bदेश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अमेरिका गए, तो उन्होंने वहां कहा कि साठ साल में हमने बड़ी प्रगति की है और हम मंगल ग्रह पर अमेरिका से बातें कर रहे हैं. अमेरिका में मौजूद भारतीयों ने तालियों की गड़गड़ाहट से मंगल ग्रह पर भारत की उपस्थिति का और मंगल ग्रह पर अमेरिका से बात करने की बात का पुरजोर स्वागत किया. यह बात प्रधानमंत्री ने कई जगह दोहराई, लेकिन वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भारत लौटकर आए और उन्होंने हरियाणा की सभाओं में भाषण दिए, तो कहा कि साठ साल में इस देश में कुछ नहीं हुआ. तब मन में सवाल उठा कि सत्य क्या है? क्या मई में नरेंद्र मोदी जी के शपथ ग्रहण के कुछ दिनों के भीतर ही हमने मंगल यान छोड़ा था? मंगल यान तो बहुत पहले मंगल की ओर रवाना हो गया था. इस उपलब्धि का श्रेय प्रधानमंत्री ने स्वयं और देश को दिया. क्या यह मानें कि देश का प्रधानमंत्री दो तरह की भाषा बोलता है, विदेश में एक तरह की और देश में दूसरी तरह की? या फिर देश का प्रधानमंत्री थोड़ा कन्फ्यूज हो गया है.
नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे, तो वह दिन कट ऑफ डेट के रूप में याद किया जा सकता है. उसके पहले नरेंद्र मोदी हर जगह इंटरव्यू दे रहे थे, भाषण दे रहे थे और अपनी बात जोर-शोर से कह रहे थे. पर जैसे ही उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उन्होंने तय किया कि वह चुप रहेंगे और वह अचानक खामोश हो गए. कोई भी घटना हो, कोई भी विषय हो, किसी भी प्रकार की घोषणा हो, प्रधानमंत्री हमेशा चुप रहे. इस पर लोगों को आश्‍चर्य हुआ. सोशल मीडिया में शोर मच गया कि एक नया मौनी बाबा आ गया है, जो किसी भी सवाल पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं देना चाहता. चूंकि सोशल मीडिया नरेंद्र मोदी के दिमाग में बस गया है और उन्हें लग रहा है कि सोशल मीडिया ने ही उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की हवा बनाने में बड़ा महत्वपूर्ण रोल अदा किया है, इसलिए शायद अचानक वह चार महीने की खामोशी के बाद प्रो-एक्टिव हो गए हैं. और, इस प्रो-एक्टिव होने का उन्होंने मैदान चुना है उपचुनाव का. हरियाणा और महाराष्ट्र का मैदान. जहां वह सबसे बड़े स्टार कैंपेनर के रूप में दिन में चार-चार, पांच पांच सभाएं कर रहे हैं और अपनी बातें रख रहे हैं. क्या इसे हम प्रधानमंत्री का सचमुच कन्फ्यूजन मानें कि वह उलझ गए हैं कि आख़िर अपनी तस्वीर बनाएं, तो कैसे बनाएं. हरियाणा के चुनाव में प्रधानमंत्री जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं, वह भाषा उनकी पार्टी को फ़ायदा भी पहुंचा सकती है और नुक़सान भी. हरियाणा में प्रधानमंत्री ने कहा कि पंचायत से केंद्र तक साठ साल से कांग्रेस का राज केवल घोटाले के लिए याद किया जाएगा. लेकिन, हरियाणा में कांग्रेस के अलावा भी सरकारें रही हैं और अगर वह हरियाणा में कह रहे हैं कि केंद्र से लेकर पंचायत तक घोटाले हुए हैं, तो ये दूसरे राज्यों में भी हुए होंगे. खुद प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी के 24 उम्मीदवार या तो डिफॉल्टर हैं या मनी लाउंडरिंग का उनके ऊपर केस चल रहा है. सवाल दिमाग में उठता है कि भाषण लोगों के लिए है, अपनी पार्टी के लिए शायद नहीं है.

नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे, तो वह दिन कट ऑफ डेट के रूप में याद किया जा सकता है. उसके पहले नरेंद्र मोदी हर जगह इंटरव्यू दे रहे थे, भाषण दे रहे थे और अपनी बात
जोर-शोर से कह रहे थे. पर जैसे ही उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उन्होंने तय किया कि वह चुप रहेंगे और वह अचानक खामोश हो गए. कोई भी घटना हो, कोई भी विषय हो, किसी भी प्रकार की घोषणा हो, प्रधानमंत्री हमेशा चुप रहे. इस पर लोगों को आश्‍चर्य हुआ. सोशल मीडिया में शोर मच गया कि एक नया मौनी बाबा आ गया है, जो किसी भी सवाल पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया नहीं देना चाहता.

कहीं देश के प्रधानमंत्री के दिमाग में एक अलग तरह का कन्फ्यूजन तो नहीं है कि उनके सामने लक्ष्य बचा क्या है. देश के सबसे ताकतवर पद का लक्ष्य उन्होंने पा लिया है. अब इसके आगे कहीं जाना नहीं है. इससे बड़ा कोई पद है नहीं. अब इस लक्ष्य को दोहराना भर बाकी है यानी एक बार प्रधानमंत्री, फिर दूसरी बार प्रधानमंत्री, फिर तीसरी बार प्रधानमंत्री. लेकिन, शायद अब यह वक्त जवाहर लाल नेहरू एवं इंदिरा गांधी का वक्त नहीं है. यह वक्त 2014 का है, जब घर-घर में जानकारियां भी हैं, उन जानकारियों को सत्यापित करने के इंस्ट्रूमेंट भी हैं. इसलिए अब सपने दिखाने से काम नहीं चलेगा. सपनों को थोड़ा पूरा करने की दिशा में बढ़ना पड़ेगा.
नरेंद्र मोदी के अपने उत्साह के भी कारण हैं और उस उत्साह में वह उपमा और अलंकार जोड़ते हैं. शायद नौकरशाहों के बताए तथ्यों पर वह अपने बयान बनाते हैं और उत्साह में देश के लोगों से हर रविवार दिन में 11 बजे रेडियो पर बात करने का वादा करते हैं, लेकिन अगला ही रविवार खाली चला जाता है. सारे देश में लोग नरेंद्र मोदी की प्रतीक्षा करते हैं, पर नरेंद्र मोदी रेडियो पर दिखाई (सुनाई) नहीं देते. नरेंद्र मोदी जब मुख्यमंत्री थे, तब शायद वह ज़्यादा स्पष्ट थे. वह जिन चीजों का जवाब नहीं देना चाहते थे, नहीं देते थे, चुुुप हो जाते थे या उठकर चले जाते थे. मानना चाहिए कि वह उस समय अच्छे नौकरशाहों के साथ मुख्यमंत्री पद का निर्वाह कर रहे थे. इस बार के नौकरशाह भी तो उन्हीं के चुने हुए हैं. क्या इस बार दो महीने चुुप रहने का ़फैसला उन्होंने खुद लिया या नौकरशाहों के कहने पर? प्रधानमंत्री को बिल्कुल साफ़ दृष्टिकोण और नक्शा बताने वाला होना चाहिए. कभी जब हम प्रधानमंत्री को सुनते हैं, तो वह महान बुद्धिमान नज़र आते हैं, पर कभी जब हम प्रधानमंत्री को सुनते हैं, तो कुछ संदेह-सा पैदा हो जाता है. इन चुनावों में महाराष्ट्र में नरेंद्र मोदी जी ने कहा, शिवाजी की धरती को, जब तक मैं दिल्ली में प्रधानमंत्री हूं, बंटने नहीं दूंगा. यह कहते हुए नरेंद्र मोदी यह भूल गए कि महाराष्ट्र में उनकी पार्टी विदर्भ को अलग करने का वादा करके ही चुनाव लड़ रही है. अब प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद भाजपा में अंदरूनी तौर पर कोहराम मचा हुआ है. इस कोहराम की कोई चिंता नरेंद्र मोदी को नहीं है. यह कैसे हो सकता है कि नरेंद्र मोदी को अपनी पार्टी के चुनावी अभियान की मूलभूत बातों का पता न हो? या तो नरेंद्र मोदी अभियान की मूलभूत बातों को गलत मानते हैं और या फिर जानकारी नहीं लेते हैं.
