jailकश्मीर में पिछले पांच माह से जारी हिंसात्मक स्थिति में पुलिस के हाथों मानवाधिकार का धड़ल्ले से उल्लंघन हुआ है. पुलिस के हाथों में मानवाधिकार को कुचलने का जो सबसे कारगर हथियार है, उसका नाम है, पब्लिक सेफ्टी एक्ट. आमतौर पर काला कानून कहे जाने वाले इस एक्ट के तहत पुलिस किसी भी व्यक्ति को पकड़ कर अदालत में पेश किए बगैर छह माह से दो साल के लिए जेल भेज सकती है.

दक्षिणी कश्मीर के डूरु कोकरनाग के पूर्व सरपंच सज्जाद अहमद मलिक को पुलिस ने डेढ़ माह पहले पथराव करने के आरोप में इसी काले कानून के तहत पकड़ा था. उसके घर वालों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और जमानत पर उसकी रिहाई का अदालती आदेश हासिल किया. लेकिन पुलिस ने इस अदालती आदेश के बावजूद सज्जाद को रिहा नहीं किया.

एक दिसंबर की शाम तीसरे पहर इलाके में जंगल की आग की तरह यह खबर फैल गई कि डेढ़ माह से कैद सज्जाद पुलिस के हाथों मारा गया है. सज्जाद के परिजनों ने इल्जाम लगाया है कि पुलिस ने हिरासत के दौरान सज्जाद का कत्ल कर दिया है. लिहाजा, पुलिस का कहना है कि सज्जाद ने एक पुलिसकर्मी से राइफल छीनकर फरार होने की कोशिश की थी और बाद में मुठभेड़ के दौरान मारा गया.

सज्जाद कांग्रेस पार्टी से संबंध रखता है, राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष जीए मीर ने इस घटना के बारे में चौथी दुनिया के साथ बात करते हुए कहा कि यह एक फर्जी पुलिस एनकाउंटर था, जिसमें सज्जाद मारा गया है. मीर ने कहा कि उन्होंने सरकार से इस घटना की न्यायिक जांच कराने की मांग की है. जीए मीर इस इलाके से असेंबली के लिए चुने गए हैं.

उन्होंने कहा कि मैं सज्जाद को बहुत अच्छी तरह से जानता हूं और मुझे यकीन है कि पुलिस ने इस कत्ल को छुपाने के लिए एक फर्जी कहानी गढ़ ली है. गौर करने वाली बात ये है कि यह कश्मीर में होने वाली ऐसी पहली और अनोखी घटना नहीं है. बल्कि यहां इस तरह के दर्जनों मामले सामने आ चुके हैं.

घाटी में मानवाधिकार के लिए काम करने वाले एक प्रमुख कार्यकर्ता खुर्रम परवेज को पुलिस ने पिछले दिनों 76 दिन की कैद के बाद रिहा कर दिया. सरकार ने खुर्रम को सितंबर के दूसरे सप्ताह में जेनेवा में आयोजित संयुक्त राष्ट्रसंघ की मानवाधिकार कौंसिल मीटिंग में शामिल होने से रोक दिया था.

उसके कुछ ही दिनों बाद पुलिस ने उन्हें पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया. राज्य की अदालत ने खुर्रम के केस की सुनवाई के दौरान पुलिस के आरोप को कमजोर और बिना सबूत के पाया और तुरंत उनकी रिहाई का आदेश दिया. पुलिस के आरोपों में कितना दम था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुर्रम के खिलाफ दर्ज केस में उनके पिता का नाम तक गलत लिखा गया.

अदालत ने अपने फैसले में इस गिरफ्तारी को गैरकानूनी और ताकत का गलत इस्तेमाल करार देते हुए पुलिस को निर्देश दिया कि खुर्रम को फौरन रिहा किया जाए. पुलिस सीनाजोरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फौरी रिहाई के अदालती आदेश के बावजूद खुर्रम को पांच दिन बाद छोड़ा गया.

