2010 में 2जी मामले पर जेपीसी के गठन के लिए विपक्ष ने क़रीब-क़रीब पूरे शीतकालीन सत्र के दौरान काम नहीं होने दिया. यह सही है कि विपक्ष के दबाव का ही नतीजा था कि 2जी मामले में आगे कुछ कार्रवाई भी हुई, जीपीसी भी बनी, लेकिन यह पूरा सत्र, जिसमें जनता से जुड़े कई और विधेयकों पर चर्चा हो सकती थी, विधेयक पास हो सकते थे, विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ गया. 15वीं लोकसभा को इसलिए भी याद रखा जाएगा कि ऐसे कई अहम मौ़के आए, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष जन भावनाओं के विपरीत जाकर एक साथ खड़ा हो गया.
संसदीय लोकतंत्र में नेता विपक्ष को पीएम इन वेटिंग कहा जाता है यानी विपक्ष की भूमिका को भी सरकार से कमतर नहीं माना गया है. सरकार के कामों में विपक्ष से रचनात्मक सहयोग एवं समर्थन की अपेक्षा की जाती है. संसद सुचारू रूप से काम करे, इसकी ज़िम्मेदारी जितनी सरकार की होती है, उतनी ही विपक्ष की भी. सही मायनों में संसद के भीतर जनता की आवाज़ उठाने का काम भी विपक्ष का ही होता है. इस हिसाब से अगर देखें, तो 15वीं लोकसभा में विपक्ष जनता की आवाज़ और आकांक्षा को संसद के भीतर उठाने में नाकाम रहा. लोकपाल का मुद्दा हो या महंगाई का, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की भूमिका न तो रचनात्मक रही और न ही सकारात्मक विरोध वाली. 2जी और कोल ब्लॉक आवंटन मसले पर शोर-शराबे और सदन न चलने देने के अलावा भाजपा ने कुछ भी नहीं किया.
2010 में 2जी मामले पर जेपीसी के गठन के लिए विपक्ष ने क़रीब-क़रीब पूरे शीतकालीन सत्र के दौरान काम नहीं होने दिया. यह सही है कि विपक्ष के दबाव का ही नतीजा था कि 2जी मामले में आगे कुछ कार्रवाई भी हुई, जीपीसी भी बनी, लेकिन यह पूरा सत्र, जिसमें जनता से जुड़े कई और विधेयकों पर चर्चा हो सकती थी, विधेयक पास हो सकते थे, विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ गया. 15वीं लोकसभा को इसलिए भी याद रखा जाएगा कि ऐसे कई अहम मौ़के आए, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष जन भावनाओं के विपरीत जाकर एक साथ खड़ा हो गया. 2011 में लोकपाल के मसले पर सदन ने सेंस ऑफ हाउस जारी करके अन्ना हजारे का अनशन तुड़वाया, लेकिन जब उस सेंस ऑफ हाउस को लागू करने की बारी आई, तब भाजपा समेत तमाम विपक्ष सरकार के पाले में खड़ा नज़र आया. 2012 में कोल ब्लॉक आवंटन के मुद्दे पर विपक्ष ने एक बार फिर प्रधानमंत्री के इस्ती़फे की मांग करते हुए मॉनसून सत्र में कोई काम नहीं होने दिया.
इसी तरह 2014 में संसद के अंतिम सत्र में तेलंगाना बिल पास करने के लिए सरकार ने जो हथकंडे अपनाए, उनका विरोध विपक्ष के नाते भाजपा नहीं कर पाई, बल्कि उसे सरकार से अधिक चिंता इस बिल को पास कराने की थी, जबकि इसके लिए असंसदीय रास्ता भी अपनाया गया. 16 सांसदों को निलंबित करने के बाद भी जब सदन की कार्यवाही ठीक से नहीं चल पाई, तो बंद दरवाजे के भीतर, टीवी प्रसारण बंद करके तेलंगाना बिल पास किया गया. सवाल यह है कि ऐसे मौ़के पर एक सशक्त विपक्ष को क्या करना चाहिए था? ऐसे मुद्दों पर सरकार का सहयोग किया जाना चाहिए था या विरोध? भाजपा ने बजाय इस असंसदीय एवं अलोकतांत्रिक तरीके का विरोध करने के, सरकार के साथ हाथ मिला लिया. वाड्रा मामले पर जब भाजपा ने सरकार को घेरने की कोशिश की, तो खुद उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लग गए. ऐसे में उसे अपने क़दम पीछे खींचने पड़े.
भाजपा के अलावा, वामपंथी पार्टियां भी एक सशक्त विपक्ष का रोल निभाने में नाकामयाब रहीं. महंगाई और नक्सलवाद जैसे मुद्दों पर शायद ही कभी ऐसा मौक़ा आया, जब वामपंथियों ने संसद के भीतर या बाहर सड़क पर कभी कड़ा रुख दिखाया हो. इसके कुछ सदस्यों (गुरुदास दासगुप्ता) को छोड़कर किसी ने भी सदन के भीतर किसी भी मसले पर जोरदार आवाज़ नहीं उठाई. गुरुदास दासगुप्ता ने ज़रूर कामगार यूनियन और गैस प्राइसिंग पर संसद के भीतर कई बार जोरदार बहस की, लेकिन विपक्ष एवं खुद अपनी पार्टी की ओर से मजबूत समर्थन न मिलने के कारण वह कुछ खास नहीं कर पाए. 2009 के शीतकालीन सत्र में सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी ने लोकसभा एवं राजग के हिस्से के रूप में जद (यू) सांसद अली अनवर अंसारी ने राज्यसभा के भीतर रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट (अल्पसंख्यक आरक्षण से जुड़ी रिपोर्ट, जिसे सबसे पहले चौथी दुनिया ने प्रकाशित कर सार्वजनिक किया था) को पेश करने के लिए ज़रूर आवाज़ उठाई. लोकसभा में मुलायम सिंह के नेतृत्व में सपा सांसदों ने इस मुद्दे को उठाया, तब कहीं जाकर सालों से पड़ी यह रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी गयी. लेकिन, इसके बाद इस रिपोर्ट का क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम. खुद समाजवादी पार्टी ने भी कभी इस रिपोर्ट पर बहस कराने के लिए संसद के भीतर या बाहर कुछ नहीं किया.
बहरहाल, संसद के एक सत्र के आयोजन में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. इसके एक-एक मिनट की क़ीमत लाखों रुपये होती है. ऐसे में अगर विपक्ष सदन की कार्यवाही न चलने दे, सदन की कार्यवाही बाधित करे, सदन से वाकआउट करे, तो आख़िर नुकसान किसका होता है? जाहिर है, पैसा जनता का बर्बाद होता है. और अगर विपक्ष का अर्थ यही सब रहा, तो अगले कुछ सालों में इस देश का विपक्ष खुद इस देश की जनता होगी.
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