हम ने ख़ुद अपने-आप ज़माने की सैर की
हम ने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त
– ख़लील-उर-रहमान आज़मी


पधारो सा के शिष्टाचार का मिज़ाज लिए इस पड़ोसी राज्य की सीमा रेखा हमारे शहर से ही
पांच सौ किमी से ज्यादा की दूरी पर थी। सहोदर भाई बहनों के चार परिवारों ने अपनी आंखों में राजस्थान के पांच छः धन्यनाम नगरों की धरती पर पांव रखने का ख़्वाब पाल रखा था।उतरती जुलाई में अब वह दिन नज़दीक था जब हम सबको उज्जैन के लिए जाने वाली ट्रेन में अपने झोलों को रखना था।यही असबाब शाम को वीरभूमि एक्सप्रेस में पहुंचता ।मगर एक इत्तिला दो दिन पहले से सभी की उमंग में कंकर बन चुभ रही थी।वह यह कि परिवार के एक सदस्य को ज़ुकाम ओ बुखार ने पकड़ लिया था सो बाकी तीन परिवारों के उत्साह का झूला बार बार नीचे आ ही नहीं रहा था,रुक भी रहा था।वह सदस्य कौन था ज़ाहिर है वह था मैं। मैं यानि जो इन पंक्तियों को आपके लिए लिखे जा रहा है।

सब लोग यह स्पष्ट सुनने के लिए बेचैन थे कि ये सफ़र होगा भी कि नहीं।अब कैसे मैं ये इल्ज़ाम अपने ऊपर लेता ।इसलिए ताज़ा हवा ग्रहण करके एंटीबायोटिक दवा के सहारे आगे बढ़ता ही रहा।जब भी हमारे छोटे बहनोई कुंजेश जी हाल पूछते हम हाल बेहाल बताते हुए भी यही कहते कि ज़रूर चलेंगे। बिटिया प्रतिष्ठा और अतुल जी चौंक से जाते कि पापा ऐसी अवस्था में कैसे यात्रा रस लेंगे।सच में मौसमी अस्वास्थ्य को बस हौसला ही हरा रहा था।सावन बरस रहा था। समाचारों में तो यह ज्यादा ही रौबदार था फिर हमें फतेहसागर झील की झलकियां देखने उदयपुर भी जाना था। अरावली पर्वतमाला के कौतुक निहारने की ललक लिए हम एक दर्जन पुष्पज अब दूसरी चिंताओं से मुक्त थे। चिंता तो सभी को बस एक ही थी कि बस ब्रज श्रीवास्तव स्वस्थ हो जाएं और इतने स्वस्थ हो जाएं कि पैदल टहल भी कर सकें। होटलों कि तंदूरी रोटी खा सकें। रास्ते में गाने गा सकें और तस्वीरें लेते हुए सभी बिखरे सैलानियों को सीटी बजाकर इकट्ठा कर सकें।दरअसल हम भाई-बहन और उनके बच्चे मिलकर साल में एक बार लंबी दूरी की यात्रा पर निकलते हैं।इन यात्राओं का व्यवस्थापक अक्सर मैं ही रहा करता हूं। मुझे कमजोरी थी। फिर भी मैंने कहा कि यदि तबियत बिगड़ी तो स्टेशन या भोपाल या उज्जैन से वापस आ जाएंगे।

