कांग्रेस को उम्मीद नहीं थी और मुलायम सिंह मुग़ालते में थे, लेकिन राजबब्बर पूरी ईमानदारी के साथ अपने मन में जनसेवा की भावना लेकर चुनाव मैदान में उतरे थे. शायद इसीलिए जनता ने जीत का सेहरा उनके सिर बांध दिया.

राजबब्बर फिरोज़ाबाद लोकसभा का उपचुनाव जीत गए, जीते भी शानदार तरीक़े से. मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव यहां जितने वोटों से जीते थे, राजबब्बर उससे 25 हज़ार वोट ज़्यादा ले गए. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव, जिन्हें मुलायम सिंह ने अपने परिवार का प्रतीक बनाकर चुनाव में उम्मीदवार बनाया था, हार गईं. दरअसल चुनाव तो ख़ुद मुलायम सिंह लड़ रहे थे और एक बड़े ख़तरे से वे बाल-बाल बचे. तीसरे नंबर पर रहे बसपा के एस पी सिंह बघेल को अगर पंद्रह हज़ार वोट और मिल जाते तो मुलायम सिंह का उम्मीदवार तीसरे नंबर पर चला जाता.
सभी जानना चाहते हैं कि यह कमाल कैसे हो गया, क्योंकि अभी कुछ महीनों पहले हुए लोकसभा चुनाव में राजबब्बर फतेहपुर सीकरी से  हार चुके थे. उनकी हार में मुलायम सिंह और अजीत सिंह का सबसे बड़ा योगदान था. इस उपचुनाव में भी मुलायम सिंह और अजीत सिंह ने हाथ मिला लिया था. तो क्या राजबब्बर राहुल गांधी की वजह से जीते, जो उनके चुनाव प्रचार में आख़िरी व़क्त में पहुंचे थे या फिर सलमान ख़ान इसकी वजह बने, जो राजबब्बर के चुनाव प्रचार में जब पहुंचे तो फिरोजाबाद में जनसैलाब ने उनका स्वागत किया? फिरोजाबाद लोकसभा क्षेत्र में यादव समाज की संख्या सबसे ज़्यादा है, उसके बाद लोध समाज के लोग आते हैं. जाट व मुस्लिम के अलावा यहां अगड़ी जातियों के लोग भी हैं. तो राजबब्बर को किसका साथ मिला, क्योंकि वे तो इनमें से किसी जाति के नहीं हैं? नाम के साथ लगा बब्बर उन्हें पंजाबी बताता है. दरअसल बिना जाति की पहचान वाले राजबब्बर की जीत का संदेश समझने की ज़रूरत है, क्योंकि हो सकता है कि यह संदेश आने वाले जनादेशों का पूर्व संकेत हो.
देखना दिलचस्प होगा कि राजबब्बर के ख़िला़फ कौन सी शक्तियां थीं. पहली ताक़त तो ख़ुद कांग्रेस थी, जिसका फिरोज़ाबाद में कोई संगठन ही नहीं था. वैसे कांग्रेस का फिरोज़ाबाद में तो क्या, कहीं भी संगठन है ही नहीं. दूसरी ताक़त मुलायम सिंह थे, जिन्होंने राजबब्बर की राजनैतिक पारी शुरू कराई थी और नब्बे के दशक में राज्यसभा में भेजा था. उनके ख़िला़फ उत्तर प्रदेश की सरकार थी, जिसकी मुखिया मायावती चाहती थीं कि वे यह चुनाव जीतकर बसपा का संदेश सारे देश में दें. मायावती ने उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के तत्काल बाद राजबब्बर को बसपा में शामिल होने का संदेश भेजा था, जिसे राजबब्बर ने अस्वीकार कर दिया था. मायावती के प्रमुख मंत्री राजबब्बर को हराने के लिए फिरोज़ाबाद में डटे थे. पर फिर भी राजबब्बर जीते. आइए, इसका उत्तर तलाशते हैं.
