sapa-baspaअपनी-अपनी वजहों से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का कुनबा बिखर रहा है. सपा पारिवारिक कलह के कारण बिखर रही है तो बसपा अंदरूनी असंतोष के कारण बिखर रही है. चुनाव के समय पार्टी को मजबूत करने का प्रयास करने के बजाय समाजवादी पार्टी में वर्चस्व कायम करने की जो होड़ लगी है, उसमें पार्टी चार विभिन्न खेमों में बंट गई है. एक खेमा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का, दूसरा खेमा शिवपाल सिंह यादव का, तीसरा खेमा रामगोपाल यादव का और चौथा खेमा सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव का. इसमें चौथा खेमा ही सबसे कमजोर साबित हो रहा है. मुलायम के साथ जो सपाई खड़े हैं वो सब पुराने और बुजुर्ग चेहरे हैं, लेकिन मुलायम के प्रति प्रतिबद्ध हैं. शिवपाल भी अपने भारी-भरकम खेमे के साथ मुलायम के ही साथ खड़े हैं. रामगोपाल अपने खेमे के साथ समाजवादी पार्टी को अपनी मुट्ठी में रखने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उनका मोहरा साबित हो रहे हैं. अखिलेश अपने पिता की ही अनदेखी और अवहेलना कर रहे हैं. सपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि अखिलेश यादव एक तरफ मुख्तार अंसारी के नाम पर कौमी एकता दल के सपा में विलय का विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ सारे भ्रष्ट और अराजक तत्वों को अपने साथ रखते हैं. पिता ऐसे भ्रष्ट और अराजक तत्वों को निष्कासित कर देते हैं तो पुत्र उन्हें न केवल पार्टी में वापस कराते हैं, बल्कि उन्हें विधान परिषद की सीट या मंत्री की सीट देकर मुलायम के समक्ष ही अनुशासनहीनता और मर्यादाहीनता की बड़ी लाइन खींच देते हैं. मुलायम कार्यकारिणी की सूची जारी करते हैं तो अखिलेश विदेश से लौट कर समानान्तर सूची जारी कर अपना बढ़ा हुआ कद दिखाते हैं. पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों का कहना है कि रामगोपाल यादव के साथ मिल कर अखिलेश वो सारे निर्णय पलटने पर जोर लगा देते हैं जो मुलायम और शिवपाल की सहमति से लागू होता है. अखिलेश आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को पार्टी में नहीं आने देना चाहते और वे साफ-सुथरी छवि के लोगों को पार्टी में स्थान देने के पक्षधर हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. उनके मंत्रिमंडल में ही तमाम चेहरे आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं तो वे उन्हें क्यों नहीं निकाल बाहर करते! ऐसी ही बदनाम छवि के लोगों को वे विधान परिषद भेजने के लिए सिफारिश क्यों करते हैं कि राज्यपाल तक उसमें कानूनी सवाल खड़ा करने पर विवश हो जाते हैं! पिता मुलायम ने 2012 में पुत्र-मोह में सारी राजनीतिक नैतिकता ताक पर रख कर पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन पुत्र ने उसकी मर्यादा नहीं रखी. राजनीतिक पंडितों को उम्मीद थी कि युवा हाथों में प्रदेश की बागडोर आने से रोजगार और विकास की रफ्तार बढ़ेगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. प्रदेश की सत्ता इन चार वर्षों में चार कोणों और कई प्रति-कोणों में फंसी रही. अब उन सारे कोणों का विरोधाभास चुनाव के समय सड़कछाप होकर सामने आ रहा है. मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव के फैसलों पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने घर और मर्यादा की चारदीवारी से बाहर फांद कर विरोध करना शुरू कर दिया है. कौमी एकता दल के विलय को लेकर अखिलेश ने जो सार्वजनिक रुख दिखाया, वह अमर्यादित और अगंभीर था. सपाई ही कहते हैं कि इस मसले को घर के भीतर ही निपटाया जा सकता था. रामगोपाल यादव के इशारे पर लिखी गई विरोध की पटकथा अगले दिन लखनऊ में सार्वजनिक तौर पर दिखी, जब सत्ता-मद में मगरूर रामगोपाल यादव मीडिया वालों के सामने मुखातिब हुए. राजनीतिक गलियारे से लेकर समाज तक इन हरकतों से समाजवादी पार्टी के खिलाफ संदेश गया. बलराम की बर्खास्तगी और रामगोपाल के कहने पर फिर से वापसी को लेकर मुख्यमंत्री की तो भद्द हो गई. इसका असर चुनाव में पड़ेगा, इससे कोई सपाई इन्कार नहीं कर पाता.