26 जुलाई 23- निकल पड़े सैलानी

खुशनुमा मौसम के साये में 26 जुलाई को रीवा इंदौर एक्सप्रेस में हम लोग बैठ ही गये। बैरागढ़ (जिसे हिरदाराम नगर कहा जाने लगा है)से कविता, कुंजेश जी एवं तनु भी आ गये। मैं तबियत के वजह से अन्यमनस्क सा ही रहा।एक बार फिर मैंने मुक्ता से कहा कि हम लोग लौट लें।सभी उदास हो गये।थोड़ी देर बाद फिर मैंने आगे बढ़ते जाने का कहा। उज्जैन में कुंजेश जी ने स्टेशन के पास चंद्रगुप्त होटल में एक दस बेड का कमरा बुक कर दिया था। वहां तरो-ताजा होकर मुझे आराम के लिए छोड़ कर सभी लोग महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शनार्थ चले गए। मम्मी का चिंता भरा फोन आता रहा। प्रिया भी चिंतित रही कि ऐसी स्थिति में मैं कैसे घूमूंगा फिरूंगा। लेकिन अब लौटना ठीक नहीं था। उज्जैन स्टेशन पर तृप्ति की दीदी नीति मिलने आईं और स्वादिष्ट नमकीन भी लाईं।शाम साढ़े सात बजे वीरभूमि एक्सप्रेस में हम लोगों ने अपनी बर्थ पर चादरें बिछाईं। विवेक- तृप्ति सहित सभी ने अंताक्षरी खेली। घर से लाईं पूड़ियां साझा कीं।अनुज वधू तृप्ति के टिफिन में आईं दो रोटी मुझे दी गईं। जबकि मुझे रेल में पूड़ी खाना पसंद है इसलिए मैंने अशोक जीजाजी द्वारा दी गई पूड़ी भी चुपके से ले लीं।

27 जुलाई.2023

हसीं है शहर तो उजलत में क्यूँ गुज़र जाएँ
जुनून-ए-शौक़ उसे भी निहाल कर जाएँ
-दिल अय्यूबी

उठ जाग मुसाफिर भोर भई ऐसा लगा किसी ने कान में कहा।यह भोर उदयपुर की थी और हम लोग एक होटल में पहुंचे जो पसंद नहीं आई। फिर होम स्टे की ओर गये वहां बहुत अच्छा अनुभव हो रहा था।यह घर विभिन्न किस्म की चिड़ियों की चहचहाहट से गूंज रहा था। बाहर खूब हरीतिमा थी। कमरों में सभी सुविधाएं थीं। इसे एक सेवानिवृत्त पर्यटन अधिकारी संचालित करते हैं। उनके घनी सफेद मूंछें कान तक जातीं थीं।सौम्य वार्तालाप दोनों ओर से होती रही। तैयार होकर हम लोगों ने सबसे पहले करणी माता मंदिर की ओर कूच किया।इस मंदिर में हमें रोप वे का आनंद मिला। लौटते समय ऊपर ही बने सुंदर शो रूम नुमा दुकानों में हमने एक मसाज कुर्सी पर बैठ कर मालिश का आनंद लिया। इस बार यात्रा के खर्च के प्रभारी भान्जे देवांश रहे। उन्होंने प्रशंसा,प्रिंसी,रानू के साथ वीडियो गेम खेले। नीचे आकर अगले स्थान पर जब पहुंचे तो बहन कल्पना ने बताया कि उनका मोबाइल फोन खो गया है। कविता और मुक्ता ने उपस्थित लोगों से सामान्य पड़ताल की। ऐसा लगा कि होम स्टे में ही छूट गया तो अशोक जीजाजी और मैंने घर आकर उसे पा लिया।यह एक तसल्ली थी।इस बीच हम दोनों को छोड़कर सभी ने सिटी पैलेस घूम लिया था।फिर हम सभी साथ साथ अगले गंतव्यों तक गये।

सज्जनगढ़ एवं बाहुबली हिल के साथ साथ फतेहसागर झील देखना अलग ही अनुभव रहा। रास्ते में भुट्टे खाए।इसके बाद एक्वेरियम घूमा। साफ सुथरी सड़कों की टीवी में देखी विदेश की सड़कों से तुलना मन ही मन हो रही थी। इसके बाद हम लोगों ने सहेलियों की बाड़ी देखी। गाइड ने बहुत रोचक तरीके से उसके बारे में बताया।सावन भादों,बाबड़ी और किसिम किसिम के पेड़ पौधों ने सच में मन को चकित किया।

