पाकिस्तान के सभी जातीय समूहों में केवल पंजाबी और मुहाजिर (1947 के विभाजन के बाद भारत से गए लोग) ही ऐसे हैं, जो बुनियादी तौर पर यूनाइटेड पाकिस्तान के हक़ में हैं. कुल मिलाकर पाकिस्तान एक ऐसे दलदल में फंसा हुआ नज़र आ रहा है, जहां से केवल कोई करिश्माई नेतृत्व ही उसे बाहर निकाल सकता है. पाकिस्तान को अभी ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है, जो अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के साथ-साथ देश के शक्तिशाली शासक वर्ग से भी निपट सकने में सक्षम हो.

mmjऐसा लगता है कि एक आधुनिक नेशन स्टेट के तौर पर पाकिस्तान द्वारा उठाया गया कोई भी क़दम उसके लिए कारगर नहीं साबित हुआ है. हालात कुछ ऐसे बन गए हैं कि पाकिस्तान की राजनीति पर नज़र रखने वाले टिप्पणीकारों को हैरानी होती है कि यह देश अभी तक कैसे बचा हुआ है. जहां एक तरफ़ पाकिस्तान की राजनीति पर तीन विवादित किताबें लिख चुके तारिक अली जैसे राजनीतिक आलोचक हैं, जो पिछले चार दशकों से पाकिस्तान के टूटने की भविष्यवाणी करते चले आ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ अनाटोल लिवेन एवं यान तोल्बट जैसे समीक्षक भी हैं, जो पाकिस्तान के भविष्य को लेकर अभी भी आशांवित हैं.

पाकिस्तान के बिखराव की भविष्यवाणी के पीछे कई कारण हैं. सबसे पहला कारण यह है कि पाकिस्तान में एक के बाद एक आने वाली लोकतांत्रिक और फौजी हुकूमतें शासन व्यवस्था के हर मोर्चे पर असफल नज़र आती हैं. ये सरकारें देश के नागरिकों के लिए साफ़ पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बिजली जैसी सुविधाएं मुहैया कराने में नाकाम रहीं. देश में महंगाई दर लगातार बढ़ती जा रही है, उद्योग-धंधों की हालत खराब है और विदेशी निवेश न के बराबर है. क़ानून व्यवस्था की स्थिति यह है कि कराची एवं लाहौर जैसे बड़े शहर भी आम नागरिकों के लिए सुरक्षित नहीं हैं. पाकिस्तानी तालिबान न केवल पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान सीमा पर अपने सुरक्षित ठिकानों पर सक्रिय हैं, बल्कि वे जब चाहते हैं, देश के किसी भी सुरक्षा घेरे को तोड़ने में कामयाब हो जाते हैं. कराची हवाई अड्डे पर उनका हमला हो या रावलपिंडी के आर्मी स्कूल में उनकी दरिंदगी या फिर देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले आत्मघाती हमले, तालिबान के हमलों ने दरअसल पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरियां बेनकाब कर दी हैं. इसके अलावा पाकिस्तान की विदेश नीति भी असफल नज़र आती है. दरअसल, पाकिस्तान अपने ही जाल में फंसता जा रहा है.