उधर, बहुजन समाज पार्टी के वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी छोड़ने के बाद महासचिव आरके चौधरी ने भी इस्तीफा दे दिया. दलित नेता आरके चौधरी ने भी मायावती पर वैसे ही गंभीर आरोप लगाए जो अन्य नेताओं ने लगाए थे. मायावती की धन के प्रति लोलुपता अब उनकी सार्वजनिक छवि के रूप में स्थापित हो गई है. बसपा छोड़ने वाले पूर्व राज्यसभा सदस्य डॉ. अखिलेश दास, पूर्व मंत्री दद्दू प्रसाद, विधायक राजेश त्रिपाठी, राज्यसभा सदस्य जुगल किशोर, सबने यही कहा था कि मायावती टिकट बेचती हैं और मोटा धन लेकर लोगों को राज्यसभा भेजती हैं. आरके चौधरी ने भी कहा कि बसपा अध्यक्ष मायावती को अब कैडर और जमीनी कार्यकर्ताओं के बजाय ठेकेदार, माफिया और रियल इस्टेट का धंधा करने वाले लोग अधिक प्रिय हैं. मायावती के कारण कांशीराम का सामाजिक परिवर्तन का नारा धरा का धरा रह गया. बसपा राजनीतिक दल के बजाय रियल इस्टेट कंपनी बनकर रह गई है. चौधरी ने कहा कि अभी और लोग बसपा छोड़ कर जाएंगे. आरके चौधरी बसपा संस्थापक कांशीराम के चहेतों में रहे हैं. मायावती ने विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष बरखू राम वर्मा के साथ चौधरी को 21 जुलाई 2001 को पार्टी से निकाल दिया था. उसके बाद पहले वर्मा को और बाद में चौधरी को अप्रैल 2013 में पार्टी में फिर से वापस ले लिया गया था. चौधरी मोहनलालगंज से तीन बार विधायक रहे हैं. उन्होंने लोकसभा का पिछला चुनाव भी मोहनलालगंज (सुरक्षित) से लड़ा था, लेकिन भाजपा के कौशल किशोर के हाथों वे चुनाव हार गए थे. मायावती ने इस बार मोहनलालगंज (सुरक्षित) विधानसभा सीट से आरके चौधरी के बजाय रामबहादुर को उम्मीदवार घोषित कर दिया. चौधरी ने इसी वजह से बसपा छोड़ने का फैसला किया. अभी 22 जून को ही बसपा के वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती पर टिकट बेचने का गंभीर आरोप लगाते हुए बसपा छोड़ दी थी. मौर्य ने कहा था कि मायावती के भीतर पैसे की हवस पैदा हो गई है. यह कांशीराम और बाबा साहेब अंबेडकर का अपमान है. बसपा नीलामी का बाजार बन गई है. मायावती ने अंबेडकर के विचारों की हत्या की है. बसपा के कार्यकर्ता हताश हैं, इस पार्टी में दलितों के लिए जगह नहीं रह गई है.

