जीवन की ऐसी रचना कैसे चलेगी और क्यों चलने दी जाएगी, जिसमें परिवार में स्त्री को, उत्पादन में श्रमिक को, समाज में हरिजन को विवशता का जीवन बिताना पड़े? गांव के पुनर्निर्माण का अर्थ है नए संबंधों, नए साधनों और नए संगठनों का विकास-एक नई जीवन पद्धति का विकास. इस दिशा में गांवों के पुनर्निर्माण के अभियान का शुभारम्भ करना है. इस अभियान को राष्ट्र के पुनर्निर्माण के देशव्यापी आंदोलन के बुनियादी अंग के रूप में चलाना पड़ेगा तभी इसमें गति आएगी और इसकी दिशा स्पष्ट होगी.
बुनियादी समस्याओं के हल न होने तथा राष्ट्र को सही दिशा न मिलने के कारण अपने विविध रूपों में हिंसा समाज के जीवन को घेरती जा रही है. ऐसा लगता है जैसे किसी समस्या का शांतिपूर्ण समाधान न समाज के पास है रह गया है, न सरकार के पास. जबकि सच्चाई यह है कि स्थाई समाधान शांति की ही शक्ति से संभव है. बढ़ती हुई सामाजिक हिंसा के कारण राज्य की हिंसा को शांति सुरक्षा और विभिन्न हितों की रक्षा के नाम में, व्यापक और नृशंस दमन का औचित्य और अवसर मिल जाता है. ऐसी स्थिति में आतंकित जनता का मनोबल टूटता है और वह राज्य सत्ता की नृशंसता को स्वीकार कर लेती है. इस स्थिति को तत्काल रोकना चाहिए, अन्यथा देश को अराजकता और निरकुंश शासन की चपेट में पड़ने से बचाना अत्यंत कठिन हो जाएगा.
ये लक्ष्य कैसे सधेंगे? ये तभी सधेंगे, जब केंद्रीय राज्य सत्ता के बढ़ते फौलादी पंजे रुकेंगे, जब राष्ट्र के पुनिर्माण का एक देशव्यापी, लोकशक्ति आधारित आंदोलन होगा. राष्ट्र के विकास में राज्य निर्माण का पर्व समाप्त हो चुका है, अब राष्ट्र निर्माण का नया पर्व प्रारम्भ होना चाहिए. राष्ट्र निर्माण में राज्य-सत्ता का कुछ क्षेत्रों में मुख्य स्थान होगा, लेकिन जहां तक दैनन्दिन जन जीवन का संबंध है, उसका रोल पूरक ही होना चाहिए, आज की तरह जनता के सीने पर सवार रहने का नहीं. राष्ट्र की शक्ति क्षीण होती जाये तो राज्य-सत्ता का भी दिनों दिन क्षय और पतन होना अनिवार्य है. आज हम राष्ट्र और राज्य दोनों की शक्ति का क्षय होते देख रहे हैं. इससे बड़ा संकट दूसरा क्या होगा? राष्ट्र का पुनर्निर्माण एक लंबी प्रक्रिया है. एक-एक सीढ़ी ऊपर उठने की आरोहण की. इसके लिए, जैसा गांधी जी ने कहा था, गांव-गांव और नगर-नगर में बसी हुई जनता को संगठित होकर स्वराज्य के अपने जन्मसिद्ध अधिकार की घोषणा करनी पड़ेगी और उसका प्रयोग शुरू करना पड़ेगा. यह करके ही जनता अपने दैनन्दिन जीवन में राज्य-सत्ता के अनुचित हस्तक्षेप पर रोक लगा सकती है. राज्य-सत्ता को सीमित करने का लक्ष्य दूर की बात नहीं है, बल्कि पहले कदम में करने की चीज है. यदि हम राज्य-सत्ता के विष भरे प्रवाह से बचना चाहते हैं तो गांव और नगर में स्वायत्तता की ठोस दीवार खड़ी करना जरूरी है. इसी दृष्टि से हमारा आग्रह है कि सत्ता विकेंद्रित हो और जनता को सौंपी जाय. ताकि वह लोकतांत्रिक पद्धति से अपने सामान्य जीवन का नियमन और संचालन अपने निर्णय से कर सके, तथा अधिकारियों द्वारा अधिकार के दुरुपयोग से अपने को मुक्त रख सकें.

