राजा अवस्थी : किसी भी भाषा, देश और जाति का इतिहास उस भाषा देश और जाति की कविता का उल्लेख किए बिना नहीं लिखा जा सकता। कविता किसी भी देश, भाषा अथवा जाति के इतिहास के लिए सर्वाधिक प्रामाणिक दस्तावेज भी होती है। विशेष रूप से वह कविता, जिसे राज सत्ता का संरक्षण प्राप्त न रहा हो। संरक्षण प्राप्त न होने का एक अर्थ यह भी है, कि वह कविता राज-सत्ता के पक्ष में भोंपू की तरह इस्तेमाल नहीं की जा सकी। वह कविता और कवि भी राज्य सत्ता की किसी भी तरह की दृष्टि की परवाह नहीं करते, इतना ही नहीं, इस तरह की कविता हर तरह की सत्ता, चाहे वह राज्य सत्ता हो, आर्थिक सत्ता हो, अथवा धार्मिक सत्ता हो, सभी को उसकी गलतियाँ बहुत तीखे और तिलमिला देने वाले अंदाज़ में बताती रहती है। इस बात के प्रमाण हमें कबीर से लेकर निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, दुष्यंत कुमार, अदम गोडवी, गोरख पांडेय और सफदर हाशमी  से होते हुए रामकुमार कृषक व विनय मिश्र तक और उनके समकालीन कवियों में भी मिलते हैं। यहाँ यह कहना ज़रूरी लग रहा है कि  कविता में सत्ता से उसके तानाशाही रवैया और सामाजिक ताने-बाने के बीच पनपते कुविचारों-कुप्रवृत्तियों, हावी होती बाज़ारी प्रवृत्ति के खिलाफ डटकर खड़ी रहने वाली कविता की एक लंबी परंपरा दिखाई पड़ती है। इस तरह डट कर खड़े रहने, भिड़ जाने का अर्थ यह भी है, कि सच्ची कविता का यह तेवर, उसके सच के पक्ष में खड़े रहने की इच्छा और सच बयानी, उसके जनपक्षधर होने के कारण ही है। कविता के जन के पक्ष में हथियार की तरह इस्तेमाल होने के अनेकों प्रमाण हैं। प्रमाण के रूप में राम प्रसाद बिस्मिल, गोपाल सिंह नेपाली, दिनकर ,अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार ,गोरख पांडेय जैसे कई नाम लिए जा सकते हैं।
हमारे यहां हिंदी में छायावाद के बाद ही कवियों की एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में दिखाई देती है  जिसने अपनी सृजनात्मक क्षमता का एक हिस्सा इस बात के लिए झोंक दिया कि कविता का कोई आंदोलन उनके नाम पर चल निकले। इस बात का परिणाम यह हुआ कि प्रगतिशील कविता, प्रयोगवादी कविता और नई कविता के बाद सत्तर के दशक में कविता के नाम पर कई तरह के नामों वाली कविता पर केंद्रित वादों की घोषणा की गई। यह नाम अकविता से लेकर बीट कविता तक पसरे हुए  थे। अच्छा यह हुआ कि ये सत्तर के दशक को पार नहीं कर पाए और आठवें दशक में कविता ने पुनः एक जुझारू तेवर अपना लिया। इस दौर में जहाँ गद्य कविता, जनवादी कविता और नवगीत की उपस्थित दिखाई पड़ती है वही हिंदी ग़ज़ल भी अपने पूरे तेवर के साथ खड़ी मिलती है। छायावाद के बाद जहाँ कविता को कई-कई नाम देने की ज़रूरत महसूस की गई थी, वहीं आठवें दशक में आकर नामकरण की परंपरा में एक ठहराव आ जाता है। यहाँ आकर सिर्फ तीन नाम दिखाई पड़ते हैं पहला मुक्त छंद की कविता जिसे  समकालीन कविता कहा गया। दूसरा नवगीत, तीसरा जनवादी कविता या जन गीत जो एक तरह से मुक्त छंद कविता में या नवगीत में ही समाहित हो जाता है। यहाँ एक चौथा नाम भी हिन्दी कविता में उपस्थित भी था और लोकप्रिय भी, किन्तु आलोचना को अँधेरे की ओर ले जाने वाले आलोचकों ने इसका जिक्र नहीं किया। उल्लेखनीय बात यह है कि कविताओं की काल सापेक्ष प्रवृत्ति और कई विशेषताओं के चलते उन्हें नाम देने या नाम को प्रमाणित करने का नाम काम परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से आलोचक करते रहे हैं। इस बीच अचंभित करने वाली कुछ घटनायें दबे पाँव चोर दरवाज़े से घटित हो गई। एक तो यह कि गद्य कविता को ही समग्र कविता का पेटेंट दे दिया गया। दूसरा यह कि हिंदी ग़ज़ल को चुपचाप पूरी नासमझी के साथ हिंदी काव्यालोचना से बाहर रखा गया। यद्यपि समकालीनता का जो तेवर हिंदी ग़ज़ल ने अपने आरंभ से ही दिखाया है, वैसा गद्य कविता में भी नहीं रहा। जनगीत व जनवादी गीतों ने अवश्य उसका साथ दिया।
हिंदी ग़ज़ल की एक लंबी परंपरा कबीर, भारतेंदु, निराला, बलबीर सिंह रंग, रुद्र काशिकेय , त्रिलोचन , शमशेर से लगातार चली आ रही थी और इनकी भाव-दृष्टि भी उर्दू ग़ज़लों से भिन्न थी ।  आठवें दशक से हिंदी ग़ज़ल ने जो तेवर दिखाए, वह चौंकाने वाला था। दुष्यंत ने अपनी ग़ज़ल से हिंदी कविता में ग़ज़ल की लोकप्रियता को ऊंचाई पर पहुंचा दिया। अदम गोंडवी की ग़ज़लें भी जन-जन की ज़ुबान पर आ गईं। इस दौर में और इस दौर के बाद भी हिंदी ग़ज़ल से हिंदी कविता को समृद्ध करने वाले कवियों की लंबी फेहरिस्त रही है। इस सच के साथ एक कड़वा सच यह भी है, कि हिंदी ग़ज़ल को हिंदी कविता की चर्चा में शामिल नहीं किया गया, जबकि उसकी उपस्थिति और हिन्दी कविता में उसकी हिस्सेदारी भरपूर रही है।
आठवें दशक से लेकर अब तक की कविता को, कवियों और कविता के आलोचकों – प्राध्यापकों ने समकालीन कविता नाम दिया। कविता के इन आलोचकों की नज़र में कविता और समकालीन कविता केवल वही कविता है जो गद्य के फॉर्म में लिखी गई हो। इस तरह गीत-नवगीत , दोहों और ग़ज़ल, सब को कविता के दायरे से बाहर रखा गया। यहाँ तक कि जो पत्रिकायें साल भर अपने हर अंक में  ग़ज़ल  को छापती रहीं, ग़ज़ल की पुस्तकों पर समीक्षाएं  छापती रहीं, उन्हीं पत्रिकाओं में जब वर्ष के अंत में उस वर्ष में हिंदी कविता की प्रकाशित पुस्तकों की सूची प्रकाशित की जाती, तो उनमें किसी ग़ज़ल संग्रह का नाम नहीं होता था। लेकिन छद्म और प्रपंचों को अंततः खत्म होना ही था, वे खत्म हुए भी। आज नवगीत और हिन्दी ग़ज़ल, दोनों समकालीन कविता के केन्द्र में हैं।
समकालीन कविता में हिंदी ग़ज़ल की चर्चा चाहे आलोचना के अँधेरे कोने में खड़े रहने वाले आलोचकों ने न की हो, किंतु ग़ज़ल, कवियों ही नहीं आम पाठक और श्रोताओं के बीच निरंतर लोकप्रिय रही है व इसकी लोकप्रियता में वृद्धि ही होती गई है। इस लोकप्रियता के कारणों में जहाँ ग़ज़ल की विषय वस्तु , लय की व्याप्ति और उस ग़ज़ल का ऐसा शिल्प जिससे उस लय की व्याप्ति का प्रसार श्रोता या पाठक के भीतर तक होता है, रहा। इसमें हिंदी ग़ज़ल का कथ्य व उसकी विषय वस्तु और भी अधिक महत्वपूर्ण कारण है। गद्य कविता जहाँ लगभग अपने हर दौर में अपने कवियों के अंतर्विरोध का शिकार रही, वहीं ग़ज़ल ने  जन की भावना से स्वयं को सम्पृक्त रखा और जन जन के लिए सबसे ज़रूरी मुद्दों पर बात की।.