लब्बोलुबाव यह है कि बहुजन समाज पार्टी में तकरीबन विद्रोह की ही स्थिति है. केवल स्वामी प्रसाद मौर्य ही क्यों, बसपा छोड़ने का क्रम तो पहले से जारी है. डॉ. अखिलेश दास, जुगल किशोर, फतेह बहादुर सिंह, राजेश त्रिपाठी जैसे कई नाम हैं, जो बसपा के खास थे, लेकिन उन्हें पार्टी छोड़ने पर विवश होना पड़ा. इनमें से करीब-करीब सबों ने मायावती पर यह आरोप लगाया कि वे पैसे लेकर लोकसभा और विधानसभा चुनाव का टिकट बांटती हैं या भारी धन लेकर किसी को राज्यसभा के लिए मनोनीत करती हैं. सपा की लहर में भी बसपा से चिल्लूपार जैसी सीट जीतने वाले विधायक और पूर्व मंत्री राजेश त्रिपाठी को बसपा छोड़नी पड़ी. राजेश त्रिपाठी को दरकिनार कर मायावती हरिशंकर तिवारी के किसी रिश्तेदार को विधानसभा चुनाव में उतारने की तैयारी में थीं. इसकी भनक लगते ही राजेश ने बसपा से किनारा कर लिया. बसपा के राज्यसभा सदस्य डॉ. अखिलेश दास गुप्ता के इस्तीफे की कहानी से लोग परिचित हैं. मायावती ने डॉ. अखिलेश दास गुप्ता को राज्यसभा का टिकट दोबारा देने से मना कर दिया था. इस पर डॉ. दास ने यह आरोप लगाया था कि राज्यसभा का उम्मीदवार बनाने के लिए मायावती सौ-सौ करोड़ रुपये मांगती हैं. इसी तरह राज्यसभा के लिए चयनित नहीं होने का गुस्सा पूर्व सांसद ब्रजेश पाठक में भी है. हालांकि उन्होंने अभी पार्टी नहीं छोड़ी है. लेकिन चर्चा है कि मायावती के सतीशचंद्र मिश्र से एकल-ब्राह्मण प्रेम के कारण ब्राह्मण समुदाय के कई नेता जल्दी ही बसपा छोड़ेंगे. मायावती ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में जिस आईपीएस अफसर को सबसे अधिक तरजीह दी थी, वह बृजलाल भी रिटायरमेंट के बाद भाजपा में शरीक हो गए थे. जबकि बृजलाल के बारे में सबको यही लग रहा था कि वे बसपा में जाएंगे. बृजलाल को वर्दी वाला बसपाई तक कहा जाने लगा था. बसपाई बृजलाल के भाजपाई होने के बाद बसपा के राज्यसभा सदस्य जुगल किशोर और मायाकालीन मंत्री फतेह बहादुर सिंह के सपरिवार भाजपा में शामिल होने का कदम भी मायावती के लिए बड़ा झटका था. जुगल किशोर और फतेहबहादुर के परिवार के सदस्यों के साथ-साथ खासी संख्या में बसपाइयों ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी. उनमें राज्यसभा सांसद जुगल किशोर की पत्नी दमयंती किशोर और उनके पुत्र सौरभ सिंह व फतेह बहादुर सिंह की पत्नी साधना सिंह और उनके समर्थक शामिल थे. फतेह बहादुर सिंह लंबे समय तक प्रदेश की सरकारों में कैबिनेट मंत्री रहे थे. इनके पिता वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. कैंपियरगंज इनकी परंपरागत सीट है. इसके अलावा पूर्व विधायक सुरेंद्र मिश्र, विधान परिषद सदस्य हरगोविंद मिश्र, आजमगढ़ के बसपा नेता अमित तिवारी और बॉबी अवस्थी ने भी बसपा छोड़ कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी.

राजनीतिक स्थिति तेज गति से करवट ले रही हैं. कुछ दिनों पहले एक सर्वे में मायावती का प्रदेश में पलड़ा भारी बताया गया था और उनके मुख्यमंत्री बनने की संभावना जताई गई थी, लेकिन आज माजरा बदला हुआ दिखता है. राजनीतिक प्रेक्षकों का भी कहना है कि अब मायावती का प्रभाव सम्पूर्ण दलित समुदाय के बजाय केवल जाटवों तक सिमट गया है, क्योंकि वे खुद भी इसी जाति से आती हैं. राज्य में 66 दलित जातियां हैं. अनुसूचित जाति की आबादी 21 प्रतिशत है. इसमें 56 प्रतिशत जाटव, 16 प्रतिशत पासी और 15 प्रतिशत धोबी, कोरी, वाल्मीकि आदि जातियां हैं. अभी अप्रैल महीने में उत्तर प्रदेश में हुए कुछ सर्वेक्षणों में बसपा को बहुमत के करीब सीटें मिलने की उम्मीद जताई गई थी. सर्वे में भाजपा को दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरता हुआ देखा गया था. जबकि सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को 80 सीटों पर सिमटता हुआ बताया गया था. उत्तर प्रदेश में तीन सीटों पर हुए उपचुनाव में भी समाजवादी पार्टी को झटका लगा था जब मुजफ्फरनगर सीट भाजपा ने छीन ली और देवबंद सीट पर कांग्रेस ने कब्जा कर लिया. ये दोनों सीटें सपा के पास थीं. तीसरी फैजाबाद की बीकापुर विधासभा सीट बचाने में सपा किसी तरह कामयाब हो पाई.

