sbiअंततोगत्वा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सबसे बड़े फैसले, नोटबंदी पर रिज़र्व बैंक का आखिरी आंकड़ा सार्वजनिक हो ही गया. नोटबंदी का फैसला प्रधानमंत्री सबसे बड़ा फ़ैसला इसलिए था क्योंकि उन्होंने इस पर अपना सब कुछ दावं पर लगा दिया था. क्योंकि इस क़दम के बाद जब आम लोगों की परेशानियां बढ़ने लगीं और अर्थव्यस्था पर इसके कुप्रभाव को लेकर आलोचनाएं होने लगीं, तो उन्होंने 50 दिन का समय मांगते हुए यहां तक कह दिया था कि यदि 50 दिन के बाद उनकी गलती साबित हो जाए तो किसी भी चौराहे पर उनसे हिसाब मांग लिया जाए.

दरअसल, नोटबंदी के समय सरकार ने यह दावा किया था कि 500 और 1000 रूपये के नोटों का प्रचालन बंद कर देने से देश में कालाधन, नक़ली नोट और आतंकवाद पर शिकंजा कसा जा सकेगा और आर्थिक विकास को गति मिल जायेगी. उस समय सरकार को यह उम्मीद थी कि प्रचलन से हटाये गए नोटों का एक बड़ा हिस्सा सिस्टम में वापस नहीं आएगा. लेकिन, भारतीय रिज़र्व बैंक की ताज़ा वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक नोटबंदी के बाद प्रचलन से हटाए गए 99.3 प्रतिशत नोट (जिनकी कीमत 15.31 लाख करोड़ रूपये है) वापस आ गए हैं.

अब ज़रा कुछ अन्य आंकड़ों पर एक नज़र डाल लेते हैं. आरबीआई के मुताबिक नोटबंदी से पहले 15.41 लाख करोड़ रूपये मूल्य के 500 और 1000 रूपये के नोट प्रचालन में थे. जब 15.31 लाख करोड़ रूपये बैंक में वापस आ गए तो इसका मतलब है कि केवल 10 हज़ार करोड़ रूपये के नोट सिस्टम में वापस नहीं आये. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक नए नोट छपवाने और नोटबंदी की प्रक्रिया में ही 8000 करोड़ रूपये खर्च हो गए. यदि नोटबंदी के दूसरे कुप्रभावों को भुला भी दिया जाए और केवल इस प्रक्रिया पर आये खर्च को ही सामने रखा जाए, तो भी यह सवाल जाएज़ होगा कि क्या केवल 2000 करोड़ रुपये के लिए इतना बड़ा जोखिम उठाना ठीक था?

नोटबंदी के मकसद को लेकर सरकार ने कई बार अपने गोलपोस्ट बदले. जब उसे लगा कि सारे बंद नोट वापस बैंकों में आ जायेंगे तो वित्त मंत्रालय की ओर से कहा गया कि हम कैशलेस इकॉनमी बनेगें और नोटबंदी इसमें हमारी मदद करेगी. ज़ाहिर है, भारत जैसे देश में कैशलेस इकॉनमी की बात करना ही मूर्खतापूर्ण है. क्योंकि जिस देश के 40 प्रतिशत लोग अपना नाम भी लिखना नहीं जानते, उनसे यह अपेक्षा की जा रही थी कि वे इन्टरनेट का इस्तेमाल कर अपने सारे लेनदेन ऑनलाइन करेंगे. बहरहाल, सरकार के इस गुब्बारे से भी हवा निकल गई. रिज़र्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2017-18 में कैश के रूप में घरेलू बचत में 2.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो पिछले छह साल में सब से अधिक थी. गौरतलब है कि यह वृद्धि वर्ष 2015-16 में 1.4 प्रतिशत थी. नोटबंदी के कारण 2016-17 के आंकड़े नहीं लिए गए थे.

