यूट्यूब एक बाजार हो गया है। एक विस्तृत बाजार। इस पार और उस पार के चैनलों का बाजार। इसकी होड़ में किस तरह चैनलों के दुकानदार बेवजह कट्टर और अंधे होते जा रहे हैं उन्हें खुद ही नहीं पता चलता। उनकी इस होड़ में सबसे ज्यादा जो ठगा जा रहा है वह है दर्शक। इस बाजार में क्या देखें क्या न देखें।‌ यह तो एक बात है पर जो भी देखें उससे मिलेगा क्या ? राहुल देव और विजय त्रिवेदी बात करते हुए कहते हैं कि चैनलों पर बैठने वाले पत्रकारों ने तो फील्ड में जाना ही छोड़ दिया है। रोजाना आकर प्रवचन देने का काम करने लग जाते हैं। कितना सही है। मेरे पड़ोसी ने कहा, सर आप रोजाना एक से ही भाषण सुनते रहते हो । उसका कहना भी सही है। मुझे तो अब यकीनन लगने लगा है जैसे मैं दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में एक विषय पर एक से ही लोगों के अलग अलग भाषण सुन रहा हूं। कहीं कोई प्रतिरोध का स्वर है ही नहीं। चाहे इस सत्ता के समर्थन में हो या विरोध में। फिर इन कार्यक्रमों के वीडियो पर लिखे शीर्षकों को पढ़िए। इनके शीर्षकों में और गोदी मीडिया के शीर्षकों में आपको कोई अंतर नहीं मिलेगा। वह चाहे अजीत अंजुम के वीडियो हों, पुण्य प्रसून वाजपेई के हों, दीपक शर्मा के हों, अशोक वानखेडे के हों या 4पीएम जैसों या और भी ऐसे लोगों के हों । ये शीर्षक भ्रामक भी होते हैं और डरावने भी। इस बाजार की और गहराई में जाएं तो और भयावहता मिलेगी।
समझ नहीं आता कि ये लोग एक व्यक्ति से सबक क्यों नहीं लेते। रवीश कुमार की तारीफ करना बहुत मकसद नहीं पर यह बताना जरूरी है कि इस व्यक्ति ने पहले दिन से जो साख निर्मित की है और आज ndtv छोड़ने के बाद भी यूट्यूब पर अपने दर्शकों की पकड़ शालीनता से बनाए हुए है तो आखिर कुछ तो बात होगी उसमें। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो शख्स इतना प्रसिद्ध हो चुका है वह बरक्स चैनलों के एंकर सहित चार पांच छः मूढ़ जैसे दिखने वाले ( सभी की बात नहीं) पत्रकारों से कहीं तो बेहतर है। मैं रोज शाम को यूट्यूब खोल कर बैठता हूं सबसे ऊपर रवीश का वीडियो होता है तो बाकी सबको भूल जाता हूं। स्वाभाविक है कि हर रोज एक सी कशिश नहीं भी होती लेकिन कईयों से फिर भी बेहतर दिखता है। अगर रवीश आपको खींच सकता है तो बाकी क्यों ऊब पैदा करते हैं। हमें मालूम है कि आज की सत्ता क्या है। सबको मालूम है फिर उस पर रुदन क्यों करना है। विषयों से संबंधित कोई नयी और अलग एंगल से की गई रिपोर्टिंग, कोई नये तथ्य, कुछ ऐसी जानकारियां जो हम नहीं जानते सामने हों तो ज्ञानवर्धन हो और आकर्षण पैदा हो। आखिरकार हर ‘प्रबुद्ध’ श्रोता या दर्शक बाद में यही सोचता है कि इससे मुझे ‘मिला क्या’। उन लोगों की बात जाने दीजिए जो फूहड़ हैं और मोदी का विरोध सिर्फ इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें करना ही है। वहीं आपको ‘लाइक’ भी दे रहे हैं और आपको देखने वालों की संख्या भी बढ़ा रहे हैं। कोई प्रबुद्ध कभी ‘लाइक’ का बटन नहीं दबाता।