पाकिस्तानी तालिबान से जुड़ी एक सच्चाई यह भी है कि अमेरिका एवं अन्य पश्‍चिमी देशों में कुछ आतंकवादी घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनके तार तालिबान से जुड़े हुए हैं. इन घटनाओं से पश्‍चिमी देश पाकिस्तान से नाराज़ हैं कि वह तालिबान के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है और आतंकवाद के प्रति उसका रवैया सख्त नहीं है. बहरहाल, अमेरिका के ड्रोन हमलों और अमेरिकी-नाटो सैन्य कार्रवाई में पाकिस्तानी सैनिकों की मौत ने जहां देश की संप्रभुता का उल्लंघन किया, वहीं ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान में पाया जाना अंतरराष्ट्रीय समुदाय में देश की किरकिरी का कारण बना. इसके चलते अमेरिका में यह सवाल उठने लगा कि अमेरिकी करदाता ओसामा की रक्षा के लिए पाकिस्तान को पैसा क्यों दें? इसके अलावा ब्लूचिस्तान प्रांत में एक पृथकतावादी आंदोलन चल रहा है. पाकिस्तान इसके लिए हमेशा भारत और अफ़ग़ानिस्तान को दोषी करार देता रहा है. वहीं पाकिस्तानी अख़बारों में छपी रिपोर्टें पाकिस्तान सरकार को इसके लिए दोषी करार देती हैं. इसी प्रकरण का ज़िक्र करते हुए पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद लिखते हैं कि ब्लूचिस्तान में पाकिस्तान के ख़िलाफ़ असंतोष पाकिस्तान द्वारा वहां के लोगों के प्रति दुर्व्यवहार की वजह से है. वहीं अफ़ग़ानिस्तान भी पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता स्वीकार करने से इंकार करता रहा है. सिंध प्रांत में भी केंद्रीय सत्ता को लेकर असंतोष है.
दरअसल, पाकिस्तान के सभी जातीय समूहों में केवल पंजाबी और मुहाजिर (1947 के विभाजन के बाद भारत से गए लोग) ही ऐसे हैं, जो बुनियादी तौर पर यूनाइटेड पाकिस्तान के हक़ में हैं. कुल मिलाकर पाकिस्तान एक ऐसे दलदल में फंसा हुआ नज़र आ रहा है, जहां से केवल कोई करिश्माई नेतृत्व ही उसे बाहर निकाल सकता है. पाकिस्तान को अभी ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है, जो अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के साथ-साथ देश के शक्तिशाली शासक वर्ग से भी निपट सकने में सक्षम हो. 1947 में भारतीय मुसलमानों के लिए दुनिया के मानचित्र पर एक पृथक लोकतांत्रिक देश के रूप में पाकिस्तान का उदय हुआ था. तबसे अब तक इस देश में चार बार सेना ने निर्वाचित सरकार का तख्ता पलट कर सत्ता पर क़ब्ज़ा किया है और अपने 68 वर्ष के इतिहास में यह देश ने 33 साल तक सैन्य शासन में रहा. इस बीच तीन बार संविधान बदला गया और कई बार संविधान को ताख पर रख दिया गया. कहने का आशय यह कि सेना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश की सत्ता पर काबिज़ रही. अपने शुरुआती दिनों से ही पाकिस्तान ने ऐसी नीति अपनाई, जो उसके लिए घातक और विघटनकारी साबित हुई. पाकिस्तान ने अपना जो पहला बड़ा फैसला लिया था, वह था कश्मीर में कबायलियों का हमला कराना. उसके बाद कश्मीर एक ऐसा मसला बन गया, जिसे लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच चार युद्ध हुए. पाकिस्तान दो हिस्सों में विभाजित हो गया, लेकिन कश्मीर का मसला अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है.

भ्रष्टाचार के मामले में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों और सैन्य शासकों का हाल एक जैसा रहा है. आयशा जलाल ने अपनी किताब-मिलिट्री इंक में पाकिस्तानी सेना का भ्रष्टाचार उजागर किया है. वहीं भूतपूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को उनके भ्रष्टाचार की वजह से मिस्टर टेन पर्सेंट के नाम से जाना जाता है. देश की राजनीति में वंशवाद और भाई-भतीजावाद का बोलबाला है. हकीकत में देश पर या तो सेना का शासन होता है या फिर शरीफ अथवा भुट्टो परिवार का. हालांकि, आज भी पाकिस्तान की राजनीति पर सेना का वर्चस्व कायम है और देश को परिवारवाद से भी इतनी जल्दी मुक्ति नहीं मिलने वाली, लेकिन लोग अब दूसरे विकल्पों की तरफ़ भी देखने लगे हैं, जो लोकतांत्रिक पाकिस्तान के लिए एक सकारात्मक क़दम है.

शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान अमेरिका का एक महत्वपूर्ण सहयोगी बन गया. अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले के ख़िलाफ़ कार्रवाई के दौरान अमेरिका की मदद से अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर बहुत सारे मदरसे खोले गए और इस्लामीकरण का दौर शुरू हुआ. यह वही दौर था, जब पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक़ ने देश में शरिया क़ानून लागू किया, जो अब तक जारी है. पाकिस्तान ने दूसरे देशों में विद्रोह और आतंकवाद को बढ़ावा-सहयोग देना अपनी नीति बना ली, चाहे वह अफ़ग़ानिस्तान में मुजाहिदीन का मामला हो या कश्मीर में आतंकवाद. अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ की पराजय और शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को उसके हाल पर छोड़ दिया. नतीजे में पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में गृहयुद्ध के दौरान तालिबान को देश पर क़ब्ज़ा दिलाने में मदद पहुंचाई, लेकिन न्यूयॉर्क के 9/ 11 के हमलों के बाद उपजे हालात में पाकिस्तान को न चाहते हुए भी एक बार फिर अमेरिका के युद्ध में भागीदार बनना पड़ा और अपने ही द्वारा तैयार किए गए लड़ाकों से लड़ना पड़ा. आतंकवाद के ख़िलाफ़ इस अमेरिकी लड़ाई ने नवाज़ शरीफ की चुनी हुई सरकार का तख्ता पलट कर सत्ता पर काबिज़ हुए जनरल मुशर्रफ के सैन्य शासन को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान की थी.
पाकिस्तानी राजनीति की एक और विशेषता यह रही है कि यहां लोकतंत्र को कभी फलने-फूलने नहीं दिया गया. नतीजा यह हुआ कि सत्ता में आम लोगों की भागीदारी नहीं हो पाई, जैसे भारत या विभाजन के बाद बांग्लादेश में है. पाकिस्तान की विदेश नीति सेना तय करती है. अगर चीन से रिश्ते की बात करनी होती है, तो पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष जाते हैं. अगर अफ़गानिस्तान से रिश्तों की बात होती है, तो सेना के नुमाइंदे पहले जाते हैं, उसके बाद देश के प्रधानमंत्री जाते हैं. पाकिस्तान की अफ़ग़ान नीति का उल्टा असर हुआ है. अफ़ग़ानिस्तान से नाटो फौजों की वापसी की वार्ता में पाकिस्तान अफ़ग़ानी तालिबान को भी शामिल करने के लिए कोशिश करता रहा. दरअसल, हामिद करज़ई के कार्यकाल में पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्तों में खटास बनी रही. वजह थी, पाकिस्तान द्वारा तालिबान की मदद करना. तालिबान के समर्थन के पीछे पाकिस्तान की सोच यह है कि भारत के साथ युद्ध की स्थिति में वह उसकी मदद करेगा. लेकिन, इसका नतीजा यह हुआ कि तालिबान पाकिस्तान की अनदेखी करके अमेरिका से ख़ुफ़िया शांति वार्ता करते रहे, जो पाकिस्तान की विदेश नीति की नाकामी दर्शाने के लिए काफी है. इसी तरह पाकिस्तान ब्लूचिस्तान में विद्रोह के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराता है.