समकालीन कविता का समय सातवें दशक के अंतिम वर्षों व आठवें दशक के प्रारंभ से निरंतर माना जा रहा है। हिंदी ग़ज़ल आधुनिक काल में व उससे भी पहले से हिंदी कविता संसार में उपस्थित रही है, किंतु दुष्यंत ने ग़ज़ल को जो तेवर प्रदान किया उसने ग़ज़ल को आम आदमी की ज़ुबान बना दिया। यद्यपि दुष्यंत के पहले ही कई कवि हिंदी ग़ज़ल लेखन में सक्रिय थे, किंतु दुष्यंत के बाद तो हिंदी कविता में हिंदी ग़ज़ल ने जो अपना हस्तक्षेप किया , फिर उसकी उपस्थिति का अनुपात बढ़ता ही गया और आज हिंदी ग़ज़ल समकालीन काव्यधारा की एक प्रमुख विधा है। मैं हिंदी ग़ज़ल को जब समकालीन कविता की एक प्रमुख विधा कहता हूँ, तो उसके आधार में हिंदी ग़ज़ल की वे विशेषताएँ हैं, जो यह प्रमाणित करती हैं कि समकालीन कविता यानी गद्य कविता के आलोचक समकालीन कविता की, जिस नयी जीवनदृष्टि, नयी चेतना, नयी भाव-भूमि, नयी संवेदना, समकालीनता बोध, सामाजिक यथार्थ, सपाट बयानी के साथ राजनीति तथा व्यंग्य आदि विशेषताओं की पहचान करते हैं, वे सभी विशेषताएँ हिंदी ग़ज़ल में पूरी तरह पाई जाती हैं। हिंदी ग़ज़ल अपने समकाल के अंतर्विरोधों, अंतर्द्वन्द्वों, विसंगतियों, विषमताओं एवं विडम्बनाओं का प्रामाणिक दस्तावेज हैं। आम आदमी की पीड़ा, उसके तनाव, उसकी विवशता, अकेलापन, आक्रोश, कटु अनुभव को पूरे पैनेपन और प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त करने के कारण समकालीन ग़ज़ल हमारे समकाल की  हिंदी कविता के महत्वपूर्ण काव्यरूप के रूप में स्थापित हुई है।
समकालीन कविता ऐसे समय में अस्तित्व में आती है जब भारत राजनैतिक उथल-पुथल से आक्रांत था। आपातकाल और उसके बाद सत्ता में आईं अलग-अलग विचारधाराओं , अलग-अलग दलों की सरकारों तथा आपातकाल के पूर्व जिस परिवर्तनकारी क्रान्ति की आहट यहाँ के कवि सुन रहे थे, उसके लगातार समाप्त होते जाने, धीरे-धीरे किन्तु निरन्तर सत्ता के लिए या सत्तापोषित बाज़ारवाद, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता के छा जाने, जनहित के नाम पर भी जन के गौण होते जाने से भारतीय जन लगभग प्रतिक्रियाविहीन सा हो गया। उसके भीतर सामूहिक विरोध के बीज सो गए से लगने लगे। इतने सारे परिवर्तनों ने कवि को भी इस प्रभाव से दूर नहीं रहने दिया। यही वजह भी रही कि समकालीन कविता में सपाट बयानी आती गई। यह सपाट बयानी जैसी गद्य कविता में दिखाई पड़ती है, वैसी नवगीत और हिंदी ग़ज़ल में नहीं है, बल्कि यहाँ जो महत्वपूर्ण हुआ, वह यह कि नवगीत और हिंदी ग़ज़ल में वाक्य-विन्यास गद्यात्मक वाक्य के निकट आया है। हिंदी ग़ज़ल ने अपनी कहन को और प्रभावी बनाया है। आपातकाल के आसपास के समय को छोड़ दें, तो समकालीन गद्य कविता और नवगीत में भी कोई अधिक परिवर्तनकामी कविताएँ दिखाई नहीं पड़तीं, तब भी हिंदी ग़ज़ल ने अपने भीतर उस तेवर को बनाए रखा और समकालीन कविता में हिंदी ग़ज़ल लगातार जन की बात करती रही, उसकी भाषा ,आम जन के  निकट  भी आती गई।
ऊपर हिंदी ग़ज़ल में जिस फेहरिस्त की बात हम कर रहे थे, वह  सचमुच बहुत लंबी है, किंतु हम अपने समकाल में ग़ज़ल कहने वाले समकालीन कवियों की चर्चा अवश्य करेंगे। उद्भ्रान्त, सूर्यभानु गुप्त, रामकुमार कृषक, विज्ञान व्रत, ज्ञानप्रकाश विवेक, विनय मिश्र, राजेश रेड्डी, विनोद तिवारी, नचिकेता, राम मेश्राम, जहीर कुरैशी, महेश प्रसाद अग्रवाल, ओम रायजादा, देवेंद्र कुमार पाठक ‘महरूम’,  हरेराम समीप, डाॅ कुँवर बेचैन, ओमप्रकाश यती, कुमार विनोद आदि अनेक व्यक्तित्व, समकालीन ग़ज़ल के महत्वपूर्ण कवि हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई नाम है जो ग़ज़ल लेखन में सक्रिय हैं। समकालीन हिंदी काव्यधारा की महत्वपूर्ण कविता समकालीन हिंदी ग़ज़ल से कुछ उदाहरण भी देख लेते हैं जिनमें हम समकालीन कविता के लक्षणों की पहचान कर सकते हैं। देखें –

