सुप्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर का लंबी बीमारी के  बाद भोपाल में निधन हो गया. कुछ दिनों पहले उन्हें सांस लेने में तक़ली़फ की शिकायत के  बाद निजी अस्पताल में दाख़िल कराया गया था, जहां वह वेंटिलेटर पर थे. अस्पताल के डॉक्टरों के  मुताबिक तनवीर जी को अस्थमा का दौरा पड़ा था, जिसके  चलते उन्हें सांस लेने में तक़ली़फ हो रही थी. उनके  फेफड़ों में पानी भर गया था और सीने व ख़ून में संक्रमण की वजह से तबीयत बिगड़ गई थी.
किसी भी विधा में यह देखने को कम ही मिलता है कि अपने जीवन काल में ही उसमें काम करने वाला लीजेंड बन जाता हो. लेकिन हबीब तनवीर के  साथ यही हुआ और वह रंगमकर्म की दुनिया के  लीविंग लीजेंड बन गए थे. बावजूद इसके, हबीब तनवीर का लोगों से जुड़ाव कम नहीं हुआ और वह लोक के  कलाकार के तौर पर मशहूर हुए. हबीब जी ने जब रंगकर्म की दुनिया में क़दम रखा तो उस व़क्त रंगमंच की दुनिया में लोक की बात कम होती थी. लेकिन इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के  साथ जुड़ाव ने उन्हें लोक से जुड़ने के लिए न केवल प्रेरित किया, बल्कि उनके विचारों को भी गहरे तक प्रभावित किया. एक सितंबर 1923 को रायपुर में जन्मे हबीब तनवीर को पद्म भूषण, पद्म श्री और संगीत नाटक अकादमी जैसे पुरस्कार मिले थे. उनके पिता हफीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के  रहने वाले थे. स्कूली शिक्षा रायपुर में पूरी करने के  बाद वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुंचे, जहां से उन्होंने ग्रेजुएशन किया और फिर 1945 में वह मुंबई चले गए. वहां बतौर प्रोड्यूसर वह ऑल इंडिया रेडियो से भी जुड़े. कई कविताएं लिखीं, तो फिल्मों में अभिनय भी किया. वहां उनका जुड़ाव इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से हुआ. लेकिन हबीब साहब ने नाटक की दुनिया में क़दम दिल्ली आने के  बाद ही रखा. जहां 1954 में उन्होंने पहली बार आगरा बाज़ार का मंचन किया. वह इस नाटक के लेखक भी थे. दिल्ली में यह वह दौर था जब रंगमंच की दुनिया यूरोपियन मॉडल से प्रभावित थी और यहां अंग्रेजी वालों का बोलबाला था.  लेकिन अपने इस नाटक से तनबीर साहब ने न केवल अंग्रेजी का आधिपत्य तोड़ा,  बल्कि रंगमंच की दुनिया के लिए एक नया आकाश उद्‌घाटित किया. यह नाटक अठारहवीं शताब्दी के  मशहूर उर्दू शायद अकबर नजीराबादी पर केंद्रित था. इस नाटक में हबीब तनवीर ने ओखला गांव के  कलाकारों को लेकर रंगमंच के आभिजात्य को चुनौती देते हुए एक नई भाषा भी गढ़ी. इसके  बाद हबीब इंग्लैंड चले गए, जहां तीन साल तक रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स में रंगमंच और उसकी बारीकियों को समझा. फिर 1959 में तनबीर ने अपनी रंगकर्मी पत्नी मोनिका मश्रा के  साथ मिलकर नया थिएटर नाम से एक ग्रुप बनाया, जिसने भारतीय और यूरोपियन क्लासिक का मंचन किया. रंगमंच की दुनिया को तनबीर साहब ने अंग्रेजी आभिजात्य से तो आज़ादी दिलाई ही, साथ ही उन्होंने लोक कलाकारों को स्थानीय बोली में नाटक करने के  लिए प्रोत्साहित भी किया.
1975 में हबीब तनबीर ने अपना मशहूर नाटक चरणदास चोर का मंचन किया जो आजतक इतना लोकप्रिय है कि जहां भी, जब भी इसका मंचन होता है, लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है. इसके  बाद तनबीर ने कई विश्व क्लासिक का मंचन किया, जिसमें गोर्की की एनेमीज पर आधारित दुश्मन, असगर वजाहत की जिन लाहौर नहीं बेख्या के  अलावा कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना, शाजापुर की शांतिबाई आदि ने रंगमंच को एक नई उंचाई दी. हबीब तनवीर ने  थिएटर के  साथ बॉलीवुड की फिल्मों में भी अपने अभिनय की छाप छोड़ी. उन्होंने नाना पाटेकर अभिनीत चर्चित फिल्म प्रहार और निर्देशक सुभाष घई की ब्लैक एंड ह्वाइट में भी काम किया.
