BJP-celebrationsउत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में अभी देर है, लेकिन भाजपा और सपा अभी से अपने-अपने समीकरण दुरुस्त करने में जुट गई हैं. राज्य में लोकसभा चुनाव में अति पिछड़ा एवं दलित कार्ड खेलकर अप्रत्याशित सफलता हासिल करने के बाद भाजपा अति पिछड़ों एवं अति दलितों को हर हाल में विधानसभा चुनाव 2017 तक अपने साथ जोड़े रखने की जुगत भिड़ा रही है. राज्य में राजपूत, ब्राह्मण, यादव, निषाद, लोधी, कुर्मी, मौर्य-कुशवाहा थान वाली जातियां हैं. पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ ज़िलों में जाट, सैनी एवं गूजर, तो पूर्वांचल के लगभग एक दर्जन ज़िलों में राजभर, भूमिहार, चौहान जैसी जातियां हैं. पाल, बघेल, धनगर भी राजनीतिक दृष्टि से कई क्षेत्रों में प्रभावी हैं. उत्तर प्रदेश के सियासी-जातिगत समीकरण को ध्यान में रखकर ब्राह्मण वर्ग से कलराज मिश्र, डॉ. महेश शर्मा एवं मनोहर पार्रिकर, राजपूत वर्ग से राजनाथ सिंह एवं जनरल वीके सिंह, उमा भारती (लोधी), संजीव वालियान (जाट), मनोज सिन्हा (भूमिहार), संतोष गंगवार (कुर्मी), साध्वी निरंजन ज्योति (निषाद), मेनका गांधी (सिक्ख-ब्राह्मण) डॉ. राम शंकर कठेरिया (धानुक), डॉ. मुख्तार अब्बास नकवी (मुस्लिम) को 66 मंत्रियों में स्थान मिला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जाति मोढ़-घांची है. मोदी ने बिहार के 2015 और उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर जातियों का ताना-बाना बुनने की हरसंभव कोशिश की है. उत्तर प्रदेश से दलित के नाम पर डॉ. राम शंकर कठेरिया को मंत्री बनाकर जाटव, पासी एवं वाल्मीकि जैसी मजबूत आधार वाली जातियों को नकार दिया गया है, जिससे इनमें असंतोष भी उभरा है, क्योंकि धानुक जाति की संख्या उत्तर प्रदेश में 0.5 प्रतिशत से भी कम है. 2007 में मायावती और 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में बहुमत की सरकार बनाने का श्रेय ब्राह्मण वर्ग ने लिया, परंतु अब मायावती का इनसे मोहभंग होता दिख रहा है और वह राजाराम एवं वीर सिंह (जाटव) को पुन: राज्यसभा भेजकर अपना आधार वोट मजबूत और दलितों की नाराज़गी दूर करने के प्रयास में जुट गई हैं. अब मोदी का खौफ तमाम क्षेत्रीय एवं सूबाई क्षत्रपों को सता रहा है. इसीलिए बिहार उपचुनाव में धुर विरोधी लालू एवं नीतीश पुन: एक हो गए और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़े. अब मुलायम सिंह यादव भी ख़तरा भांपते हुए पुराने जनता परिवार को इकठ्ठा करने में जुट गए हैं. 1989 में कांग्रेस के विरुद्ध जनता पार्टी और वामपंथी दलों के विभिन्न कुनबे भाजपा के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़े थे. अब ऐसा लगता है कि भाजपा के विरुद्ध सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष एवं वामपंथी दल कांग्रेस के साथ महा-गठबंधन का खाका खींच सकते हैं.

उत्तर प्रदेश और बिहार सियासी गणित के अनुसार काफी महत्वपूर्ण राज्य हैं तथा सरकार बनाने-बिगाड़ने में इन्हीं की मुख्य भूमिका रहती है. इन दोनों राज्यों का पिछड़ा एवं अति पिछड़ा वर्ग जिस दल की ओर पलटी मारता है, उसी का पलड़ा भारी रहता है. कारण यह कि उत्तर प्रदेश में यादव, जाट, गूजर, कुर्मी एवं लोधी के बाद शेष अन्य अति पिछड़ों की आबादी 34 प्रतिशत से अधिक है और बिहार में 32 प्रतिशत से अधिक. अति पिछड़ों के सामाजिक-राजनीतिक न्याय के साथ 17 अति पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए पिछले डेढ़ दशक से संघर्ष कर रहे अति पिछड़ा चिंतक एवं राष्ट्रीय निषाद संघ के सचिव लौटन राम निषाद कहते हैं कि कुछ भी हो, उत्तर प्रदेश-बिहार में चुनाव परिणाम जातियां ही निर्धारित करेंगी. ऐसे में पिछड़ों, अति पिछड़ों की खासी भूमिका रहेगी. उत्तर प्रदेश में निषाद संवर्गीय जातियों की संख्या 10 प्रतिशत से