यूट्यूब के डिजिटल चैनलों में बड़ी तेजी से ‘सत्य हिंदी’ ने अपनी जगह बनाई थी। इसका श्रेय निश्चित रूप से आशुतोष की सोच और लगन को जाना चाहिए। हालांकि शुरुआत चार पांच लोगों ने मिल कर की थी। सत्य हिंदी शायद ‘द वायर’ के बाद आया था। लेकिन पहचान ज्यादा बना गया। जितना इसका विस्तार हुआ उससे आशुतोष के दोस्तों और उसकी प्रसिद्धि का दायरा तो बढ़ा लेकिन धीरे धीरे उसके सैट किये कार्यक्रम स्टीरियो टाइप होने लगे जो आज भी हैं। जबकि वायर की जो पकड़ पहले थी वही आज भी है। वायर की रिपोर्टिंग ऊब पैदा नहीं करतीं। सत्य हिंदी पर रिपोर्टिंग जैसी कोई चीज है ही नहीं। रोज शाम को चार बजे से रात दस बजे तक जो कुछ आप देखते हैं ज्यादातर सब ऊब पैदा करने वाला ही होता है। तो यहां अच्छा और रोचक क्या है। सुबह अखबारों की खबरें, इंटरव्यू, किताबों पर लेखक से बातचीत, सवाल जवाब का कार्यक्रम, रविवार को सिनेमा संवाद, स्वाद का सफर , ताना बाना और बुलेटिन। बिना लागलपेट के एक बात और कि सत्य हिंदी पर जितना आलोक जोशी की टिप्पणियां प्रभावित करतीं हैं और मुझे ही नहीं बहुतों को, उसका जवाब नहीं है। मुकेश कुमार बहुत गम्भीर हैं। चाहते भी हैं गम्भीर चर्चा लेकिन उनके मेहमानों का दायरा बहुत अधिक सीमित है। सत्यपाल मलिक से इंटरव्यू लेते हैं तो वह सन्नाटे का इंटरव्यू लगता है। सोचिए क्यों। शीतल जी हमेशा गम्भीर टिप्पणियों के लिए पसंद किये जाते हैं पर इन दिनों वे भी कई बार उबाऊ हो जाते हैं। गुस्से में भी आ जाते हैं।
समझ नहीं आता कि ‘न्यूज लॉण्ड्री’ उतना पॉपुलर क्यों नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। उसके कई कार्यक्रम रोचक हैं खासतौर पर अतुल चौरसिया का ‘टिप्पणी’ और मनीषा पांडे का ‘न्यूजसेंस’ । मनीषा को अपना कार्यक्रम हिंदी में देना चाहिए उससे लोकप्रियता का दायरा और बढ़ेगा । अगर आप गोदी चैनल नहीं देखते तो इस कार्यक्रम में उसे मजेदार तरीके से देख सकते हैं। ‘न्यूज क्लिक’ शुरु में अच्छा चला था बाद में सत्य हिंदी की तरह ही स्टीरीयो टाइप हो गया। और भी कई हैं। लेकिन आखिर सवाल यही है कि ये सब सत्ता के खिलाफ होते हुए भी उस सत्ता का कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पा रहे जो निर्लज्जता से आगे बढ़ रही है। बिगाड़ से यहां अर्थ जनता में संदेश, हलचल और आंदोलित करने जैसा कुछ है। एक तालाब जैसी शांति है चारों तरफ। कल संतोष भारतीय ने इसी तरफ इशारा किया। ऐसा लगता है जिस तरह डिजिटल चैनलों की चर्चाएं उबाऊ हो गयी हैं वैसे ही सुनने वाले भी जिंदा लाश सरीखे हो गये हैं। सड़कें इतनी सुनसान कभी नहीं रहीं। न कोई इंदिरा है और न कोई उसके बरक्स लोहिया और जेपी है। मोदी ने किसी को सड़क पर टक्कर लेने लायक छोड़ा ही नहीं। किससे क्या उम्मीद करें सिविल सोसायटीज पर कल चर्चा हुई ही है। अब उम्मीद बस जनता से है। जनता में भी कोई आग तो नहीं दिखती लेकिन मोदी को डर भी उसी से लगता है। अब तो उन्हें सबसे ज्यादा डर ‘इंडिया’ से लग रहा है।

(क्रमशः)

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