सन्‌ बयासी की बात है. हिंदी के उस समय के सर्वाधिक प्रतिष्ठित साप्ताहिक रविवार ने एक सिनेमा कलाकार के ऊपर कवर स्टोरी की, जिसे बहुत कम लोग जानते थे. रविवार के संपादक एस पी सिंह को विशेष संवाददाता उदयन शर्मा ने समझाया कि यह कलाकार बहुत आगे जाएगा. उस कवर स्टोरी में राजबब्बर के समाजवादी धारा से जुड़े होने, उनकी संघर्षशीलता, उनके सामाजिक सरोकारों का विस्तार से वर्णन था. राजबब्बर के जीवन का वह पहला बड़ा राजनैतिक कवरेज था और संयोग यह कि इसमें कही गईं सारी बातें धीरे-धीरे राज के जीवन की सच्चाई बनती गईं. राजबब्बर को उनके मित्र प्यार से राज कहते हैं.
आगरा से निकलकर राज दिल्ली आए, दिल्ली से बंबई गए, जहां उनका सिनेमा का संघर्ष शुरू हुआ. मशहूर शायर सज्जाद ज़हीर की बेटी नादिरा उनकी ज़िंदगी में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के दिनों में आ गईं. राज ने सिनेमा और नादिरा ने थियेटर को करियर के रूप में चुना. राज क़दम क़दम आगे ब़ढे और उन्हें इंसा़फ का तराज़ू और निकाह  के बाद नाम मिला. सिनेमा के इसी स़फर में उनकी ज़िंदगी में स्मिता पाटिल आईं. राज ने पहली बार दिलेरी से काम लिया और अपने रिश्ते को छिपाया नहीं. स्मिता राज की ज़िंदगी में बहुत कम दिन रहीं और तेज़ बुख़ार की वजह से उनका जीवन दीप बुझ गया, पर जाने से पहले वे अपना और राज का ख़ूबसूरत तोहफा स्मित प्रतीक बब्बर के रूप में राज को दे गईं.
फिर आया उन्नीस सौ सत्तासी. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी के ख़िला़फ अभियान छेड़ दिया. वी पी सिंह उस समय अकेले थे, राजनैतिक तौर पर बिल्कुल अकेले. मज़दूर नेता दत्ता सामंत के निमंत्रण पर वे मुबई गए. नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक एस पी सिंह ने राजबब्बर को सलाह दी कि उन्हें वी पी सिंह का साथ देना चाहिए. राजबब्बर ने इसे मान लिया और जब वी पी सिंह मुंबई हवाई अड्डे पर उतरे तो राज वहां सैकड़ों मोटरसाइकिल सवारों के साथ वी पी सिंह के स्वागत के लिए उपस्थित थे. उनकी और वी पी सिंह की पहली मुलाक़ात महाराष्ट्र सरकार के गेस्ट हाउस सहयाद्रि में हुई, वहां राज को लेकर सीएनबीसी आवाज़ के संपादक संजय पुगलिया पहुंचे थे.
राज ने वी पी सिंह का साथ देने का वायदा पूरी तरह से निभाया और सत्तासी-अट्ठासी में हर उस जगह गए, जहां वी पी सिंह जा रहे थे. वी पी सिंह से अलग भी राज ने अपने कार्यक्रम रखे और वे सिनेमा कलाकार से अलग जुझारू युवक नेता के रूप में उभरे. राज ने उन दिनों फिल्मों के शूटिंग शेड्‌यूल को भी बदलवा दिया था. वे तभी शूट करते थे, जब वी पी सिंह की सभाएं नहीं होती थीं. वी पी सिंह के साथ मिलकर राज ने एक तू़फान की भूमिका बनानी शुरू कर दी. राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, ताक़तवर थे. इतना ही नहीं, उनके साथ फिल्म जगत के ताक़तवर शहंशाह अमिताभ बच्चन और जावेद अख्तर थे. इन लोगों ने मिलकर अनदेखा दबाव बनाया और राज को फिल्मों से बाहर करने की कोशिश की. राज का साथ फिल्म जगत के कुछ लोगों ने दिया, जिनमें शत्रुघ्न सिन्हा प्रमुख थे. शत्रुघ्न सिन्हा ने वी पी सिंह का समर्थन अपने अंदाज़ में अलग ढंग से किया.