जानकारी नहीं लेते हैं, यह समझ में नहीं आता, क्योंकि मध्य प्रदेश के इंटरनेशनल इन्वेस्टर्स मीट में प्रधानमंत्री का भाषण रोचक था और कुछ क़दमों को साफ़ करने वाला था. इसका मतलब यह कि उन्होंने मध्य प्रदेश जाने से पहले मध्य प्रदेश का अच्छी तरह अध्ययन किया था. तो फिर चुनावों में वह जिस तरह की बातों का प्रदर्शन करते हैं, वे तथ्यों से परे जाती क्यों दिखाई देती हैं?
इस चुनाव के दौरान ही पाकिस्तान की तरफ़ से भारत के ऊपर तेजी से गोलाबारी होनी शुरू हो गई. देश के रक्षा मंत्री अस्पताल में अपना इलाज करा रहे थे, इसलिए वह कोई बयान दे नहीं पा रहे थे. प्रधानमंत्री ने बयान देना उचित नहीं समझा और सेना अध्यक्ष चुप रहे. पाकिस्तान यूनाइटेड नेशन्स में चला गया और उसने शिकायत की कि भारत की तरफ़ से तेजी से गोलाबारी हो रही है. जब मुझसे एक विदेशी जर्नल ने पूछा कि सियालकोट में भारत ने एकतरफ़ा पाकिस्तानी चौकियों पर गोलियां चलाई हैं? तब मैंने उनसे कहा कि क्यों नहीं आप अपने दिल्ली स्थित संवाददाता को सीमा के उन गांवों में भेजते हैं, जहां की लाशों के चित्र हमने टेलीविजन पर देखे हैं, रातों में लोगों को भागते देखा है, लोगों के घरों पर गोले गिरते देखे हैं और मौतों से कई गुना घायलों की संख्या देखी है. अगर कोई सही दिमाग वाला रक्षा मंत्री होता, तो वह विदेशी और भारतीय पत्रकारों को अपनी तरफ़ से उन जगहों पर ले जाता, जहां पाकिस्तान भीषण गोलाबारी कर रहा है. पर सरकार ने यह ज़िम्मा पत्रकारों के खुद के ऊपर छोड़ दिया. इसलिए पत्रकार जहां-जहां जा सकते थे, वहां गए, पर सीमा के नजदीक नहीं जा सके, जहां से सीधी गोली घर की तरफ़, नागरिकों की तरफ़ या सीने की तरफ़ आती है. जब तक अरुण जेटली वित्त मंत्री थे, तब तक प्रधानमंत्री को रक्षा मंत्री के तौर पर किसी को ज़्यादा ज़िम्मेदारी देनी चाहिए थी. पर शायद अब वक्त आ गया है कि प्रधानमंत्री अपने इस कन्फ्यूजन से बाहर निकल आएं और हमें विश्‍वास है कि वह निकल आएंगे. और, वह चीन को भी उत्तर देने की उसी भाषा का इस्तेमाल करेंगे, जिस भाषा का इस्तेमाल इस सरकार के गृह मंत्री और रक्षा मंत्री पाकिस्तान के लिए कर रहे हैं. पाकिस्तान हमारे लिए बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, हमारे लिए बड़ा मुद्दा चीन है. पर अगर हम चीन की तरफ़ अपनी आंखें बंद रखेंगे और सारा ध्यान पाकिस्तान की तरफ़ लगाएंगे, तो शायद हम देश के प्रति अपने कर्तव्यों के पालन में कोताही करेंगे. ये सारे सवाल लोगों के सवाल हैं, जो वे बातचीत के दौरान हमसे व्यक्त करते हैं और हमारा यह फर्ज है कि हम इन सवालों को टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, लेकिन प्रधानमंत्री के सामने प्रस्तुत करें और यह आशा करें कि प्रधानमंत्री को इतिहास ने जैसा अवसर दिया है, उस अवसर का इस्तेमाल वह इस देश के लोगों की ज़िंदगी में खुशहाली लाने में करेंगे. और, खुशहाली लाने का पहला रास्ता महंगाई एवं बेरोज़गारी दूर करने की योजना बनाना है. अफ़सोस की बात यह है कि अभी सरकार महंगाई एवं बेरोज़गारी से लड़ने का कोई रास्ता तलाशती नज़र नहीं आ रही है. शायद प्रधानमंत्री जी अपना कन्फ्यूजन दूर करें, तब वह इस रास्ते के बारे में सोचें. अनुरोध है, प्रधानमंत्री जी, जल्दी कीजिए.

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