सात फेरे, इंद्रधनुष के सात रंग, प्रेम विवाह का सातवां साल, सूरज का सातवां घोड़ा। हमारे यहां सात का अंक उसी तरह शुभ अशुभ है जैसे तीन का शुभ भी है और अशुभ भी। कहते हैं प्रेम विवाह का सातवां साल चैन से सही सलामत निकल जाए तो बड़ा सुकून मिलता है और विवाह की सफलता की गारंटी मिल जाती है। कोई भी भारतीय इस बात की सौफीसदी गारंटी नहीं दे सकता कि वह कहां अंधविश्वासी है और कहां वैज्ञानिक चेतना से संचालित। इसलिए अपने अपने हिसाब से तीन और सात के शुभ अशुभ में लगभग सभी फंसते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में मोदी सरकार के इन सालों को देखें तो यह सातवां साल बड़ा खतरनाक दिखता है। सारे गुजरातियों को भी लगता होगा और जसोदाबेन को और मैया को भी। 2014 की जीत से बड़ी जीत 2019 की थी। लेकिन कौन जानता था कि सातवें साल में अचानक से कोरोना की दूसरी लहर कहर बन कर आएगी।

यह ठीक सातवां साल है और मोदी के लिए विपत्तियों का। इस सातवें साल में मोदी की एक के बाद एक कलई खुल रही है। देश में जो हाहाकार मचा है वह तो सब देख ही रहे हैं। मोदी का ग्राफ कई तरह से नीचे आ रहा है। भाषा की फूहड़ता बंगाल ले डूबी। घमंड या अहंकार प्लानिंग ले डूबा। दूरदर्शिता का अभाव पहले दिन से नजर आ रहा था। गुड गवर्नेंस की इच्छा शक्ति कभी नजर नहीं आयी। मैनेजमेंट क्या होता है इसकी कमी भी अब सरासर नजर आ रही है। जबकि कुछ साल पूर्व कच्छ के भूकंप के मैनेजमेंट को खूब भुनाया गया।

इन सात सालों में (क्षमा सहित कहना होगा) प्रधानमंत्री के स्तर से मूर्खतापूर्ण बातें भी खूब कही गयीं जैसे बादलों से राडार का छुपना आदि। यह सब कुछ हुआ। देश हंसता रहा, खुद को कोसता भी रहा, मनाता भी रहा कि यह सत्ता कब विदा हो। लेकिन मोदी की छवि न नोटबंदी की त्रासदी से कम हुई, न प्रवासी मजदूरों की तकलीफों और मौतों से। मौतें दोनों मौकों पर हुईं। लेकिन आज के समय जो मौतें हो रही हैं ये पहली तरह की मौतों से अलग हैं। यह सातवें साल में हो रहा है और भयानक तरीके से हो रहा है।

हर मौत के साथ एक संदेश है कि इस मौत को बचाया जा सकता था। इन मौतों के बीच जब मोदी बंगाल फतह करने में साम दाम दंड भेद के जतन के साथ जुटे थे तब सोनिया गांधी के वे तीन शब्द याद आये थे जो वे एक लहजे में कह गयीं थीं – ‘मौत का सौदागर’। आज जब धड़ाधड़ लाशें गिर रही हैं और मोदी को कुछ बोलते नहीं बन रहा तो सोनिया के तीन शब्द फिर से क्यों न याद आयें।

तो क्या समय मोदी की परीक्षा ले रहा है। क्या 2024 तक मोदी इतने बदनाम हो जाएंगे कि देश उन्हें दोबारा चुनने की गलती नहीं करेगा ? लोग तो ऐसा सोचने लगे हैं। कभी कभी हमें भी ऐसा जान पड़ता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। बीजेपी के लोग भले अपनी पार्टी की करतूतों से आजिज आ चुके हों लेकिन जो मंत्रीगण हैं, प्रवक्ता हैं, मलाई चाट रहे लोग हैं वे सब आज के समय को राजनैतिक युद्ध की माफिक देख रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस और राहुल को टारगेट पर लिया हुआ है और बेहूदगी की हद तक सरकार और मोदी का बचाव कर रहे हैं।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि मोदी के पक्ष में समाज का बड़ा तबका आज भी खड़ा है। इसमें कई तरह के लोग हैं। सबसे पहले आरएसएस, फिर बीजेपी के मंत्री से लेकर सदस्य तक, उसके बाद वे लोग जिनका 2013-14 में ब्रेनवाश किया गया। वे लोग जो मनमोहन सरकार से नाखुश थे और जिन्हें मोदी के रूप में उद्धारक और विकास पुरुष नजर आया और जो आज भी घर के सुकून में शानदार सड़कें चाहते हैं। राजनीतिक व्यवस्था चाहे जितनी लुंज पुंज या पंगु हो, उनका चश्मा जो है सो है। और अंत में वे जो किसी भी दल के हों या न हों लेकिन उनके मन में बचपन से मुस्लिम विरोध भरा पड़ा है।

ऐसे लोग अभी भी उस मानसिकता से टस से मस नहीं हुए हैं। इसलिए अब यह तय है जिसे लिख कर रख लिया जाए कि 2024 का चुनाव बड़ी निर्लज्जता और बेशर्मी के साथ हिंदू मुसलमान और मंदिर मस्जिद के मुद्दों पर लड़ा जाएगा और यह युद्ध समान होगा। लेकिन यदि यह सातवां साल कोई गुल खिलाना चाहता हो तो स्थितियां माकूल हैं। सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई भी बदल चुके हैं। सरकार सुप्रीम कोर्ट को भी धमकाने की भाषा बोलने लगी है। देखना है कि चीफ जस्टिस रमन्ना के नेतृत्व में सर्वोच्च अदालत कैसी भूमिका लेती है।