राजबब्बर छोटी-छोटी जगहों पर वी पी सिंह के समर्थन में गए. वी पी सिंह का क़द बहुत बड़ा था, पर उनके आंदोलन को ब़ढाने में राज का योगदान का़फी था. आंदोलन के परिणामस्वरूप वी पी सिंह की सरकार बनी. जब वी पी सिंह का सेंट्रल हाल में चुनाव हो रहा था, तब सेंट्रल हाल में राज खुशी से नाच रहे थे. लेकिन सरकार बनने के बाद राजबब्बर को वे भूल गए, जो सरकार बनने से पहले उनके साथ जाना फख़्र समझते थे. वी पी सिंह भी राजबब्बर को न याद रख पाए. उन राज को, जो चुनाव से पहले उनके परिवार के सदस्य जैसे बन गए थे. दरअसल राज को वी पी सिंह ने किनारे छोड़ दिया था. शायद यहीं से राज के मन में सक्रिय राजनीति में जाने का विचार आया.
फिर आया जनता दल टूटने का न थमने वाला सिलसिला. जनता दल टूटा, मुलायम सिंह और चंद्रशेखर ने नई पार्टी बना ली. बाद में मुलायम सिंह ने तय किया कि वे चंद्रशेखर से अलग पार्टी बनाएंगे और उन्होंने समाजवादी पार्टी बना ली. सुब्रत राय, मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह दोस्त थे तथा सुब्रत राय से राजबब्बर की भी दोस्ती थी. तीनों को लगा कि राजबब्बर अगर समाजवादी पार्टी के साथ आते हैं तो उत्तर प्रदेश में सपा को बहुत फायदा होगा. राजबब्बर ने इस प्रस्ताव को अपने लिए एक अवसर माना और अब तक हुई अपनी अनदेखी का जवाब देने की ठान ली. उस समय उनके वी पी सिंह के साथ जाने का कोई सवाल ही नहीं था, क्योंकि न तो वी पी सिंह और न ही उनके साथ के लोग उनसे दोबारा साथ आने का अनुरोध करने जा रहे थे, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि जब सत्ता के दिनों में राज को याद नहीं किया तो अब कैसे और किस मुंह से करें.
मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश में जीते. मुलायम सिंह ने राजबब्बर के कैंपेन के तरीक़े और उनकी हिम्मत को न केवल सराहा, बल्कि सार्वजनिक रूप से कहा कि वे राज को राज्यसभा में भेजेंगे. मुलायम सिंह ने अपना वायदा निभाया और राजबब्बर को राज्यसभा में भेजा. राज ने हर तरह मुलायम सिंह का साथ दिया. लगभग पंद्रह साल दोनों साथ रहे. अमर सिंह और राज भी उस समय इतने अच्छे दोस्त थे कि किसी को नहीं लगता था कि कभी मुलायम सिंह और राजबब्बर के अलगाव की वजह अमर सिंह बनेंगे. अमर सिंह के ऊ पर पहला आरोप राजबब्बर ने ही लगाया और अपनी दूरी का मुख्य कारण बताया. अमर सिंह और राजबब्बर के बीच ऐसे शब्दों का आदान-प्रदान हुआ, जो नहीं होना चाहिए था. दोनों का अलगाव, राजनैतिक के साथ-साथ व्यक्तिगत भी बन गया था.
मुलायम सिंह से अलग होते समय राज के सामने कोई सा़फ राजनैतिक रास्ता नहीं था. कांग्रेस उन्हें संदेशे भेज रही थी, पर अचानक एक दोस्त की सलाह पर वे वी पी सिंह से मिले. वी पी सिंह ने उन्हें भरोसा दिया कि वे राज का साथ देंगे. वी पी सिंह उन दिनों उत्तर प्रदेश में किसानों का सवाल उठा रहे थे. मुलायम सिंह उन्हें वायदा भी कर रहे थे कि वे किसानों की मांगें पूरी करेंगे. पर, कारणों का पता नहीं, लेकिन मुलायम सिंह वायदों को पूरा नहीं कर पाए. राज के वी पी सिंह से मिलने की घटना ने मुलायम के मन में शक़ पैदा कर दिया कि राज को वी पी सिंह उनके ख़िला़फ मोहरा बना रहे हैं. वी पी सिंह ने दादरी विद्युत योजना को लेकर अनिल अंबानी के ख़िला़फ आंदोलन छेड़ दिया और अनिल अंबानी मुलायम सिंह के दोस्त थे. मुलायम सिंह सख्त हो गए.
