पिछले हफ्ते के मेरे लेख पर संतोष भारतीय जी का फोन आया। सुखद आश्चर्य हुआ, इसलिए नहीं कि उन्होंने कोई प्रतिक्रिया दी हो बल्कि इसलिए कि उन्होंने मुझसे पूछा कि हमें आखिर क्या करना चाहिए आपके हिसाब से। संतोष भारतीय एक बेहद जाना माना नाम हैं। दिग्गज पत्रकार रहे हैं संतोष जी। अस्सी के दशक के बड़े अखबार ‘चौथी दुनिया’ को कौन नहीं जानता। ऐसा बड़ा पत्रकार यदि मुझ नाचीज से इस प्रकार का प्रश्न करे तब आश्चर्य होना स्वाभाविक है। शायद इसलिए भी कि मैंने रवीश कुमार को केंद्र में रख कर बाकी डिजिटल प्लेटफार्म हो रही चर्चाओं और बहसों की जम कर आलोचना की थी।

मुझे न चर्चाओं से कोई परहेज है न विभिन्न विषयों पर होने वाली बहसों से। मैं सिर्फ आज के नाजुक वक्त की दुहाई देते हुए प्रश्न करता हूं। यह सच है कि मोदी सरकार से चाहे अनचाहे एक अच्छा काम हुआ है कि जब से यह सरकार वजूद में आयी है तब से जितनी बहसों के केंद्र में मोदी, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, सरकार का एजेंडा, नीतियां आदि रही हैं उनसे एक फिजां बनी है। और बराबर यह सरकार टारगेट पर रही है। लेकिन बावजूद इसके मोदी चुनाव जीत रहे हैं। देश का एक विशाल तबका मोदी से मोह भंग की स्थिति में अभी नहीं आया है। तब ऐसे में हम वैसी ही बहसों में कब तक उलझे रहेंगे।

संतोष भारतीय जी के जवाब के मुतल्लिक दो बातें। संतोष जी ने पिछले रविवार को अभय कुमार दुबे से जो बातचीत की उसमें सब कुछ अभय जी ने विस्तार से समझा दिया। उन्होंने आज के गम्भीर समय और संकट में डा. राम मनोहर लोहिया के ‘गैर कांग्रेसवाद’ की तर्ज पर ‘गैर भाजपावाद’ की जरूरत पर बल दिया। अभय जी ने बहुसंख्यकवाद को बखूबी परिभाषित किया (आज के दै.भास्कर में शशि थरूर का लेख भी कमोबेश इसी पर है)। और तीसरा, बुद्धिजीवियों की भूमिकाओं पर भी उन्होंने बड़ी पते की बात कही। वे कहते हैं कि मैं भी पहले यह सोचता था कि बुद्धिजीवियों की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है पर मैं गलत साबित हुआ। यह वर्ग निस्तेज है इस सरकार के सामने।

और बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग ‘शिफ्ट’ भी हुआ है मोदी की तरफ। उन्होंने चेताया कि यदि मोदी ने एक लोकसभा का चुनाव और जीत लिया तो समझ लीजिए ये वर्ग कहीं का नहीं रह जाएगा। यहां प्रसंगवश शायर मुन्नवर राणा का उदाहरण भी दिया जाना चाहिए। उन्होंने ‘सत्य हिंदी’ के विजय विद्रोही को इंटरव्यू देते हुए व्यक्ति नरेंद्र मोदी की जिस अंदाज में तारीफ की उस पर से भी आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं और यह प्रसंग अभय दुबे की बात को ही दोहराता है। अभय दुबे विपक्ष पर भी जमकर बोले। दरअसल ये वास्तविक चिंताएं हैं। संतोष जी के प्रश्न के कई जवाब यह इंटरव्यू स्वयं देता है।

अब रही बात कि क्या किया जाना चाहिए। यही संतोष जी ने पूछा था। मैंने पहले कई बार इस ओर चिंता व्यक्त की है कि मोदी जिस अपने खास वर्ग को लेकर निश्चिंत रहते हैं वहां तक कौन पहुंच रहा है। क्या हमारे प्रबुद्ध वर्ग की बहसें, उनका चिंतन, उनके मशविरे, उनकी सीखें ? सच पूछिए तो मेरी नजर में दिल्ली और मुंबई में बैठा यह प्रबुद्ध वर्ग भारी गफलत में है। मैंने संतोष जी को भी फोन पर यही बताया कि ये लोग स्वयं दिल्ली छोड़ देश के गांव देहातों का दौरा क्यों नहीं करते। योगेन्द्र यादव जी के स्वराज इंडिया के साथी, अरविंद केजरीवाल की छोटे इलाकों की फौज, कांग्रेस के सेवादल के लोग ये सब कब काम आएंगे।

