amit shahराज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर केंद्र की चिंता अब सामने अभिव्यक्त होने लगी है. राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर उत्तर प्रदेश इकाई का अध्यक्ष चुनने और प्रदेश संगठन का कायाकल्प करने की कवायद नीचे के पायदान से शुरू तो हुई, लेकिन नीचे ही विवादों में घिर गई. नौसिखियों और सिफारिशी-संतानों को ज़िलाध्यक्ष बनाकर शाह के दूतों ने प्रदेश संगठन को दुरुस्त करने के बजाय उसे ध्वस्त करने का ही मार्ग प्रशस्त कर दिया. पुराने प्रतिबद्ध नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की घोर उपेक्षा हुई, जिसकी शिकायत निश्चित तौर पर ऊपर तक गई.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बीच पिछले दिनों हुई मुलाकात केंद्रीय मंत्रिमंडल के संभावित फेरबदल के साथ जोड़कर देखी गई, लेकिन मामला केवल यही नहीं था. नरेंद्र मोदी एवं राजनाथ सिंह के बीच उत्तर प्रदेश में भाजपा संगठन को लेकर हो रहे बिखराव को संभालने और आने वाले विधानसभा चुनाव की रणनीतियों को लेकर विस्तार से बातचीत हुई. इस मुलाकात ने एक बार फिर यह चर्चा और संभावना दोनों बढ़ाई कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उतरने के लिए भाजपा का चेहरा कहीं राजनाथ सिंह ही तो नहीं हो रहे!

हालांकि, भाजपा के चाल-चरित्र-चेहरे को गहराई से जानने वाले कुछ समीक्षकों का यह भी कहना है कि राष्ट्रीय राजनीति में कद्दावर व्यक्तित्व के साथ उभर रहे राजनाथ सिंह को क्षेत्रीय राजनीति के छोटे कैनवस पर समेटने के लिए भी उन्हें दांव देने की सियासत चल सकती है. राजनाथ सिंह मोदी द्वारा हाशिये पर धकेल दिए गए सारे वरिष्ठ नेताओं के चहेते हैं. लालकृष्ण आडवाणी हों या डॉ. मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा हों या विद्रोही शत्रुघ्न सिन्हा, ये सब राजनाथ सिंह को पसंद करते हैं.

ऐसे में, हाशिये पर पड़े वरिष्ठों की मदद से भविष्य में किसी उठापटक की संभावना या आशंका के मद्देनज़र उन्हें केंद्र की राजनीति से हटाकर प्रदेश में समेटने की कोशिश के तर्क कमज़ोर नहीं दिखते. बहरहाल, राजनाथ को सामने रखकर चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर भाजपा आलाकमान और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व में लगातार मंथन चल रहा है. इसके साथ-साथ भाजपा के अंदर बने अलग-अलग खेमे भी कभी कल्याण सिंह, तो कभी उमा भारती, कभी ओम प्रकाश सिंह, तो कभी वरुण गांधी का नाम लेकर नियोजित-भ्रम की स्थिति पैदा करने में सक्रिय हैं.

जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव का समय नज़दीक आता गया, वैसे-वैसे नेतृत्व को यह समझ में आता गया कि अगर पार्टी का चेहरा मजबूत नहीं हुआ, तो उत्तर प्रदेश भी हाथ से निकल जाएगा. और, अगर उत्तर प्रदेश हाथ से निकला, तो पार्टी के ताकतवर होने की सारी संभावनाएं चौपट हो जाएंगी. दिल्ली और बिहार के परिणामों के बाद भाजपा नेतृत्व चुनावी-चेहरे पर कोई जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है.

खास तौर पर बिहार चुनाव के बाद पार्टी के भीतर यह मांग पुरजोर तरीके से उठी कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उतरने के पहले नेतृत्व को मुख्यमंत्री पद के लिए स्थानीय एवं दमदार चेहरे की घोषणा कर देनी चाहिए. भाजपा नेता यह मुद्दा उठा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव के समय पार्टी ने कांग्रेस के समक्ष सवाल उछाला था कि वह प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करने से क्यों हिचक रही है? फिर भाजपा ने बिहार चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा पहले घोषित क्यों नहीं किया? और, पार्टी ऐसी ग़लती दोबारा न करे.

लिहाजा, इस बात की पूरी संभावना है कि राजनाथ सिंह को दिल्ली छोड़कर उत्तर प्रदेश चुनाव की ज़िम्मेदारी संभालने के लिए कहा जाए. अगर राजनाथ सिंह यह दायित्व संभालते हैं, तो निश्चित तौर पर प्रदेश के अध्यक्ष के साथ-साथ संगठन की टीम भी उसी मुताबिक बनेगी. लेकिन, ज़िलाध्यक्षों की टोली के अधिकांश सदस्य दिल्ली-दल द्वारा पहले ही चुने जा चुके हैं. राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और प्रदेश अध्यक्ष से होते हुए उन्होंने कामयाब राष्ट्रीय अध्यक्ष तक का सफर तय किया है.