वी पी सिंह ने अपने समर्थकों की सलाह पर जनमोर्चा बनाकर राजनैतिक संघर्ष करने का निर्णय लिया और राजबब्बर को जनमोर्चा का अध्यक्ष घोषित किया. राजबब्बर ने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह के खिला़फ वैसे ही घूमना शुरू किया, जैसा वे कभी राजीव गांधी के खिला़फ घूमते थे. उत्तर प्रदेश के हर हिस्से में सभाएं करने के साथ वे दादरी में, जहां किसानों का संघर्ष चल रहा था, लगातार जा रहे थे. आगरा में भी राजबब्बर ने मोर्चा खोल दिया, जहां से वे सांसद थे. पूरे उत्तर प्रदेश में राजबब्बर ने मुलायम सिंह विरोधी माहौल बना दिया और यह सब उन्होंने वी पी सिंह का नाम लेकर किया. वी पी सिंह भी बीमारी के बावजूद ज़्यादा से ज़्यादा सभाओं में जाते थे. माहौल बना मुलायम सिंह के खिला़फ, लेकिन फायदा मिला मायावती को. जनमोर्चा लोगों को यह भरोसा नहीं दिला सका कि वह सरकार बना सकता है. दरअसल जनमोर्चा के पास तो विधानसभा चुनाव लड़ने लायक उम्मीदवार ही नहीं थे. वी पी सिंह कहते थे कि आंदोलन चलाना एक बात है और चुनाव लड़ना दूसरी बात.
विधानसभा चुनावों में मुलायम सिंह हारे और मायावती जीतीं. राज को लगा कि अगर उन्हें आगे कुछ करना है तो कांग्रेस के साथ जाना चाहिए, क्योंकि वी पी सिंह की बीमारी की वजह से जनमोर्चा कभी आगे बढ़ नहीं पाएगा. उन्होंने वी पी सिंह से सा़फ कह दिया कि अब जनमोर्चा के साथ वे नहीं रह पाएंगे. उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर फतेहपुर सीकरी से चुनाव लड़ा, क्योंकि आगरा संसदीय क्षेत्र परिसीमन की वजह से सुरक्षित घोषित हो गया था. राज इस चुनाव में हारे.
फिरोज़ाबाद से अखिलेश यादव जीते थे. वे कन्नौज से भी जीते थे. परिवार की, खासकर मुलायम सिंह की सलाह पर उन्होंने फिरोज़ाबाद से इस्ती़फा दे दिया. मुलायम सिंह का मानना था कि यादव और लोध वोट मिल कर लाखों की जीत दर्ज़ कराएंगे. उन्होने रणनीति के तहत फिरोज़ाबाद से अपना उम्मीदवार घोषित नहीं किया.
यहीं मुलायम सिंह से ग़लती हो गई. वे कछुए और खरगोश की कहानी और उसकी सीख भूल गए. राज ने अहमद पटेल और सोनिया गांधी से बात की और फिरोज़ाबाद से लड़ने की इच्छा ज़ाहिर की.
दोनों को लगा कि कांग्रेस का वजूद तो है नहीं, राज लड़ेंगे तो नाम होगा, हलचल होगी और कुछ संगठन मज़बूत होगा. राज ने फिरोज़ाबाद जाना शुरू किया. उनका साथ उनकी पत्नी नादिरा बब्बर ने दिया. राज की बेटी जूही मुंबई छोड़कर आगरा आ गई और फिरोज़ाबाद में घूमने लगी. जूही भी सिनेमा में अपनी पहचान बना चुकी है.
मुलायम सिंह जहां खरगोश की तरह सो रहे थे. वहीं तरह-तरह की खबरें अ़खबारों में छप रही थीं, जैसे कि यहां से रामविलास पासवान चुनाव लड़ेंगे. राजबब्बर खामोशी से फिरोज़ाबाद के गांवों में घूम रहे थे. उनकी यह मेहनत फिरोज़ाबाद के लोगों पर असर डाल रही थी. उन्हें लगा कि यह श़ख्स फिल्मों से होते हुए भी फिल्मों का नहीं है. इसकी पत्नी और बेटी भी यहां घूम रही है. वे जब राज से मिलते तो उन्हें वे बिल्कुल अपने घर के बच्चे जैसे लगते. राज ने तय कर लिया था कि जीत-हार अलग, पर वे फिरोज़ाबाद के गांवों में जाएंगे ज़रूर. वे कछुए की तरह धीरे-धीरे फिरोज़ाबाद के गांवों में गए, लोगों से मिले, उन्हें विश्वास दिलाया कि वे उनके हैं. जैसे-जैसे वे गांवों में गए, लोगों के दिलों में भी उतरते गए.