विपक्ष खासतौर से कांग्रेस, अखिलेश, मायावती, केजरीवाल, ममता इन सबसे हमारे बुद्धिजीवी क्यों नहीं संवाद करते। भाजपा दक्षिण भारत में पैर पसारने की निरंतर कोशिश में है। क्यों हमने विपक्षी दलों को उनके हाल पर छोड़ कर उनकी आलोचना करते रहने या उन्हें कोसते रहने भर का ठेका ले लिया है। क्यों नहीं जय प्रकाश नारायण की भूमिका के रूप में कोई चिंगारी कहीं नजर आती।और न ही गैर भाजपावाद की अवधारणा की कोई पृष्ठभूमि कहीं बनती नजर आ रही है। जब तक देश के चिंतकों और आंदोलनों के शीर्ष नेतृत्व और विपक्षी दलों (विशेषकर वामपंथी दलों) का जमावड़ा एक साथ नहीं होता तब तक प्रश्न अनुत्तरित ही रहेगा। किसी को तो पहल करनी होगी।कल ही देखा गया। देश का किसान सड़कों पर है और हमारे विपक्ष के चुनिंदा नेता ट्विटर पर।

हम नहीं कहते कि जो बहसें हम डिजिटल प्लेटफार्म पर सुनते हैं वे निरर्थक हैं। उनमें से ज्यादा रोचक, ज्ञानवर्धक और प्रासंगिक होती हैं। प्रश्न केवल मौजूदा समय की नाजुकता को लेकर है। ये बौद्धिक विमर्श केवल बौद्धिक मध्यम वर्ग तक सीमित हैं। यह भी भारी गफलत है कि वोटर या मतदाता समझदार हुआ है। मोदी की सफलता इस मायने में जबरदस्त है कि उन्होंने और उनकी सरकार और उनके पिट्ठुओं ने देश में हर मुद्दे को लेकर गफलत पैदा की है। पारदर्शिता नाम की चीज बड़ी चतुराई से गायब कर दी गई है। द्वंद्व ही द्वंद्व और हर मुद्दे पर धुंध ही धुंध है। यह सब नियोजित तरीके से किया गया है। संतोष जी इन बातों से कितने संतुष्ट होंगे, कह नहीं सकता। लेकिन उनके संपर्क में जितने लोग हैं वे निश्चित रूप से कुछ ठोस पहल करने का माद्दा तो रखते ही हैं। खासतौर से समाजवादी, लोहियावादी।

अब कुछ वे कार्यक्रम जो इस हफ्ते बहुत पसंद आये। वन आलोक जोशी के कार्यक्रम। ‘किस्सा किताबों का’ कार्यक्रम बहुत पसंद आया। ‘प्रतिमान’, ‘रवि कथा’, युद्ध भूमि पर धर्मवीर भारती और अलका सरावगी का ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’। इन पुस्तकों पर आलोक जी की प्रस्तुति राजनीति से हटकर अच्छी लगी। अपूर्वानंद के दो लेख ‘सत्य हिंदी’ में पढ़ने को मिले। लेकिन वायर पर अपूर्वानंद ने ‘लव जिहाद’ पर जो अपना विश्लेषण पेश किया वह भी सुनने लायक रहा। इसी तरह आरफा खानम शेरवानी ने लव जिहाद पर तीन महिलाओं से गजब की बातचीत प्रस्तुत की। धाकड़ महिलाओं की धाकड़ बातें। संतोष भारतीय की वेद प्रताप वैदिक से बातचीत भी दिलचस्प थी बावजूद इस समझ के कि वे ‘मैं’ के भूत से कभी नहीं निकलते। पर अच्छा लगा उन्हें सुनना। उनके मुंह से ईमानदारी से प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर की भूरि भूरि लेकिन सच, प्रशंसा अच्छी लगी। दिन भर की पूर्णाहुति रवीश कुमार के प्राइम टाइम से होती है।

बसंत पांडे

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