प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम प्रस्तावित करने का जोखिम भी राजनाथ सिंह ने ही उठाया था, जिसमें बाद में वह कामयाब साबित हुए. बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के चुनावी मिशन पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह से विस्तार से चर्चा की. मुलाकात के दौरान राज्य में संगठन की स्थिति और केंद्रीय मंत्रिमंडल के संभावित परिवर्तन में उत्तर प्रदेश के प्रतिनिधित्व को लेकर भी मंत्रणा हुई.

2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए प्रदेश के कुछ नेताओं को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिल सकती है और कुछ राज्य मंत्रियों को तरक्की दी जा सकती है. केंद्रीय मंत्रिमंडल में दलित प्रतिनिधित्व के बारे में भी मोदी गंभीर हैं और इस मसले पर भी उन्होंने राजनाथ सिंह से राय-मशविरा किया. केंद्रीय मंत्रिमंडल में अभी उत्तर प्रदेश के 13 मंत्री हैं, जिनमें से दो राज्यसभा से हैं.

प्रधानमंत्री स्वयं उत्तर प्रदेश के वाराणसी जैसे महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल कुछ नेताओं को संगठन में भी भेजा जा सकता है. तरक्की पाने वाले राज्य मंत्रियों में कपड़ा राज्य मंत्री संतोष गंगवार और अल्पसंख्यक मामलों के राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी का नाम चल रहा है, तो नए शामिल होने वाले मंत्रियों में योगी आदित्य नाथ और दलित सांसद कौशल किशोर का नाम चर्चा में है.

प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार लखनऊ आए नरेंद्र मोदी के साथ राजनाथ सिंह हर जगह मौजूद रहे, हर मंच पर राजनाथ मोदी के साथ रहे. मोदी के स्वागत से लेकर प्रत्येक कार्यक्रम में साथ रहने और लखनऊ एयरपोर्ट पर उन्हें विदा करने तक की ज़िम्मेदारी राजनाथ ने ही संभाली. इसे लेकर भी चर्चाएं सरगर्म रहीं. लेकिन, प्रदेश भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने राजनाथ सिंह के प्रदेश की राजनीति में वापस आने की संभावनाओं को दरकिनार करते हुए कहा कि राजनाथ सिंह खुद ही नहीं चाहते कि वह उत्तर प्रदेश की राजनीति में वापस लौटें.

देश के गृह मंत्री और भारत सरकार में प्रधानमंत्री के बाद दूसरे सबसे शक्तिशाली नेता के रूप में स्थापित होने के बाद अब वह दोबारा अनिश्चय की राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. लिहाजा, राजनाथ भी चाहेंगे कि किसी ऐसे पिछड़े या दलित नेता को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ा जाए, जो बेहतर परिणाम दिला सके. पिछड़े नेताओं में लोध जाति के कल्याण सिंह, कुर्मी जाति के ओम प्रकाश सिंह अथवा दलित जाति के बृजलाल या राम शंकर कठेरिया को भी सामने रखकर भाजपा चुनाव लड़ सकती है. राम मंदिर निर्माण की चर्चाओं के बीच कल्याण सिंह का जन्मदिन भी खूब चर्चा में रहा.

एक खेमा पुरजोर तरीके से इस चर्चा में लगा रहा कि कल्याण के ही नेतृत्व में पार्टी इस बार विधानसभा चुनाव लड़ेगी. राम मंदिर प्रकरण में कल्याण सिंह का नाम केंद्र में रहा है. भाजपा नेतृत्व कल्याण की उस छवि और लोध जाति पर उनकी पकड़ का फायदा उठाने के बारे में सोच सकता है. कुर्मी जाति से आने वाले ओम प्रकाश सिंह मोदी के सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा बनाने के अभियान में उत्तर प्रदेश में संचालक रहे और वह मोदी की निगाह में भी हैं. एक नाम संतोष गंगवार का भी है, जो बरेली से लगातार सांसद रहे हैं और उनकी सा़फ-सुथरी विनम्र छवि है.

एक और संभावित नाम लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा का है. सा़फ-सुथरी छवि वाले विनम्र दिनेश शर्मा ब्राह्मण चेहरा हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चहेते भी. हाल में पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने के साथ-साथ जब उन्हें गुजरात का प्रभारी भी बनाया गया, तो सहसा लोगों का ध्यान उनके परिपक्व राजनीतिक भविष्य की ओर गया. लेकिन कल्याण हों या दिनेश, ये सभी चेहरे राजनाथ सिंह के बाद ही आते हैं. राजनाथ सिंह के मना करने या उन्हें काटकर अलग करने की स्थिति में ही दूसरे विकल्पों के बारे में कोई निर्णयात्मक स्थिति बनेगी.