अधिक है, तो वहीं बिहार में 16.5 प्रतिशत. यह काफी निर्णायक है. उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण में ब्राह्मण-5.5, राजपूत-6, वैश्य-2, कायस्थ, खत्री, त्यागी, भूमिहार-2, यादव-8.60, कुर्मी-4.5 जाट-3.75, लोधी-3.5, केवट-मल्लाह-निषाद-7.5, कश्यप-कहार-धीवर-2.5, खागी-तंवर-0.75, बियार-0.25, तेली-साहू-भुर्जी-2.75, माली-सैनी-1.0, नोनिया-चौहान-1.15, नाई-सविता-0.75, राजभर-1.10, प्रजापति-1.05, लोहार-विश्‍वकर्मा-1.5, पाल-बघेल-2.60, कंडेरा-0.25, बरई-0.35, मौर्य-कुशवाहा-शाक्य-कोयरी-मुरांव-3.50, गूजर-0.90, अल्पसंख्यक-14.5, अनुसूचित जाति-जनजाति-23.50 प्रतिशत हैं. बिहार के जातिगत समीकरण में ब्राह्मण-4.10, राजपूत-4, भूमिहार-2.10, वैश्य-2.60, कायस्थ-1.50, यादव-11.10, निषाद-मल्लाह-केवट-बिंद-14.75, तुरहा-1.0 नोनिया-3.50, राजभर-0.70, गड़ेरिया-भेड़िहार-1.35, कुम्हार-0.90, कुर्मी-3.10, कोयरी-3.5, अन्य अति पिछड़े (नाई, ततवा, चंद्रवंशी, बेलदार)-8.30, मुस्लिम-14.80, जनजाति-1.20, जाटव-11.50, पासी-1.75, दुसाध-पासवान-2.50, मुसहर-1.50 एवं अन्य दलित-2.75 प्रतिशत हैं. बिहार में कर्पूरी ठाकुर फॉर्मूले के तहत सर्वाधिक पिछड़ों को 28 प्रतिशत यानी स्थानीय निर्वाचन में 20 और नौकरियों में 18 प्रतिशत आरक्षण हासिल है, जिसकी मांग उत्तर प्रदेश में भी लंबे समय से उठ रही है. उत्तर प्रदेश मेंे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बाद शिवपाल, पारसनाथ, दुर्गा प्रसाद, राम गोविंद चौधरी, कैलाश नाथ एवं अंबिका चौधरी सहित सात कैबिनेट मंत्री यादव हैं, तो राजेंद्र चौधरी (जाट) एवं राममूर्ति वर्मा (कुर्मी). जबकि लोधी, निषाद, पाल, कुशवाहा, मौर्य एवं बघेल जैसी मजबूत आधार वाली जातियों को कैबिनेट में स्थान नहीं दिया गया, जिससे अति पिछड़ा वर्ग स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ चला गया. भाजपा ने 26 पिछड़ों एवं अति पिछड़ों को टिकट दिए थे, जिनमें 24 पिछड़े सांसद बन गए. अखिलेश मंत्रिमंडल में लोधी-02, शाक्य, कहार एवं पाल जाति के एक-एक विधायक को शामिल किया गया, जिससे इन वर्गों में नाराज़गी स्वाभाविक है.
सपा को पिछड़ों एवं किसानों की पार्टी कहा जाता रहा है, परंतु वर्तमान में इसका स्वरूप बदल गया है. सपा के ज़िला-महानगर इकाई के अध्यक्षों में किसी भी पाल, बघेल, लोधी, निषाद, राजभर एवं चौहान का नाम शामिल नहीं है. सपा सरकार का मंत्रिमंडल हो या संगठन, यादव सहित कुछ ही जातियों का वर्चस्व है. भाजपा ने 35 सदस्यीय प्रदेश कमेटी में छह दलितों एवं 12 पिछड़ों-अति पिछड़ों को पदाधिकारी बनाकर सपा के सामने मुसीबत खड़ी कर दी है. सपा की राष्ट्रीय कमेटी का गठन कर दिया गया है, जिसमें ग़ैर यादव पिछड़ों में विशंभर प्रसाद निषाद एवं रवि प्रकाश वर्मा को ही महामंत्री के तौर पर स्थान दिया गया है. प्रदेश कमेटी का गठन अभी बाकी है. भाजपा द्वारा पिछड़ा-दलित कार्ड खेले जाने के बाद सपा उसकी काट के लिए अति पिछड़ों एवं दलितों को संगठन और सरकारी संस्थाओं में सम्मानजनक हिस्सेदारी देने की कवायद में जुट गई है. बीते 25 अक्टूबर को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 82 दर्जाधारी मंत्रियों की लालबत्ती छीन ली थी. लेकिन, बीते 19 नवंबर से निगम, परिषद, आयोग एवं सरकारी संस्थाओं में उनके समायोजन की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है. जिन छह लोगों को समायोजित किया गया है, उनमें से जगदेव प्रसाद यादव एवं सोनी यादव पुत्री परशुराम यादव ही पिछड़े वर्ग के हैं. आत्मप्रकाश शुक्ला, सुरभि शुक्ला, मधुकर जेटली एवं रिचा उपाध्याय ऐसे नाम हैं, जो केवल राजनीतिक लाभ के लिए सपा में हैं और वे किसी हाल में समाज तो दूर, अपने घर-परिवार के भी वोट सपा को नहीं दिला सकते.

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