हबीब तनबीर के  प्रगतिशील विचारों को जब नाटकों में जगह मिलने लगी तो भगवा ब्रिगेड के  कान खड़े हुए और जब मध्य प्रदेश में 2003 में पोंगा पंडित और लाहौर का मंचन शुरू हुआ तो भगवा ब्रिगेड के  कार्यकर्ताओं ने जमकर विरोध प्रदर्शन कर इन दोनों नाटकों के मंचन को रुकवाने की कोशिश की. लेकिन हबीब की जिजीविषा पर कोई असर नहीं हुआ और अपने नाटकों के माध्यम से वह अलख जगाते रहे, बग़ैर डरे, बग़ैर घबराए.
हबीब तनवीर का योगदान देखें तो सबसे पहले तो यही कि उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और इब्राहीम अलकाज़ी की अगुआई में सत्तर के  दशक में भारतीय रंगमंच पर हावी हो रहे विदेशी संस्कार और अंग्रेजी के  सामने खड़े होने का साहस दिखाया. जो नाट्यलेखन एक निश्चित मध्यवर्ग और बंद रंगशालाओं के  लिए हो रहा था, उसे लोक का व्यापक संदर्भ दिया. अपने नया थिएटर के ज़रिए उन्होंने इस धारणा की पुष्टि की कि किसी भी कला की तरह रंगमंच को भी पहले स्थानीय होगा, तभी वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हो सकता है. उन्होंने इस अवधारणा को सिद्धांत से उठाकर हक़ीक़त में तब्दील भी कर दिखाया. प्रोसिनियम थिएटर के समानांतर उन्होंने लोक नाट्य का कद इतना बड़ा कर दिया कि वह आज के वैश्विक युग में भी सीना तानकर खड़ा है. प्रसिद्ध कथाकार और कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल कहते हैं, जैसा कि सब जानते हैं कि थियेटर का रिश्ता कला के सभी माध्यमों के साथ है. पर थियेटर के भी सभी लोग इस बात को निभा नहीं पाते. हबीब साहब ने सहज रूप से न केवल इसको समझा, बल्कि निभाया भी.
यह हैरान करता है कि थियेटर की पढ़ाई उन्होंने लंदन की रॉयल अकादमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट्स से करने के  बावजूद पाश्चात्य शैली और तड़क-भड़क के  मोहपाश में कभी नहीं फंसे. वह व्यक्तिगत जीवन में भी तड़क-भड़क से कोसों दूर रहे. उन्होंने हमेशा मिट्टी से नाटक उठाए. दुनिया भर में उस मिट्टी की गंध को लेकर गए. सच कहें तो पिछले पचास साल से नया थियेटर का विकास दरअसल हिंदुस्तान में तनवीरी परंपरा का विकास का ही रहा है. उन्होंने अपने लिए अभिव्यक्ति के  तौर पर लोक परंपराओं के  साथ सदियों से चली आ रही संवाद शैलियों को चुना. शास्त्र और लोक के  रिश्ते में उनकी अगाध आस्था थी.
शुरुआती दौर में इप्टा से जुड़ने के  कारण वामपंथ का उन पर पूरा असर था, जो अंत तक बना रहा. इसलिए उनके नाटकों में यथार्थ हमेशा अधिक मुखर रहा. सार्थक और ईमानदार रंगमंच से उनका नाता अंत तक बना रहा. इतना कि कई बार उन्हें आलोचना के अलावा हमले तक झेलने पड़े. बावजूद इसके, अपनी विचारधारा से समझौता उन्होंने कभी नहीं किया. वामपंथियों के साथ जब इंदिरा गांधी के रिश्ते अच्छे थे, तब उनकी प्रशंसा में उन्होंने इंद्रसभा जैसा नाटक भी किया. तब इंदिरा गांधी के प्रयासों से भारत ने बांग्लादेश को आज़ाद कराया था.
हबीब साहब ने फ़िल्मों और टीवी धारावाहिकों में भी काम किया. वह भोपाल गैस त्रासदी पर बन रही एक फ़िल्म में काम कर रहे थे.  रांगेय राघव के उपन्यास पर बने सीरियल-कब तक पुकारूं-में उन्होंने बेजोड़ अभिनय किया था. सत्तर के दशक में वह राज्यसभा के सदस्य रहे. राज्यसभा के सदस्य बनने वाले दूसरे रंगकर्मी थे. उनसे पहले यह सम्मान पृथ्वी राज कपूर को मिला था.
कहते हैं कि इन दिनों वह अपनी जीवनी पर काम कर रहे थे. बताया तो यहां तक जा रहा है कि यह किताब लगभग पूरी हो गई है. अब देखना यह है कि उनकी एकमात्र वारिस बेटी नगीन पिता के उस नगीने को पाठकों तक कब पहुंचाती हैं. रंगमंच की इस महान विभूति को हमारी श्रद्धांजलि.

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