राष्ट्र का पुनर्निर्माण मुख्यत: उसके पांच लाख गांवों का पुनर्निर्माण है. हमारे गांव या नगर मात्र घरों के समूह नहीं हैं. वे इकाइयां हैं जिन्हें सदियों में विकसित परंपरा ने अस्मिता और चरित्र प्रदान किया है. ये लाखों गांव और नगर इकाई के रूप में संगठित रहकर ही केंद्रित सत्ता-राजनैतिक, आर्थिक और प्रशासनिक दमन और शोषण से अपने हितों और अपने अस्तित्व की भी रक्षा कर सकते हैं.

राष्ट्र का पुननिर्माण मुख्यत: उसके पांच लाख गांवों का पुनर्निर्माण है. हमारे गांव या नगर मात्र घरों के समूह नहीं हैं. वे इकाइयां हैं जिन्हें सदियों में विकसित परंपरा ने अस्मिता और चरित्र प्रदान किया है. ये लाखों गांव और नगर इकाई के रूप में संगठित रहकर ही केंद्रित सत्ता-राजनैतिक, आर्थिक और प्रशासनिक के दमन और शोषण से अपने हितों, हितों ही नहीं, अपने अस्तित्व की भी रक्षा कर सकते हैं. आज गांव के जीवन में दरारें अनेक हैं, लेकिन वे पाटी जा सकती है. बशर्ते दरिद्रीकरण की प्रक्रियाएं समाप्त हों और समाज विरोधी तत्वों को पुलिस, कानून और विकास की योजनाओं आदि के द्वारा राज्य-सत्ता का प्रश्रय मिलना बंद हो जाय. शोषण और दमन के तत्वों का किसी-न-किसी रूप में सरकार और बाजार के साथ गठबंधन है. यह गंठबंधन तभी टूटेगा, जब गांव एक होकर अपने सामूहिक हितों की रक्षा के लिए खड़ा होगा तथा खेती-उद्योग पशु पालन के आधार पर एक नई, एग्रो-इंडस्ट्रियल, ग्रामीण, सहकारी अर्थ-नीति विकसित करेगा. जिसमें गांव का हर व्यक्ति उत्पादक भी होगा और उपभोक्ता भी. ऐसी ठोस अर्थनीति की, जिसमें सब ग्रामवासियों की बुनियादी आवश्यकताओं पर सबसे पहले ध्यान देना होगा, नींव पर गांव का स्वायत्त, स्वाश्रयी सह-जीवन विकसित होगा. जीवन की ऐसी रचना कैसे चलेगी और क्यों चलने दी जाएगी, जिसमें परिवार में स्त्री को, उत्पादन में श्रमिक को, समाज में हरिजन को विवशता का जीवन बिताना पड़े? गांव के पुननिर्माण का अर्थ है नए संबंधों, नए साधनों और नए संगठनों का विकास-एक नई जीवन पद्धति का विकास. इस दिशा में गांवों के पुनर्निर्माण के अभियान का शुभारम्भ करना है. इस अभियान को राष्ट्र के पुनर्निर्माण के देशव्यापी आंदोलन के बुनियादी अंग के रूप में चलाना पड़ेगा तभी इसमें गति आएगी और इसकी दिशा स्पष्ट होगी. गांव में खेतिहर हैं, मजदूर हैं, दस्तकार हैं. आज इनके हित भिन्न ही नहीं, परस्पर-विरोधी दिखाई देते हैं, लेकिन सीलिंग और परोक्ष स्वामित्व के प्रश्‍नों को जो विवाद से परे हैं, अलग रख दें, तो इन तीनों के हित मूलत: समान हैं और गांव सहकारी अर्थनीति में तीनों के लिए तुल्य पारिश्रमिक और समान संरक्षण के लिए पूरा स्थान है. आज तो स्थिति ऐसी है कि बाजार की शोषणमूलक अर्थनीति में खेतिहर को उसके अन्न या कच्चे माल का उचित मूल्य नहीं मिलता, मजदूर को मेहनत की उचित मजदूरी नहीं मिलती और दस्तकार के बनाए माल का उचित दाम नहीं मिलता. उचित दाम की बात अलग, तीनों में किसी को सालभर काम नहीं मिलता, इसके अलावा ग्राहक को बिचौलिए की मुनाफाखोरी के कारण उचित से कहीं अधिक दाम देना पड़ता है. उत्पादकों और ग्राहकों के शोषण की यह दारुण स्थिति कब तक चलेगी और इसके चलते क्या परिवर्तन होगा, कैसे होगा? इसलिए गांव की मुक्ति लड़ाई का एक जबरदस्त मोर्चा उचित मूल्य का प्रश्‍न बन सकता है और बनना चाहिए. इसके लिए परिस्थिति परिपक्व है.
 

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