Read also : ये हैं उत्तर प्रदेश के सरकारी आतंकवादी

पब्लिक सेफ्टी एक्ट के गलत इस्तेमाल के बुनियादी कारणों में एक कारण यह भी है कि इस कानून के तहत किसी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को अदालती आदेश लेने की जरूरत नहीं पड़ती है. यही वजह है कि पुलिस इस कानून के तहत कम उम्र के बच्चों को भी गिरफ्तार कर लेती है.

एक दिसंबर को श्रीनगर हाईकार्ट ने एक फैसले में साफ किया है कि पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत पुलिस किसी नाबालिग को गिरफ्तार नहीं कर सकती है. यह आदेश अदालत ने एक केस की सुनवाई के दौरान दिया. इस केस के मुताबिक पुलिस ने दक्षिणी कश्मीर के मटन क्षेत्र के एक नाबालिग बच्चे तनवीर अहमद वट्‌ट को जन सुरक्षा अधिनियम के तहत गिरफ्तार कर लिया था.

पुलिस आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच महीनों के दौरान गिरफ्तार किए गए हजारों लोगों में से 600 लोगों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार करके जेल भेजा गया है. कानूनविदों के मुताबिक पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत अगर कोई बेकसूर गिरफ्तार हो जाता है, तो उसको अदालत के संज्ञान में लाने में महीनों लग जाते हैं.

श्रीनगर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष एडवोकेट मियां अब्दुल कैय्यूम ने इस सिलसिले में चौथी दुनिया से बात करते हुए कहा कि हम जब पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत बंद किसी व्यक्ति का केस लेकर अदालत में जाते हैं, तो पहली ही पेशी पर अदालत पुलिस को जवाब देने के लिए चार हफ्ते का वक्त दे देती है. अक्सर ऐसा होता है कि पुलिस को जवाब देने में कई महीने लग जाते हैं.

तब कहीं जाकर अदालत को यह समझने का मौका मिलता है कि यह आरोप सच्चा है या झूठा. विशेषज्ञों का कहना है कि असल में पब्लिक सेफ्टी एक्ट को गलत आरोपों के तहत लोगों को बंद करने के लिए ही वजूद में लाया गया था. ये कानून 1977 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए लागू कराया था.

हालांकि शुरू में ये कहा गया कि इस कानून को सिर्फ वन तस्करों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा ताकि यहां हरे-भरे जंगलों को लूटने-खसोटने से रोका जा सके. लेकिन बाद की परिस्थितियों ने ये साबित किया कि यह कानून राजनीतिक विरोधियों को काबू में करने के लिए बनाया गया है. इस कानून को राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल करने का सिलसिला पहली बार 1977 में शुरू हुआ था.

जब कश्मीर मोटर ड्राइवर एसोसिएशन के अध्यक्ष गुलाम नबी को जनता पार्टी का समर्थन करने की वजह से पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया. इस कानून के तहत होने वाली यह पहली गिरफ्तारी थी. यानी जंगल तस्करों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए बनाए गए कानून का पहला इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिए किया गया.

मानवाधिकार की अंतरराष्ट्रीय संस्था ने हाल ही में पब्लिक सेफ्टी एक्ट को अंधा कानून करार दिया. अपनी रिपोर्ट में एमनेस्टी ने कहा कि 1991 से अबतक कश्मीर में 20 हजार लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है. मौजूदा उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने वर्ष 2004 में उस वक्त की यूपीए सरकार के द्वारा स्थापित वर्किंग ग्रुप के प्रमुख की हैसियत से कहा था कि पब्लिक सेफ्टी एक्ट के जरिए मानवाधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है.

दिलचस्प बात यह है कि इस कानून का इस्तेमाल हर सरकार करती रही है. साल 2008 से 2014 तक नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के शासन काल में 1127 लोगों को पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया था. जबकि मौजूदा सरकार भी खासतौर पर पिछले महीने से इस कानून का अंधाधुंध इस्तेमाल करने में लगी हुई है.

साफ जाहिर है कि कश्मीर में पुलिस के द्वारा मानवाधिकार हनन का सबसे बड़ा हथियार पब्लिक सेफ्टी एक्ट ही है. यह कानून जब तक लागू रहेगा, कसूरवारों के साथ-साथ न जाने कितने बेकसूर लोग भी इसकी बलि चढ़ते रहेंगे.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here