगला दांव यूपी पर है। लेकिन मोदी जी की हर पैंतरेबाज़ी अब फेल हो रही है। ऐसा लगता है अब झटकों का दौर है। किसी के रोने का, किसी के मुस्कुराने का दौर।

जो राजनीतिक संकेत दिखाई दे रहे हैं उनसे एक उम्मीद बन रही है कि जकड़न टूटेगी। कितनों पर देशद्रोह, कितनों पर UAPA, कितने प्रबुद्ध नाहक जेलों में, मुसलमानों में दहशत, सत्ता प्रतिष्ठानों की बर्बादी, संस्थाओं के शीर्ष पर बौढ़म किस्म के लोगों द्वारा संस्थाओं को हांकने या जकड़ने की कोशिशें और सबसे बड़ी बात कि अवैज्ञानिक सोच से देश को आदिम युग की ओर ले जाने की कोशिश। जकड़न टूटी, जिसे अंततः टूटना ही है तो देश एक खौफनाक मंजर से मुक्त होगा। भला हो किसानों और कोरोना का। किसानों ने घमंड तोड़ा तो कोरोना ने हवाईयां उड़ा दीं। मुस्कुराइए और देखिए कि इमारतें कैसे दरकती हैं।

सोशल मीडिया ने इन सात सालों में कमाल का काम किया है। वायर हो, सत्य हिंदी हो, लाउड इंडिया टीवी हो, न्यूज़ क्लिक हो, क्विंट हो, न्यूजलाण्ड्री हो, जी-फाईल्स हो या स्वतंत्र विश्लेषण अपूर्वानंद, पुण्य प्रसून वाजपेयी, विनोद दुआ, जैसों का हो, कमाल है। लेकिन सबसे ज्यादा कमाल तो एनडीटीवी और रवीश कुमार के प्राइम टाइम का है। रवीश ने जो समां बांधा वह तो गजब इसलिए था कि दिल्ली के आटो वालों तक ने आटो के पीछे रवीश कुमार की फोटो, प्राइम टाइम और एनडीटीवी को चस्पां कर उसे और धार दे दी।

इधर बीते रविवार को लाउड इंडिया टीवी पर अभय दुबे हर बार की तरह संतोष भारतीय के साथ उपस्थित थे। ‘देश का मूड’ नाम से विषय के अंतर्गत उन्होंने ‘सी-वोटर’ के सर्वे का विश्लेषण किया। कोरोना की भिन्न भिन्न लहरों के बीच उन्होंने कहा कि जब जनता की लहर आएगी तब कुछ नहीं बचेगा। उन्होंने एक और बात की ओर इशारा किया कि मोदी और राहुल की तुलना वाला प्रश्न बेमानी है। प्रश्न यह होना चाहिए कि आप मोदी सरकार का विकल्प चाहते हैं या इस सरकार को फिर मौका देना चाहते हैं। इसका जवाब बहुत सकारात्मक आएगा। संतोष भारतीय के शो भी फिर से शुरू हो गये हैं – ‘मुस्कुराइए कि आप हिंदुस्तान में हैं … ‘ देखा कीजिए। मजेदार और कभी कभी ज्ञानपरक भी होते हैं।

आरफा खानम शेरवानी ने जहां डा. फहीम युनुस से कोरोना के संबंध में उपयोगी बातचीत की वहीं लोगों को उनका ‘2024 में बाय बाय मोदी’ ज्यादा पसंद नहीं आया। मैंने भी महसूस किया उसमें अतिरेक था। और यह कहना कि आप बेशक मेरी बात न मानें … यह तो पत्रकारों की भाषा ही नहीं। पत्रकारों को लोग सुनते ही इसलिए हैं कि उनकी बात में दम होता है, वह विश्वनीय होती है। ऐसा आरफा दो एक बार पहले भी बोल चुकी हैं। नहीं बोलना चाहिए। टपोरियों की भाषा हो जाती है – ‘मेरी नहीं मान रहा तो उसकी मान ले’। उम्मीद है आरफा स्वीकार करेंगी।

भाषा सिंह ने लक्ष्य द्वीप के सासंद मौ. फैजल से अच्छी बात की। देश को बरबाद करके अब एक गोबर किस्म के आदमी को लक्ष्य द्वीप भेजा गया है। ‘सत्य हिंदी’ वालों ने अब पैनल में नये लोगों को लाना शुरू किया है। स्वागत योग्य है। पर आशुतोष के ‘नमस्कार’ का क्या करें जो वे भीतर की सारी ताकत के साथ पिचकारी मार कर (लगभग चिल्ला कर) बोलते हैं। सबकी शिकायत आशुतोष से पर आशुतोष की शिकायत किससे। यह हमने पहले भी कई बार लिखा है। एक बार आशुतोष धीरे से नमस्कार करके तो देखें। परदा फटने से रह जाएगा। तो मुस्कुराइए कि मोदी सरकार का सातवां साल गम्भीर आपदाओं से घिरा रहा। चिपकी हुई जोंक हटती है तो बहुत कुछ बरबाद करके हटती है। मुस्कुराने का सबब यही है कि उसकी सफाई धुलाई हम फिर से करें। पहले यह आफत टले तो !!

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