अमेरिका के साथ भी पाकिस्तान के रिश्तों में उतार-चढ़ाव का सिलसिला जारी है. पाकिस्तानी चेक पोस्ट पर हमले के बाद पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में नाटो सप्लाई कई दिनों तक बाधित रखी. अमेरिका यह जानता था कि अफ़ग़ानिस्तान में नाटो सप्लाई पहुंचाने के लिए पाकिस्तान ही एकमात्र रास्ता था. लेकिन, भारत द्वारा ईरान-अफ़ग़ानिस्तान को सड़क से जोड़े जाने और भारत की मदद से विकसित किए गए रूट नंबर 606 के निर्माण के बाद अब अमेरिका अपनी सप्लाई इस रास्ते से भी कर सकता है. यही नहीं, अफ़ग़ानिस्तान से नाटो फौजों की वापसी के बाद यह रूट व्यवसायिक दृष्टि से पाकिस्तान को अलग-थलग कर सकता है. पाकिस्तान ने भारत से कथित ख़तरे के मद्देनज़र परमाणु हथियारों का निर्माण किया और पूरी मुस्लिम दुनिया की कयादत का दावा किया, खास तौर पर जनरल मुशर्रफ ने अपने कार्यकाल में मुस्लिम उम्मा की बात की. लेकिन, सबसे सकारात्मक बात यह है कि पाकिस्तानी जनता इस यथास्थिति से ऊब गई है और इस पर अपनी प्रतिकिया भी व्यक्त करने लगी है. जस्टिस इफ्तिख़ार चौधरी का जनरल मुशर्रफ के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन और इमरान खान का नवाज़ शरीफ सरकार के ख़िलाफ़ धरना इसी ओर इशारा करते हैं. पाकिस्तान के लोकतंत्र या राजनीति की सबसे बड़ी नाकामी यह रही कि यहां एक प्रभावशाली मध्यम वर्ग नहीं बन सका. जिसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान एक आधुनिक नेशन स्टेट के तौर पर खुद को स्थापित नहीं कर पाया. देश की जातीय विविधता को एक धागे में पिरोने के लिए मज़हब के अलावा उसके पास कुछ भी नहीं है. लेकिन, पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के बाद यह अवधारणा भी ग़लत साबित हो गई.
भ्रष्टाचार के मामले में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों और सैन्य शासकों का हाल एक जैसा रहा है. आयशा जलाल ने अपनी किताब-मिलिट्री इंक में पाकिस्तानी सेना का भ्रष्टाचार उजागर किया है. वहीं भूतपूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को उनके भ्रष्टाचार की वजह से मिस्टर टेन पर्सेंट के नाम से जाना जाता है. देश की राजनीति में वंशवाद और भाई-भतीजावाद का बोलबाला है. हकीकत में देश पर या तो सेना का शासन होता है या फिर शरीफ अथवा भुट्टो परिवार का. हालांकि, आज भी पाकिस्तान की राजनीति पर सेना का वर्चस्व कायम है और देश को परिवारवाद से भी इतनी जल्दी मुक्ति नहीं मिलने वाली, लेकिन लोग अब दूसरे विकल्पों की तरफ़ भी देखने लगे हैं, जो लोकतांत्रिक पाकिस्तान के लिए एक सकारात्मक क़दम है. देश अब अपनी पुरानी विदेश नीति छोड़कर नई संभावनाएं तलाश रहा है. भूमि सुधार शायद पहली बार सार्वजनिक बहस का हिस्सा बना है. धार्मिक अतिवाद के ख़िलाफ़ आम लोग खुलकर अपनी राय रखने लगे हैं. पाकिस्तान में ऐसे लोगों की अच्छी-खासी संख्या है, जो धार्मिक अल्पसंख्यकों की दुर्दशा के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने लगे हैं. पाकिस्तान में अपनी हर कमी को भारत अमेरिका या इजरायल की साजिश करार देकर टाल दिया जाता था. अब लोग इस थ्योरी का भी मज़ाक उड़ाने लगे हैं. कुल मिलाकर देखा जाए, तो कहा जा सकता है कि सेना कभी भी सत्ता पर अपनी पकड़ कमज़ोर नहीं करना चाहेगी, लेकिन यह भी हकीकत है कि निकट भविष्य में वह लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आई किसी सरकार का तख्ता नहीं पलट पाएगी.

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