भूलना नहीं चाहिए कि देश और दुनिया खुली आंखों से मरते, गिरते, टूटते भारत और उसकी सरकार को देख रही है। अदालतें और अदालतों के रहनुमा भी। सातवां साल गुजरने में अभी आधे साल से ज्यादा का वक्त बाकी है। लेकिन हमें आज के शासक को देख कर हिंदुस्तान का वह शासक याद आता है जिसे एक दिन के लिए सत्ता मिली थी और उसने चमड़े के सिक्के चला दिये थे। मौतों के बीच ‘सैंट्रल विस्टा’ की जिद उसी शासक की याद दिलाती है। देखिए ये सात आठ महीने कैसे गुजरेंगे।

इस हफ्ते के कार्यक्रम कुछ धमाकेदार हैं। ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर अभय कुमार दुबे का शो। बंगाल चुनाव पर गजब का विश्लेषण था अभय जी का। यही भेद है। इसी चैनल पर जब संतोष भारतीय अशोक वानखेड़े से बात करते हैं तो यह भेद नजर आता है। अशोक भाई की बातें कमेंट्री जैसी जान पड़ती हैं जबकि अभय दुबे का विश्लेषण वजनी होता है। कमेंट्री और विश्लेषण में वैसा ही अंतर होता है जैसे जर्नलिस्ट और ‘स्टार’ जर्नलिस्ट में। अभय वाकई स्टार जर्नलिस्ट हैं। संतोष जी के बीच बीच में कई महत्वपूर्ण वीडियो आते हैं। बोस्टन से सतीश झा से संतोष जी की बातचीत हमेशा रोचक रहती है। कल विनोद अग्निहोत्री से देश के ‘क्राइसिस’ पर बातचीत भी उम्दा रही।

‘सत्य हिंदी’ में आजकल आशुतोष रोजाना ताजे मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। परसों एक कार्यक्रम था जिसमें बीजेपी के प्रवक्ता गोपाल चतुर्वेदी उसी तरह बेशर्म हो रहे थे जैसा मैंने ऊपर जिक्र किया। यहां तक कि वे कांग्रेस को ‘लानत’ भेजने लगे। ऐसा करना इनकी रणनीति है जिससे बीजेपी के प्रशंसक यथावत बने रहें या टस से मस न हों। जब सत्य हिंदी के पैनल में कुछ नये लोग आते हैं तब ताजगी लगती है। इजराइल – फिलीस्तीन विवाद पर सत्य हिंदी के कार्यक्रम बढ़िया रहे। हालांकि मुकेश कुमार ने कभी प्रभावित नहीं किया। ‘सुनिए सच’ में जब तक न्यूज़ होती हैं तब तक ठीक जहां मुकेश का विश्लेषण शुरू हुआ वहीं बोरियत। सत्य हिंदी के पैनल में आलोक जोशी एक खास जरूरत बन गये हैं।

पुण्य प्रसून वाजपेयी के इन दिनों काफी सटीक विश्लेषण हो रहे हैं। इनका प्रचार प्रसार होना चाहिए।
रवीश कुमार का दोबारा आना सुखद है। एक दिन का गैप किया तो कई लोग पूछ बैठे। समझाना पड़ा कि उन्होंने स्वयं कहा था थक जाऊंगा तो आराम करूंगा। राहत की सांस ली लोगों ने। गजब की दीवानगी है भाई। कल रवीश ने कोरोना के टीके पर लंबी बात की। सच पूछिए तो वह ऐसी थी कि हम सुनते जा रहे हैं और भूलते जा रहे हैं। हालांकि सत्य यह है कि वह सारी जानकारी महत्वपूर्ण थी।पर हमें चूंकि टीके में दिलचस्पी नहीं। न ही लगवाया है और न ही कोई योजना है बस इसीलिए। रवीश को एक पूरा एपीसोड ‘सैंट्रल विस्टा’ पर भी करना चाहिए। जनता जाने यह क्या बला है और कितनी वाहियात बला है। भाषा सिंह और नीलू व्यास के कार्यक्रम वक्त की सटीक आवाज जैसे होते हैं।

इस बार उर्मिलेश जी ने ‘आज की बात’ में कुछ अलग हट कर मुद्दे उठाए थे। इसलिए पसंद आया। सूचना मिली कि आरफा खानम शेरवानी और परिवार कोविड से जूझ रहा है। शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो, ऐसी कामना है।
अभी तो ऐसे सभी विरोध के स्वरों की बुलंदी का समय है। यह सरकार जो जोंक की भांति चिपक गयी है। इस सातवें साल में इसकी जड़ों में जितना मठ्ठा डले उतना अच्छा। हम तो चाहेंगे कि 2024 की नौबत ही न आये। पहले ही यह सरकार झड़ जाए तो देश झूठे दर्प और आतंक से बच जाए। देखते हैं क्या होता है। बस गावों की समूची जनता को देश, मोदी और इस सरकार की असलियत समझ में आए तो फिर क्या चिंता।

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