वास्तव में अर्थव्यवस्था अपवादों पर चलती है. जब रुपये की कीमत गिरती है या सेंसेक्स में गिरावट आती है तो यह गिरता ही है, क्योंकि निवेशकों का एक बड़ा वर्ग अर्थव्यवस्था के प्रति निराशावादी सोच रखता है.
बीते 4 सितंबर को रिजर्व बैंक के नये गवर्नर की नियुक्ति हो गई. सरकार के लिए यह उचित है कि वह कुछ नये कदम उठाकर नवनियुक्त गवर्नर के काम में मदद करे. और यह कदम केवल सरकार ही उठा सकती है न कि रिजर्व बैंक. उदाहरण के लिए हम लगभग 500 बिलियन करोड़ रुपये कीमत का आयात कर रहे हैं, जिसमें से 180 बिलियन केवल तेल के आयात पर खर्च किया जा रहा है. शेष 320 बिलियन में वे निश्‍चित रूप से कटौती करेंगे. मुख्य रूप से सोने के आयात पर खर्च होने वाले 53 बिलियन में कटौती होनी चाहिए. इसके अलावा और भी कई गैर-जरूरी वस्तुएं हैं जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स, उनके आयात पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए. सरकार एक अस्थाई मुश्किल में है. देश जिस तरह के आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. संभव है कि मार्च 2014 तक चालू वित्तीय घाटा घटकर 2.5 प्रतिशत तक आ जाए और यह डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत को प्रभावित करेगा. और ऐसा हुआ तो रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को नियंत्रण में करने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी नहीं करेगा. अब यह नये गवर्नर को तय करना होगा, क्योंकि ब्याज दरें देश में होने वाले विदेशी निवेश को प्रभावित करेंगी.

सबसे ज़रूरी तो यह है कि देश और देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आपको कुछ साहसिक क़दम उठाने होंगे. और मौजूदा वित्त मंत्री ऐसा क़दम उठाने में सक्षम भी हैं और उपयुक्त भी. उन्हें केवल यह करना चाहिए कि वे पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्‍व व्यापार संगठन के साथ बातचीत शुरू करें या सुधार की दिशा में कदम उठा लें और बाद में उन्हें इससे अवगत कराएं.

वास्तव में अर्थव्यवस्था अपवादों पर चलती है. जब रुपये की कीमत गिरती है या सेंसेक्स में गिरावट आती है तो यह गिरता ही है, क्योंकि निवेशकों का एक बड़ा वर्ग अर्थव्यवस्था के प्रति निराशावादी सोच रखता है. इसके विपरीत अगर लोग आशावादी हैं तो यह ऊपर जाता है. अगर सरकार अर्थव्यवस्था की दिशा में गंभीर कदम उठाए और भारतीय निवेशकों को भरोसे में ले तो इसके परिणाम दूरगामी होंगे और अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर लौट आएगी.
मैं जानता हूं कि मौजूदा सरकार यह सोच रही है कि अगर कुछ प्रतिबंध लगाए गए तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्‍व व्यापार संगठन इसका विरोध करेंगे, लेकिन इन संगठनों से जो करार किया जाता है, उसमें इस बात का भी उल्लेख रहता है कि अगर देश के सामने धनाभाव का संकट आता है तो संबंधित देश उनकी सहमति से कुछ छूट भी ले सकता है. हालांकि आज धनाभाव जैसा कोई संकट तो नहीं दिख रहा है, लेकिन जमापूंजी का अधिकांश हिस्सा अल्पावधि का है और अगर अर्थव्यवस्था किसी बड़े संकट में आई तो इस जमापूंजी के खत्म होने में समय नहीं लगेगा. देश को चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्‍व व्यापार संगठन को इस हालात से अवगत कराए और मुझे यकीन है कि वे इसे समझेंगे.
इन सबसे जरूरी तो यह है कि देश और देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए आपको कुछ साहसिक कदम उठाने होंगे. और मौजूदा वित्त मंत्री ऐसा कदम उठाने में सक्षम भी हैं और उपयुक्त भी. उन्हें केवल यह करना चाहिए कि वे पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्‍व व्यापार संगठन के साथ बातचीत शुरू करें या सुधार की दिशा में कदम उठा लें और बाद में उन्हें इससे अवगत कराएं. मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने पर देश के सामने कोई बड़ी समस्या आ सकती है. अगर मार्च, 2014 तक अर्थव्यवस्था में सुधार आता है तो सरकार के लिए आगामी चुनाव में यह सुधार फायदेमंद साबित होंगे.
मौजूदा हालात में दो चीजें हो रही हैं. एक तरफ तो रुपये की कीमत घट रही है. शेयर मार्केट गिर रहा है. लोगों का विश्‍वास घट रहा है. दूसरी तरफ हमें खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने के लिए अधिक पूंजी की आवश्यकता है. भूमि अधिग्रहण कानून को सुचारु रूप से लागू करने की जरूरत है. चुनाव के पहले देश में काफी कुछ होने वाला है, लेकिन हमें हालात को काबू में करने के लिए कहीं-न-कहीं से एक शुरुआत की जरूरत है. अन्यथा हर तरफ अराजकता का माहौल बन जाएगा.

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