नोटबंदी का एक मकसद नकली नोटों पर हमला था. लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या नक़ली नोटों पर किसी तरह का शिकंजा कसा जा सका है? क्या नए नोटों की वजह से नकली नोटों का धंधा करने वालों को किसी तरह की दिक्कत आई है? यदि नहीं आई है तो फिर आठ हज़ार करोड़ रूपये खर्च करने का औचित्य क्या था? आरबीआई के 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक बैंकों द्वारा पकडे गए नकली नोटों में 46 प्रतिशत नोट 100 रूपये के थे, जबकि 29 प्रतिशत नोट 2000 और 500 रुपये के थे. यदि संख्या में बात करें तो वर्ष 2017-18 में 2000 रूपये के 17,929 और 500 रूपये के 9892 नक़ली नोट पकडे गए, जो वर्ष 2016-17 की तुलना में काफी अधिक थे. ज़ाहिर है, जब इतनी बड़ी संख्या में नकली नोट पकडे गए हैं तो प्रचलन में भी अवश्य ही होंगे. लिहाज़ा यह कहा जा सकता है कि सरकार का नोटबंदी का क़दम नक़ली नोटों पर लगाम कसने में नाकाम रहा.

आतंकवाद पर हमला भी नोटबंदी का एक मकसद था. यह कहा गया था कि नक़ली नोटों से आतंकवाद को फंडिंग होती है, इसलिए नोटबंदी के बाद आतंकवाद की कमर टूट जायेगी. लेकिन विडम्बना देखिये कि नोटबंदी के कुछ  दिनों बाद ही कश्मीर में दो आतंकवादी मारे गए थे, जिनके कब्ज़े से 2000 के नए नोट बरामद हुए थे. उसी तरह टीवी चैनलों पर जोरशोर से यह ऐलान किया गया कि नोटबंदी की वजह से कश्मीर में पत्थरबाज़ी की घटनाओं में कमी आ गई है. लेकिन हकीकत यह है कि कश्मीर में पत्थरबाज़ी की घटनाएं आज भी जारी हैं. यहां यह देखना ज़रूरी है कि जब पुराने नक़ली नोट आतंकवाद के काम आ रहे थे तो नये नक़ली नोट भी काम आ रहे होंगे. यानि यहां भी हमने जहां से शुरुआत की थी आज भी वहीं खड़े हैं.

दरअसल, यह पूरी क़वायद शुरुआत से ही विवादों के घेरे में रही. 8 नवम्बर 2016 को प्रधानमंत्री ने दूरदर्शन पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में यह घोषणा की थी. उस प्रसारण को लाइव (सीधा प्रसारण) बताया गया था, लेकिन बाद में दूरर्दशन से ही जुड़े एक पत्रकार ने यह दावा किया कि यह प्रसारण रिकॉर्डेड थी. बहरहाल उस घोषणा के बाद बैंकों के सामने जिस तरह के नज़ारे देखने को मिले, उसकी मिसाल इतिहास में कभी कभी ही नज़र आती है. लोगों को दिन-दिन भर लइनों में खड़ा होना पड़ा, जिसकी वजह से कई लोगों की मौत भी हुई, छोटे व्यापार और उद्योग बुरी तरह से प्रभावित हुए, अनियोजित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोग बेरोजगार हो गए. हालांकि सरकार को यह बहुत जल्द अंदाज़ा हो गया था कि जिस मकसद के लिए नोटबंदी लागू की गई है, वह मकसद पूरा नहीं होगा. इसके बावजूद सरकार ने अपने क़दम वापस नहीं खींचे और अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान को जारी रहने दिया.

अब जबकि यह जगज़ाहिर हो गया है कि नोटबंदी हर तरह से नाकाम हो गई है, तो ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती थी कि सरकार अपनी गलती मान ले. लेकिन जिस तरह से उसे लागू करते समय जायज़ ठहराने के लिए तरह-तरह की दलीलें दी गईं, वैसी ही दलीलें आज भी दी जा रही हैं. आरबीआई द्वारा नोटबंदी के आंकड़े जारी करने के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली यह बयान देते हुए नज़र आए कि कैश में रखे गए पैसों को अमान्य करना ही नोटबंदी का एक मात्र मकसद नहीं था, बल्कि कैश मालिकों का पता लगाना भी नोटबंदी का मकसद था, ताकि भारत को एक टैक्स न देने वाले समाज से टैक्स अदा करने वाले समाज में बदला जा सके. ़लेकिन, देश के आम लोगों और अर्थव्यवस्था को इस क़दम की वजह से जो नुकसान हुआ है, उसे देखते हुए प्रधानमंत्री को अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए.

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