तुम रात में सोए हो
लपेट कर छुटके को बाहों में
और मैं बड़के की छाती पर
हाथ धरे बुदबुदा रही हूँ कुछ शब्द
मेरी भावनाओ से मनुहार करते
ये शब्द गुनने लगते हैं कुछ अनुभव
बिना संभोग और गर्भावस्था के
प्रसव पीड़ा से गुजरने लगती हैं मेरी पंक्तियाँ
और जन्म लेती है अबोध , मासूम कविता

अक्सर छुपा कर आँचल में उसे अशांत ,बेचैन
सी मैं सो जाती हूँ पौ फटने के काल में
डर रहता हैं मेरी शब्दिक बच्ची का लिंग भी तो जनाना ही है
कहीं रौंद ना डालो तुम या समाज
मेरी भावनाओ की कली को
आखिर संसार में स्त्री होना सबसे बड़ा गुनाह जो है

तुम्हारे दफ्तर जाने और आने के बीच मैं
जी भर और पेट भर करा देती हूँ उसे स्तनपान
मेरे बड़े होंते सपूतों के साथ एक हिस्सा उसका भी है
माँ की हर एक करवट और धरोहर पर
भले उसमें तुम्हारे शुक्राणुओं का एक अंश भी नहीं
लेकिन है तो वो हम दोनों की ही साझी
मेरे अतीत, वर्तमान , भविष्य की छवि

आज दौर बदलने लगा है , भारतेंदु नहीं है अब
प्रेमचंद और निराला भी नहीं
मीरा और महादेवी तो कतरा भर नहीं
मैं भी शुरुआत में तुमसे छुपाकर रख दूंगी
अपनी बच्ची को किसी दत्तक पिता की पत्रिका में
जब आधुनिक कविता की पहचान बन जाएगी
मेरी नन्ही परी ,
तब हौले से मिला दूंगी एक दिन
उसे उसके पिता और रोज रात जन्म लेती बहनों से।

संजना तिवारी

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