amit-shahसंसद के मानसून सत्र की शुरुआत से पहले सरकार अरुणाचल प्रदेश पर आये अदालत के फैसले और फिर सदन में हुए निर्णायक शक्ति परीक्षण से बच सकती थी. क्योंकि यदि ऐसा होता तो फिर अचानक नेता बदलने की एक शानदार चाल कांग्रेस कैसे चल पाती? क्या भाजपा में किसी को पहले से इसका एहसास नहीं था?

लेकिन कहते हैं दुर्भाग्य अकेले नहीं आता. अरुणाचल के कुछ ही दिनों के बाद, नवजोत सिंह सिद्धू ने राज्यसभा में अपने छोटे कार्यकाल को समाप्त कर दिया. यह राज्यसभा के सबसे छोटे कार्यकालों में से एक था. एक बार फिर ऐसा लगता है कि भाजपा के अंदर किसी ने इसकी अपेक्षा नहीं की थी. पार्टी अब यह सोच रही होगी कि अच्छा होता कि सिद्धू को पहले ही नज़र अंदाज़ कर दिया गया होता. लेकिन ऐसी चीज़ें राजनीति में ब्रेकिंग न्यूज की तरह होती हैं, जिन्हें मीडिया पसंद करता है क्योंकि यह टीआरपी जमा करने का बेहतरीन साधन है.

फिर सामने आई उना (गुजरात) की त्रासदी, जिसमें सरकार अदृश्य रही और उसे इस घटना का कोई पछतावा भी नहीं हुआ. मानसून सत्र को एक बार फिर व्यर्थ होने से बचाने के लिए भाजपा के पास जो थोड़ी बहुत उम्मीद थी उसे उत्तर प्रदेश भाजपा के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने बिग़ाड दिया. सरकार के लिए एकमात्र सांत्वना राहुल गांधी का संसद में सोना (या शायद योग करना) था. यदि फुटबॉल की भाषा में बात करें तो इस स्तंभ के लिखे जाने तक कांग्रेस के एक के मुकाबले में भाजपा के तीन गोल थे, लेकिन तीनों सेल्फ गोल थे.

यह स्पष्ट है कि भाजपा तेजी से चीज़ें सीख़ रही है. बहरहाल एक के बाद एक लगातार कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों द्वारा आर्टिकल 356 का इस्तेमाल कितना आसान था. लेकिन तब समय और था. अब समय बदल गया है. सरकार को उत्तराखंड और अरुणाचल की गलतियों से सबक़ सीखना चाहिए और यह समझना चाहिए कि राज्य के राजनीतिक प्रभारियों में उत्साह के साथ-साथ दिमाग़ की भी अवश्यकता है. कुटिलता बिल्कुल अलग चीज़ है. भले ही लोग आपके काम का अनुमोदन न करें, लेकिन अगर आप जीत जाते हैं तो उन्हें बुरा भी नहीं लगेगा. लेकिन वे अक्षमता का मजाक ज़रूर उड़ाएंगे. भाजपा को आर्टिकल 356 का उपयोग उस समय तक नहीं करना चाहिए जब तक उसके पास संघीय राजनीति की समझ रखने वाले लोग न आ जाएं.

जहां तक सिद्धू के इस्तीफे का सवाल है तो उनके प्रकरण से यही ज़ाहिर होता है कि भारतीय राजनीति प्रणाली बहुत हद तक भारतीय सामंतवाद की तरह है. एक स्थानीय सामंत एक राजा के साथ खड़ा रहता है, लेकिन जैसे ही कोई दूसरा राजा बेहतर पेशकश करता है, सामंत पाला बदल लेता है. अब ऐसे स्थानीय नेता हैं जिनका अपना समर्पित वोट बैंक है, वे अपनी सेवाएं उस पार्टी को ख़ुशी-ख़ुशी पेश कर देंगे जो उन सेवाओं के बदले अधिक की पेशकश करेगा. यह प्रक्रिया चुनाव के समय काफी तेज़ हो जाती है. इसमें कोई शक नहीं कि चुनाव  नज़दीक आते ही और लोग भी एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जायेंगे. सिद्धू को शायद केजरीवाल से या फिर शायद कांग्रेस से भी एक बेहतर प्रस्ताव मिला हो.

मौजूदा सरकार के दो साल के कार्यकाल के बाद यह स्पष्ट है कि सरकार अपने रिकॉर्ड के लिए प्रधानमंत्री पर अत्यधिक निर्भर है. ऐसा केवल इसलिए नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री अत्यधिक क्रियाशील व्यक्तित्व के मालिक हैं, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि भाजपा के पास आधा दर्जन से भी अधिक कैबिनेट सदस्य नहीं हैं, जिनपर बेहतर नतीजों के लिए भरोसा किया जा सकता है. पार्टी में ऐसे सांसदों की कमी है जो मंत्री पद संभाल सकें या अपनी ज़ुबान पर क़ाबू रख सकें. प्रधानमंत्री को एक सख्त स्कूल टीचर की तरह उनसे काम लेना पड़ता है.

जहां तक पार्टी का सवाल है तो वह पूरी तरह अमित शाह पर निर्भर है. लेकिन अमित शाह केवल चुनाव जीतने में माहिर हैं, पार्टी को अनुशासित करने में नहीं. चुनाव जीतने के लिए आरएसएस पैदल सेना उपलब्ध करा सकती है, लेकिन पार्टी को यह भी समझना होगा कि मायावती को अपमानित करना किसी तरह भी लाभकर नहीं है. भाजपा शायद पंजाब हार जाए और उत्तर प्रदेश जीत न सके, लेकिन सवाल यह है कि क्या वह गुजरात बचा पायेगी?

कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को लेकर समस्या हो सकती है (भले ही इसके नेता संसद में ऊंघ रहे हों), लेकिन पार्टी में कुछ बहुत ही चतुर नेता हैं जो समझते हैं कि राजनीति में चीजें कैसे काम करती हैं. ऐसा केवल अरुणाचल में ही देखने को नहीं मिला बल्कि पार्टी ने उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को आगे करके भाजपा के लिए एक चेतावनी पेश कर दी है.

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