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव की भाजपा से अंतरंगता के कारण यूपी का मुस्लिम मतदाता बुरी तरह बिदका हुआ है. रामगोपाल के भाजपा-प्रेम के कारण ही सपा बिहार के महागठबंधन से अलग हुई थी और अब यूपी में उसका खामियाजा भुगतने को तैयार है. मुस्लिम मतदाता सपा छोड़ कर कांग्रेस या बसपा में जाने का विकल्प तलाश रहा है. प्रदेश में जिस तरह के समीकरण बन रहे हैं उसका सबसे ज्यादा नुकसान समाजवादी पार्टी को ही होने वाला है. जनता दल (यु) आरजेडी, एनसीपी और ओवैसी की एमआईएम भी विधानसभा चुनाव में उतर रही है. इसका गठबंधन तैयार हो रहा है. इसमें कांग्रेस के भी शामिल होने की संभावना है. अगर ऐसा हुआ तब सपा का क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. राजनीतिक कयास यह भी है कि शिवपाल अपना खेमा लेकर इस महागठबंधन के साथ शरीक हो जाएं, हालांकि यह महज एक कयास ही है. लेकिन यह तो तय है कि बिहार से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में आरजेडी-जेडीयू के साथ होने वाला संभावित गठबंधन मुलायम को नुकसान पहुंचाएगा. गठबंधन भी मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर खींचेगा और ओवैसी का दल भी खींचेगा. इसका नुकसान सपा को ही होगा. सपा रालोद के साथ तालमेल साधने की कोशिश कर रही है, रालोद की शर्त थी जयंत चौधरी को अखिलेश मंत्रिमंडल में शरीक किया जाए, लेकिन रामगोपाल ने ऐसा होने नहीं दिया. लिहाजा, रालोद से तालमेल भी मुश्किल में ही पड़ गया दिखता है.

अब प्रियंका और शीला के सहारे कांग्रेस की नाव

कांग्रेस नेतृत्व को अब यह सुध आ रही है कि प्रियंका गांधी का बेहतर राजनीतिक इस्तेमाल भी है. सोनिया गांधी प्रियंका गांधी को राजनीति में आने से रोकती रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता रहा है कि प्रियंका के राजनीति में आने से राहुल गांधी छाया-क्षेत्र में चले जाएंगे. लेकिन अब स्थिति ऐसी बन रही है कि बिना प्रियंका के यूपी में तो नाव पार लगती दिखाई नहीं देती. लिहाजा, कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को यूपी चुनाव की कमान देने और सक्रिय राजनीति में उतारने का मन बना लिया है. प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की मांग काफी लंबे समय से हो रही थी.

कांग्रेस के लिए यूपी में वापसी करना जीवन-मरण का प्रश्न है. अब उसे प्रियंका में ही उम्मीद दिखाई दे रही है. कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी गुलाम नबी आजाद भी कह चुके हैं कि प्रियंका को अब सक्रिय राजनीति में आकर कमान संभालनी चाहिए. कांग्रेस के चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोेर ने भी प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की सलाह दी थी. अब इस बात की पूरी संभावना है कि कांग्रेस प्रियंका को ही उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करे. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पहले यूपी लाने की तैयारी चल रही थी, लेकिन वे उत्तर प्रदेश आने से हिचक रही थीं. कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें अपनी राय पर दोबारा विचार करने को कहा था. शीला दीक्षित ने पिछले महीने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी. इस मुलाकात के बाद कहा जाने लगा कि शीला दीक्षित अपनी नई भूमिका में आना स्वीकार कर लिया है. शीला दीक्षित के पास पंजाब और उत्तर प्रदेश का दो विकल्प रखा गया था, जिसमें उन्होंने उत्तर प्रदेश चुना. कांग्रेस पिछले 30 साल से उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने की जद्दोजहद कर रही है. प्रियंका गांधी यूपी के साथ-साथ देश के दूसरे राज्यों में भी चुनाव प्रचार करेंगी. वह पहले भी रायबरेली और अमेठी में प्रचार करती रही हैं.

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