बिहार भाजपा का चाल, चरित्र व चेहरा एक बार फिर बदल रहा है. अब तक उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व में पिछड़ों एवं अगड़ों की रस्साकसी के खेल में अगड़ों के हाथ तंग होते रहे थे, लेकिन प्रदेश भाजपा का नेतृत्व डॉ. सी.पी. ठाकुर के हाथों आते ही पार्टी की गाड़ी अगड़ों की पटरी पर सरपट दौड़ने लगी है. इससे पहले राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दबाव में ही सही, पर भाजपा का एक खेमा यह मानता रहा है कि दल के भीतर पिछड़ों को वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. महज़ खानापूर्ति के तहत अगड़ों के नेताओं को जगह दी जा रही है. संघ के मापदंड टूट रहे थे. इन बातों को लेकर प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव की चर्चा शुरू होते ही इस बात को लेकर प्रयास त़ेज हो गए थे कि इस बार जिसके हाथ में नेतृत्व जाए वह भाजपा को पिछड़ावाद के पेंच और अपने सहयोगी दल के प्रभाव से मुक्त करा सके. यही वजह थी कि डॉ. सी.पी. ठाकुर के अध्यक्ष बनते ही पार्टी का चेहरा बदला-बदला नज़र आने लगा. जहां न केवल मोदी का समीकरण ध्वस्त हुआ बल्कि लगभग किनारा होते अगड़ी जाति के नेताओं को त्राण भी मिला. पदाधिकारियों की टीम के साथ भाजपा की प्रदेश कार्य समिति तक में अगड़ी जाति का प्रतिनिधत्व बढ़ा. इसे मोदी की पार्टी पर कमज़ोर होती पकड़ के तौर पर देखा जा रहा है. बदलाव की हवा उपमुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गई है. बताया जा रहा है कि बिहार में अगर दोबारा राजग की सरकार बनती है तो इस बार मोदी के लिए उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना आसान नहीं होगा. सीपी ठाकुर की नई टीम पर गौर करें तो स्थायी समिति, विशेष आमंत्रित, स्थायी आमंत्रित और पदेन सदस्यों के कुल 284 पद में 184 सदस्य अगड़ी जाति के हैं. इस अगड़ी जातियों में भी 87 पदों पर भूमिहार, 46 पर ब्राह्मण, 42 पर राजपूत और 9 पद कायस्थ के खाते में गए. वहीं वैश्य, यादव, कुर्मी, कोयरी, महादलित, दलित अतिपिछड़ा एवं अल्पसंख्यक के हिस्से में क्रमश: 38, 20, 08, 08, 11, 05, 07 एवं 04 पद ही आए हैं. इसको आधार मानते हुए पार्टी के भीतर वैश्य, कुर्मी एवं कुशवाहा की हुई उपेक्षा को लेकर सवाल भी खड़े हो रहे हैं.
बिहार की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाले उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की कुर्सी खतरे में है. अब तक पिछ़डावाद के हावी होने के कारण धीरे-धीरे अग़डी जातियों का एक ब़डा तबका पार्टी से दूर होता जा रहा था, लेकिन जैसे ही प्रदेश भाजपा की कमान डॉ. सी पी ठाकुर के हाथों आई, एक बार फिर से पार्टी की गाड़ी अग़डों की पटरी पर दौ़डने लगी है.
अगड़ों व पिछड़ों के वर्चस्व की लड़ाई को यही विराम नहीं मिला. भाजपा की मूल कमेटियों में अगड़ों की भागीदारी की विशिष्ठता मंच व मोर्चा में भी बनी रही मंच-मोर्चा के फलसफे पर भी पिछड़ों को उपेक्षा का दंश झेलना पड़ा. हाल यह है कि मंच मोर्चा के लिए जिन 41 पदाधिकारियों के नामों की घोषणा हुई, उनमें 28 पदाधिकारी अगड़ी जाति के हैं. आलम यह है कि शिक्षा, बुद्धिजीवि व कला मंच की कमान अगड़ी जाति को थमा दी गई है. इन तीनों मंचों के संयोजक व सह संयोजक अगड़ी जाति के ही बनाए गए हैं. झुग्गी-झोपड़ी, व्यवसाय, आजीवन सहयोग निधि व उद्योग मंच व विधि प्रकोष्ठ में भी सह संयोजक का पद अगड़ी जाति को सौंप दी गई है. कुल मिलाकर मंच मोर्चा का हाल यह है कि भूमिहार से 10 ब्राह्मण से 09 राजपूत से 05, कायस्थ से 04, वैश्य से 06 महादलित से 03, कोयरी कुर्मी मल्लाह व अतिपिछड़ा से एक-एक को पदाधिकारी बनाया गया है.
अगर राजग फिर सत्ता में आया तो उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी किसी अगड़े को बैठाने की तैयारी शुरू हो गई है. इस खेमे का तर्क है कि अगड़ी जातियों के वोटरों को अपनी तरफ करने के लिए यह ज़रूरी है कि इस कुर्सी पर कोई सवर्ण चेहरा बैठे. उनका तर्क है कि राज्य में मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री दोनों ही पदों पर पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधत्व नई राजनीतिक परिस्थियों में किसी भी सूरत में ठीक नहीं है.