बसपा प्रमुख मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में उनके क़रीबी रहे अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बृजलाल जब भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए थे, तब भाजपा के राज्य प्रभारी ओम माथुर ने कहा था कि उत्तर प्रदेश में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया है, लेकिन तब न दिल्ली के चुनाव हुए थे और न बिहार के. तबसे पानी बहुत बदल चुका है. यह सही है कि मायावती से खिन्न दलितों का बड़ा तबका (एक जाति विशेष को छोड़कर) ताकतवर विकल्प की तलाश में है. दलित पक्ष का ध्यान रखते हुए ही बसपा के राज्यसभा सदस्य जुगल किशोर को भाजपा में शामिल कराया गया.

जुगल किशोर की पत्नी एवं बेटे को काफी पहले ही भाजपा में शामिल करा लिया गया था. लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को उत्तर प्रदेश की सभी 17 सुरक्षित सीटों पर जीत हासिल हुई थी. दलितों में सबसे अधिक 13 प्रतिशत वोट मायावती की जाति के हैं. इसके अलावा दलितों की तमाम जातियां खुद को उपेक्षित मानती रही हैं, जिनमें 8.34 प्रतिशत वाल्मीकि, 3.5 प्रतिशत पासी, तीन प्रतिशत कोरी, दो प्रतिशत धोबी एवं सोनकर और एक-एक प्रतिशत धुनिया, खरवार एवं बेलदार शामिल हैं. शेष दलित जातियों को अपनी तऱफ करने की होड़ है. इसी कोशिश में भाजपा ने 17 जनवरी को दिल्ली में उत्तर प्रदेश के दलित नेताओं की बैठक भी बुलाई थी और तमाम मसलों पर विचार-विमर्श किया था.

उप चुनाव बताएंगे चावल कितना पका है

देवबंद, मुजफ्फर नगर एवं बीकापुर विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव भी भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गए हैं. पंचायत चुनावों में मिली हार के बाद सबकी निगाहें इन तीन विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव पर टिक गई हैं. भाजपा ने इन तीनों सीटों के लिए प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव के ठीक एक साल पहले हो रहे इस चुनाव में भाजपा ने देवबंद से रामपाल पुंडीर, मुजफ्फर नगर से कपिल देव एवं बीकापुर से राम शरण तिवारी को प्रत्याशी बनाया है. इन सीटों के लिए मतदान 13 फरवरी को होगा.

सहारनपुर की देवबंद सीट मंत्री राजेंद्र सिंह राणा, मुजफ्फर नगर सीट मंत्री चितरंजन स्वरूप और फैजाबाद की बीकापुर सीट सपा विधायक मित्रसेन यादव की मृत्यु के चलते रिक्त हुई थी. देवबंद से भाजपा प्रत्याशी रामपाल पुंडीर पहले भी विधानसभा चुनाव लड़ चुके हैं. वह क्षेत्रीय समिति में उपाध्यक्ष भी हैं. मुजफ्फर नगर से भाजपा प्रत्याशी बने कपिल देव नगर पालिका के अध्यक्ष रह चुके हैं. 2002 में उन्होंने चितरंजन स्वरूप के ़िखला़फ चुनाव लड़ा था, लेकिन हार गए थे. कपिल देव को केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान का भी खास माना जाता है. बीकापुर सीट से भाजपा ने हाल में ज़िलाध्यक्ष बने राम शरण तिवारी को ही चुनाव मैदान में उतार दिया है.  

चुनाव आते ही सक्रिय हो जाता है दलितवाद

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नज़दीक आते ही दलितवाद भी क्रमश: प्रगाढ़ होता जा रहा है. दलित प्रेम दिखाने के चक्कर में सारी पार्टियां अंबेडकर प्रेम दिखाने में लग जाती हैं. बसपा तो दलितों को अपना वोट बैंक मानती है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी भी दलित-आग्रह दिखाने में पीछे नहीं रहतीं. दलित पुरोधा डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए अतिरिक्त आसक्ति इसी सियासत का परिणाम है. उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने राजधानी लखनऊ में स्थापित किए जा रहे अत्याधुनिक हाईटेक सीजी सिटी परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर स्मारक बनाने के लिए अंबेडकर महासभा को भूमि उपलब्ध कराने का ऐलान भी कर दिया है.

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सियासी शतरंज की बिसात पर घोड़े की चाल चलते हुए बसपा और भाजपा दोनों के ही दलित एजेंडे में सेंध लगाने की कोशिश की है. अखिलेश यादव ने पिछले दिनों अंबेडकर महासभा के अध्यक्ष डॉ. लाल जी प्रसाद निर्मल से मुलाकात के दौरान सीजी सिटी परिसर में अंबेडकर स्मारक बनाने के लिए ज़मीन उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रख दिया. यह प्रस्ताव महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि डॉ. निर्मल के बुलावे पर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी को अंबेडकर महासभा परिसर में डॉ. अंबेडकर के अस्थि कलश पर पुष्पांजलि अर्पित करने आए थे.

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