इस उद्यान के सुन्दर कमल के ताल ने बहुत ध्यान खींचा।साथ ही संगमरमर के मंडप और हाथी के आकार के फव्वारे ने भी आकर्षित किया। गाइड ने बताया कि यह बगीचा
फतेहसागर झील के निकट स्थित है जिसका निर्माण राजकीय महिलाओं के लिए १७१० से १७३४ ईस्वी में महाराणा संग्राम सिंह ने करवाया था। यह भी कि इस उद्यान की संरचना खुद महाराणा सांगा ने तैयार की थी और फिर अपनी महारानी को दिया था। यह उद्यान राजकीय महिलाओं के लिए काफी अच्छा और सुंदर रहा।सात रानियां अड़तालीस सहेलियों के साथ वहां आमोद प्रमोद करतीं थीं।

इसके बाद हम लोगों ने फिर एक एक समोसा खाया और अब चल पड़े लोक कला मंडल जहां जिला उदयपुर के प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष, रंगकर्मी डा. लईक ने हमें लोकनृत्य और कठपुतली नृत्य का शो दिखाया ।हमने संदर्भित बातें कहीं। वहीं पर सुकवि किशन दाधीच आ गये थे। दरअसल किशन दाधीच जी ने ही हमें लोक कला मंडल जाने का मशविरा दिया था। उन्होंने तो मेरे लिए एक गोष्ठी का भी सोचा मगर समयाभाव था।इन मुलाक़ातों के सेतु जयपुर में रह रहे फारूक आफरीदी थे।वह फ़ोन पर लगातार हमारा हाल पूछकर यथासंभव सहयोग भी कर रहे थे। भोजन उपरांत अगले दिन माउंट आबू की यात्रा की योजना बना कर हम बिस्तरों पर चले गए।

28 जुलाई -बादलों के बीच रहने का दिन।

 

टेम्पो ट्रेवलर बारह सदस्यों के लिए एक मुनासिब वाहन था जिसमें बैठकर हम लोग उदयपुर से माउंट आबू के रास्तों के मनोरम पहाड़ी दृश्य देखते हुए चलते गये। रवीन्द्र जैन का गीत हुस्न पहाड़ों का गुनगुनाया। भवेश दिलशाद का शेर भी याद आया

पर्वत चढ़ो दरिया छुओ या फिर करो जंगल की सैर
तोड़ो थकन ये जिस्म की कैसी घुटन में क़ैद हो

वैसे पूरे रास्ते भर हम सभी लोगों ने खूब गाने गाए वीडियो बनाए। माउंट आबू में देलावाड़ी मंदिर की नक्काशी का नयनसुख लेने के बाद गुरूशिखर के लिए चल पड़े। बहुत ऊंचाई पर है यह राजस्थान का एवरेस्ट कहा जाता है इसे। दत्तात्रेय का मंदिर है। बादल बिल्कुल बगल से गुजर रहे थे। रोमांचक अनुभव था। बारिश हो रही थी।डर भी लग रहा था कि कहीं तेज बारिश न हो जाए। मगर किसी तरह लौट आए। प्रजापिता ब्रह्माकुमारी संस्था का एक हाल देखा। फिर गये नक्की झील के किनारे किनारे। कुंजेश जी के एक परिचित के सौजन्य से मुफ्त नौका विहार किया। प्रशंसा और मुक्ता ने मेरी कुछ तस्वीरें लीं।
और वापिस की यात्रा भजन गीत राहभोजन के साथ नाथद्वारा में समाप्त हुई।