यह वजह कम नहीं थी भाजपा के भीतर विस्फोट की स्थिति. जहां तक चर्चा है नाराज़ खेमे में आक्रमकता सबसे ज़्यादा राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के भीतर थी. चर्चा तो इस बात कि है कि विरोध के मुहाने पर पटना-दिल्ली की दौड़ के बाद भाजपा के अंतर्कलह का जो चेहरा सामने आया, वहां पार्टी का संविधान ही बौना पड़ गया. अपने को आचरण वाली पार्टी कहने वाली भारतीय जनता पार्टी के पास पार्टी के भीतर उपजे संघर्ष को पाटने के लिए तत्काल अपने संविधान का उल्लंघन करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा. यह दीगर है कि इन कोशिशों के बाद भी क्षेत्रीय संतुलन बनाने में भाजपा कामयाब नहीं हो सकी. येन-केन-प्रकारेण ही सही पार्टी के भीतर यह चर्चा चल पड़ी है कि संगठन में किसके हाथ कितना पद गया. इस चर्चा में उपमुख्यमंत्री मोदी के खाते में प्रदेश महामंत्री-मंगल पाण्डेय व राजेंद्र गुप्ता, मंत्री-सूरजनंदन मेहता, उपाध्यक्ष-रमादेवी, चंद्रमुखी देवी, संजय झा, प्रवक्ता-सुरेश रूंगटा, आर.के.सिन्हा के नाम की चर्चा है. प्रदेश अध्यक्ष डॉ. ठाकुर के खाते में महामंत्री-रजनीश सिंह, मंत्री किरण कुमारी, उपाध्यक्ष-हरिशंकर शर्मा, संजय मयूख, श्यामा सिंह, रवींद्र सिंह को डाला गया है. इसी तरह से अन्य लोगों ने अपने लोगों को संगठन में शामिल कराने में सफलता हासिल की तो उनमें शत्रुघ्न सिन्हा, अश्विनी चौबे, राधामोहन सिंह, हृदयनाथ सिंह व नंद किशोर यादव के नामों की चर्चा है. मगर, इन सबों के बीच कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने प्रभाव सीमा को बढ़ाया भी है. वर्तमान सूची जारी होने के बाद भाजपा के भीतर इस चर्चा को फिर आयाम मिलने लगा है कि कार्यकर्ताओं के उपेक्षित होने का क्रम लगातार जारी है.
चर्चा यह भी है कि भाजपा के संविधान में यह तय है कि प्रदेश भाजपा बिहार के सांगठिनक ढांचा में प्रदेश अध्यक्ष के अलावा दस उपाध्यक्ष व दस मंत्री के साथ एक कोषाध्यक्ष की टीम बनेगी. इसकी संख्या में फेर बदल करने के लिए राष्ट्रीय परिषद् की सहमति लेना ज़रूरी है, लेकिन विरोध के त्वरित स्वर देखते इस औपचारिकता का ध्यान नहीं रखा गया और संविधान का उल्लंघन कर दस उपाध्यक्ष के बदले 12 और दस मंत्री के बदले 11 मंत्री बनाए गए हैं. इसके बावजूद पार्टी के भीतर क्षेत्रीय व जातीय समीकरण के तुष्टिकरण को लेकर विरोध गहराता ही जा रहा है. भाजपा के भीतरखाने की मानें तो सांगठनिक पद को लेकर मुंगेर, नालंदा, जमुई, नवादा, बांका, शेखपुरा, औरंगाबाद व बाढ़ की उपेक्षा का असर गहराने लगा है. इस क्षेत्र को सांगठनिक महत्वपूर्ण पदों से वंचित रखा गया. यह बात दीगर है कि आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा का विद्रोही स्वर केंद्रीय नेतृत्व के दबाव में कम हो गया है, लेकिन राज्य के सहकारिता मंत्री गिरिराज सिंह, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के क़रीबी माने जा रहे सूर्यगढ़ा विधायक प्रेमरंजन पटेल सहित पिछड़ों व अति पिछड़ों के कई नेताओं का विरोध अंदर-ही-अंदर सुलग रहा है. सीपी ठाकुर ने जो नई टीम बनाई उससे सा़फ है कि संगठन में अगड़ी जातियों का दबदबा बढ़ा है, लेकिन यह सिलसिला यहीं रुक जाएगा ऐसा भी नहीं है. सूत्रों पर भरोसा करें तो बताया जा रहा है कि अगर राजग फिर सत्ता में आया तो उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी किसी अगड़े को बैठाने की तैयारी शुरू हो गई है. इस खेमे का तर्क है कि अगड़ी जातियों के वोटरों को अपनी तरफ करने के लिए यह ज़रूरी है कि इस कुर्सी पर कोई सवर्ण चेहरा बैठे. उनका तर्क है कि राज्य में मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री दोनों ही पदों पर पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधत्व नई राजनीतिक परिस्थियों में किसी भी सूरत में ठीक नहीं है. इसलिए अगर पार्टी से नाराज हो रहे सवर्ण मतदाताओं का साथ चाहिए तो उपमुख्यमंत्री के लिए अगड़ी जाति के किसी नेता को प्रोजेक्ट करना ज्यादा ठीक होगा. इसके अलावा भाजपा पिछले साढ़े चार सालों में पिछलग्गू की बनी अपनी छवि से भी निजात पाना चाहती है. खासकर बटाईदारी क़ानून व एएमयू की शाखा किशनगंज में खोलने को लेकर हुई छीछालेदर की क्षतिपूर्ति को पार्टी ज़रूरी मान रही है. इसलिए पार्टी का एक खेमा सुशील मोदी की जगह अगड़ी जाति के किसी वरिष्ठ नेता को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना चाहता है. जाहिर है आने वाली घड़ी सुशील मोदी के लिए चुनौती भरी है. पार्टी फिर सत्ता में आई और उनकी कुर्सी बरक़रार रहे इसके लिए उन्हें नहले पर दहला मारना ही होगा.