मुक्तिकामी  चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
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जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए
अदम गोंडवी
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एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है
मुझ में रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख
पर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख
दुष्यंत कुमार
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हम नहीं खाते हमें बाजार खाता है
आजकल अपना यही चीजों से नाता है
है खरीदारी हमारी सब उधारी पर
बेचने वाला हमें बिकना सिखाता है

बीज बोए थे खुशी के खुदकुशी बोई न थी
चार कंधों पर फसल ऐसी कभी ढोई न थी
हर तरफ गुलजार है बाजार जी चाहे जो लो
मिरजई-धोती के हाथों में नई लोई न थी
रामकुमार कृषक
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देखता जा कि तेरे सामने आता क्या है। मीडिया हमको लगातार दिखाता क्या है
रूह की जिस्म की अस्मत की नुमाइश नंगी
रोज बाजार ये हर घर में सजाता क्या है

                                    राम मेश्राम
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अखबारों में असर नहीं है
कोई अच्छी खबर नहीं है
दुराचार की कथा व्यथा से
एक अछूत नगर नहीं है
विनोद तिवारी
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तुम ना बतलाओ भले राजी खुशी दिल्ली
मैं तुम्हें महसूस करता हूँ अरी दिल्ली
है कहाँ ताजा हवा सच की मगर देखो
राजपथ पर शाम से है झूठ की दिल्ली

ख्वाब आँखों से रहे हैं दूर कुछ
वरना हर चीज है बेनूर कुछ
मेरे हिस्से का मुझे हक चाहिए
इससे कम मुझको नहीं मंजूर कुछ

सिर झुकाना दुम हिलाना मेरी फितरत में नहीं
क्या किसी दरबार से रिश्ता निभाना है मुझे
एक दरिया सामने है खौफ़ का चढ़ता हुआ
जानता हूँ डूबकर ही  पार जाना है मुझे
डाॅ. विनय मिश्र

                    इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी काव्यालोचना में आलोचकों की हठधर्मी एकांगी सोच ने जिस तरह समूची हिन्दी कविता को अपनी काव्यालोचना में शामिल न करके अपने समय की आलोचना की प्रामाणिकता को ही संदिग्ध कर दिया, अब उसका पटाक्षेप हो गया है। हिन्दी ग़ज़ल समकालीन हिन्दी कविता की महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित है। अब आलोचकों को भी यह समझ लेना होगा कि किसी विधा विशेष को स्थापित करने के लिए अन्य विधाओं की चर्चा न करने से उस आलोचना पर ही प्रश्नचिह्न लगता है।

 

राजा अवस्थी

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