29 जुलाई – भक्ति और इतिहास के बीच

जैसा सोचा था नाथद्वारा शहर उससे भी ज्यादा सुंदर दिखाई दिया । सुबह देखा कि मंदिर में भीड़ बहुत थी। किसी तरह श्रीनाथ जी की प्रतिमा के दर्शन सभी ने किए। फिर एक टैंपो ट्रैवलर किराए से लेकर हम लोग हल्दी घाटी गये।इस स्थान पर पहुंच कर बहुत मन दुखी सा हुआ।गर्व गौरव एक अलग सोच है। मुझे दुख इस बात का था कि ज़मीन और अहंकार के लिए ये युद्ध कितने हिंसक होते थे। तस्वीर लेते समय भी एक ग्लानि थी। महाराणा प्रताप ने भील जनजाति के साथ मिलकर अकबर की सेना से मुकाबला किया था। आगे बढ़े तो मेवाड़ राज्य के इष्ट रहे शिव मंदिर एकलिंग जी का मंदिर भव्य था जो कैलाश पुरी में है।वहां हम लोगों ने मिर्च के भजिए भी खाए।इसके बाद सांवलिया सेठ गये।इस मंदिर की भव्यता पर मैं चकित हुआ।यह शायद इसलिए था कि कृष्ण यहां सेठ के रूप में थे तो यहां व्यापारी लोग ज्यादा दान देते होंगे। इसके बाद हम लोग चित्तौड़गढ़ पहुंचे। हमें वहां के मित्र अनिल सक्सेना के सौजन्य से सर्किट हाउस में सुंदर और सुविधा जनक कमरे मिल गये थे।

30 जुलाई 2023
।।गढ़ में हैं चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढ़ैया।।
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शहर खोदा तो तवारीख़ के टुकड़े निकले
ढेरों पथराए हुए वक़्त के सफ़्हों को उलट कर देखा
-गुलज़ार

आटो में बैठकर जब चित्तौड़गढ़ किले की चढ़ाई चढ़ रहे थे तो बड़े बड़े दरवाजे बीच में आ रहे थे।आटो चालक ने इस कहावत में हमारे भोपाल का ज़िक्र किया। गढ़ में है चित्तौड़गढ़ बाकी सब गढ़ैया।रानी थी पद्मावती और सब रनैयां।ताल है भोपाल का और सब तलैया। मुझे हंसी आई इस कविता पर।
सबसे पहले हमने मीराबाई का मंदिर देखा एक कवयित्री से संबंधित स्थान होने के कारण मुझे थोड़ा अपनापन सा लगा। गुलज़ार की फिल्म मीरा की हेमा-मालिनी की छवि भी स्मृति में आई। गाइड भी अवैज्ञानिक बात बता रहा था कि मीरा कृष्ण की मूर्ति में समा गई थी।इसके बाद विजय स्तंभ और उसके ही समीप के स्थान देखे।बड़ी झील थी इसी के आसपास गाइड के गीत आज फिर जीने की तमन्ना की शूटिंग हुई थी। मैंने भी वही गीत उसी जगह पर गुनगुनाया ।इसे कुंजेश जी ने कैमरे में कैद किया।ऊपर जौहर का स्थान था।उस स्थान को देखकर मन फिर दुखी हुआ। इसके बाद पद्मिनी महल का वह हिस्सा देखा जहां अलाउद्दीन खिलजी ने उसके सौन्दर्य को जलाशय में प्रतिबिंबित देखने की हठ पूरी की थी।जैन मंदिर और कीर्ति मंदिर को लखने के बाद सूरज पोल देखा।पूरे दिन हम मेवाड़ के राजा रानियों के प्रसंगों को सुनकर उनके विचारों में खोये रहे। यहां फिर भी लगा कि पुरातत्व विभाग ने संरक्षण ठीक से नहीं किया।कोई भी स्थान साफ सुथरा नहीं था। पद्मावती फिल्म की शूटिंग भी यहां हुई होगी ।बच्चों ने यहां अच्छी तस्वीरें लीं और वीडियो बनाए।समय इतना ही था।इस गढ़ को घूमने के लिए हमें एक दिन और मिलता तो ठीक रहता लेकिन वापसी की ट्रेन का समय हो रहा था। एक होटल पर कठियावाड़ी भोजन की तलाश को पूरा करने बैठे मगर असंतुष्ट होते हुए उठे। रात में हम लोगों ने अपनी छुक छुक गाड़ी पकड़ी और लौटकर ब्रज जी घर को आए। इति यात्रा:।जुलाई की आखिरी तारीख को हम लोग घर का खाना खा रहे थे।

गुलाम मुर्तजा राही का शेर याद आया।

चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ

ब्रज श्रीवास्तव

(४ अगस्त को यह लेख पूर्ण किया)

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