राज ने इस चुनाव को वैसे ही आंदोलन के रूप में लिया, जैसा उन्होंने राजीव गांधी के खिला़फ और फिर मुलायम सिंह के खिला़फ अभियान को लिया था. दूसरी तऱफ मुलायम सिंह ने इस चुनाव को केवल चुनाव के रूप में लिया. उन्होंने सोचा होगा कि जैसे ही वे अपनी बहू डिंपल यादव के नाम की घोषणा उम्मीदवार के रूप में करेंगे, यादव समाज उन्मादित हो जाएगा. शायद ऐसा होता भी, क्योंकि यहीं से उनका बेटा अखिलेश अभी कुछ महीनों पहले ही पैंसठ हज़ार वोटों से जीता था. लेकिन यहां राजबब्बर थे, जिन्होंने यहां के लोगों को विश्वास दिला दिया कि वे उनके हैं. लोगों ने खामोशी से तय कर लिया कि वे जाति की सीमा को तोड़ेंगे और राज को जिताएंगे.
मुलायम सिंह को इस बात का अंदाज़ा हुआ, लेकिन का़फी देर से. उनकी बहू डिंपल भी नामांकन के बाद का़फी घूमीं, औरतों ने उन्हें चूड़ियां और मुंह दिखाई में पैसे दिए, लेकिन वोट उतने नहीं दिए जितने में वे जीत जातीं. मुलायम सिंह की अपीलों का भी कोई असर नहीं हुआ. दरअसल खरगोश सो गया था और कछुआ धीरे-धीरे चल कर चुनावी दौड़ जीत गया था.
राहुल गांधी भी आए और सलमान खान भी. भीड़ भी जुटी और नारे भी लगे. लेकिन अगर राजबब्बर ने महीनों खाक न छानी होती तो इन दोनों का ही नहीं, अगर सोनिया गांधी भी आतीं तो उनका आना भी काम नहीं आता. यह जीत केवल और केवल राजबब्बर और उनके जज़्बे की जीत है.
पर यह जीत सीख देती है. कांग्रेस अगर यह सोचे कि वह कैसे भी उम्मीदवार खड़े करेगी और वह जीत जाएगी तो यह उसकी ग़लतफहमी होगी, क्योंकि साथ हुए विधानसभा उपचुनाव इसके गवाह हैं. उसे उन्हें ही टिकट देना होगा, जो अभी से अपने चुनाव क्षेत्र में काम कर सकें. मुलायम सिंह को भी अपने परिवार से बाहर नज़र डालनी होगी और अस्सी के दशक वाले मुलायम सिंह को वापस लाना होगा. मायावती के  सीखने के लिए बस इतना है कि विधानसभा जैसी रणनीति उन्हें लोकसभा में भी अपनानी होगी.
पर यह संकेत उस संकेत से पीछे रह जाते हैं, जो कहता है कि जाति, धर्म और संप्रदाय की दीवारें भी तोड़ी जा सकती हैं, अगर राज जैसे जज़्बे से चुनाव लड़ा जाए तो. फिरोज़ाबाद में जीतने का राज को कितना विश्वास था, पता नहीं. पर किसी और को नहीं था. कम से कम कांग्रेस में यह विश्वास नहीं था कि राज जीत ही जाएंगे. ठीक वैसे ही जैसे मुलायम सिंह को विश्वास नहीं था कि वे हार जाएंगे. राज की जीत के पीछे राजबब्बर का समाजवादी विश्वास, उनका जुझारूपन और अपने को साबित करने की अदम्य लालसा थी, जिसने उन्हें हार मानने को विवश कर दिया, जो अपने को राजनैतिक महाशक्ति समझते थे.

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