प्रभाष जोशी का जाना एक फकीर का जाना है. प्रभाष जोशी का जाना एक योगी का जाना है. प्रभाष जोशी का जाना एक संत का जाना है. जैसे योगी संत और फकीर नए रास्ते बनाते हैं, अंधेरे में दिया जलाते हैं, वैसे ही प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता के जगत में नए रास्ते बनाए और पत्रकारिता के भटकाव के अंधेरे में दिए जलाए. अक्सर लोग फकीर, योगी और संत के बताए रास्ते पर दूसरों को चलने के लिए तो कहते हैं पर खुद नहीं चलते. वैसे ही संभावना इसी बात की है कि प्रभाष जी के बताए रास्ते पर स्थापित पत्रकार कम चलेंगे, आने वाले पत्रकारों को चलने की सलाह ज्यादा देंगे.
शायद यह बात प्रभाष जी को पता थी, इसलिए उन्होंने स्वयं को सक्रिय पत्रकारिता का पर्याय बना लिया था. वे जितने सक्रिय शुरुआती दिनों में थे, उससे ज्यादा सक्रिय वे जीवन के आखिरी दिनों में थे. तिहत्तर साल की उम्र में देश में हर उस जगह जाने के लिए तैयार रहना जहां किसी नई संभावना की गुंजाइश हो, प्रभाष जी को पत्रकारिता का इतिहास पुरुष बना गया. मृत्यु से दो दिन पहले वाराणसी, उसके बाद लखनऊ और देहावसान की रात के अगले ही दिन उनका उत्तरपूर्व जाने का कार्यक्रम था. छह तारीख की सुबह का हवाई जहाज प्रभाष जी को लिए बिना ही उड़ गया, क्योंकि पांच और छह नवंबर की रात साढ़े ग्यारह बजे के आसपास वे खुद ईश्वर के भेजे स्वर्गयान पर चढ़ इस दुनिया से दूर चले गए.
लेकिन जाने से पहले प्रभाष जी ने पत्रकारिता के कई नए पैमाने बना दिए. उन्होंने एक नई शैली पैदा कर दी, अपने प्रशंसकों का एक ऐसा वर्ग खड़ा कर दिया जो उनमें दिशा नायक की छवि देखता था. उन्होंने पत्रकारिता को ऐसे आईने के रूप में ढाला, जिसमें सबने अपनी छवि तो देखी, पर नाराज कोई नहीं हुआ. उन्हें जो सही लगा वह लिखा, इस सही लिखने के क्रम में कई लोग घायल हुए, लेकिन उन्हें मरहम भी प्रभाष जी से ही मिला. प्रभाष जी ने कभी किसी से संवाद खत्म नहीं किया और यह उनकी सबसे बड़ी खासियत थी.
प्रभाष जी स्केंडेनेवियन देशों में डेयरी प्रबंधन सीखने गए थे, लेकिन वहां से लौट कर वे समाज के प्रबंधन में लग गए. विनोबा के ग्रामस्वराज्य ने उन्हें ऐसा खींचा कि वे उसी के होकर रह गए. विनोबा के विचारों को सरल भाषा में सजा कर सर्वोदय जगत के द्वारा देश के सामने रखने में उन्हें जो सुख मिलता था, उसका आनंद वे हमेशा लेते थे. जयप्रकाश जी का साथ उन्हें संपूर्ण क्रांति का वैचारिक प्रवक्ता बना गया और यहीं से उनमें पैदा हुआ सत्ता विरोधी पत्रकारिता का आवेग.
प्रजानीति आपात काल में बंद हो गया और बाद में निकला जनसत्ता. जनसत्ता और प्रभाष जोशी एक दूसरे के पर्याय बन गए. इसके बाद प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता का अब तक का सबसे ऊंचा शिखर छू लिया. वह शिखर था लोगों का प्यार, पाठकों का विश्वास जिसकी हद ही कहीं नहीं थी.
यह एक अंतर्विरोध जैसी स्थिति थी. एक ओर समूची पत्रकारिता मसखरेपन में बदल रही थी, दूसरी ओर प्रभाष जी के लिखे गए वाक्य उदाहरण के रूप में पेश किए जा रहे थे. प्रभाष जी जीते जागते संस्थान में तब्दील हो गए थे. उन्होंने नए पत्रकार बनाए, बने पत्रकारों को गढ़ा, नए लिखने वालों को उत्साहित किया, इतना ही नहीं, विभिन्न विषयों पर लिख उन्होंने सारी पत्रकार बिरादरी के सामने अच्छा और सच्चा लिखने की चुनौती भी पेश की और उदाहरण भी प्रस्तुत किया.
प्रभाष जी केवल हिंदी के पत्रकार नहीं थे, वे देश के पत्रकार थे और सभी भाषाओं के आदरणीय थे. उनकी बात सुनने के लिए उन्हें सभी भाषा भाषी अपने यहां आमंत्रित करते थे. वे उस मुकाम पर पहुंच गए थे, जहां सभी उनसे कुछ छोटे दिखाई देते थे, चाहे वे राजनेता हों, खिलाड़ी हों, रंगमंच के लोग हों या फिर पत्रकार हों. उनके जाने का हम सब शोक मना रहे हैं, लेकिन क्या सचमुच हम शोक मना रहे हैं या शोक मनाने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं. जब वे जीवित थे, तब कितनों ने उनके द्वारा उठाए सवालों पर उनका साथ दिया. सत्य यही है कि उनका साथ बहुत कम लोगों ने दिया. प्रभाष जी हताश नहीं थे, लेकिन कुछ निराश अवश्य थे. राजनीति और आर्थिक स्थिति ने उन्हें व्यथित कर रखा था. किसानों की ज़मीन जिस तरह से सरकारें छीन रही हैं, वह उन्हें परेशान कर रहा था. एसईजेड के खिलाफ किसानों के आंदोलन में वे कई जगह शामिल हुए. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियों के वे घनघोर विरोधी थे. राष्ट्रीय राजनीति में वे चंद्रशेखर और विश्वनाथ प्रताप सिंह के व्यक्तिगत रूप से नजदीक थे, इन दोनों के देहावसान ने उन्हें काफी उदास कर दिया था. प्रभाष जी की आशा भाजपा और संघ से भी टूट चुकी थी. वे एक नया राजनैतिक प्रयोग करना चाहते थे. उन्होंने एक नया संगठन लोकमोर्चा बनाने की प्रेरणा दिग्विजय सिंह को दी तथा उसमें सक्रिय भागीदारी का वचन भी दिया. वे लोकमोर्चा का वैचारिक आधार पत्र लिख रहे थे, जो शायद अधूरा रह गया. उनका आखिरी बड़ा सार्वजनिक कार्यक्रम पटना में हुआ जिसमें जसवंत सिंह, एम जे अकबर और दिग्विजय सिंह शामिल हुए थे. इसके अगले दिन वे कार से पटना से चलकर वाराणसी पहुंचे जहां गोविंदाचार्य से उन्होंने कहा कि योजना ऐसी बनाओ जो सौ साल की हो, लेकिन जिओ ऐसे जैसे आज आखिरी दिन है. इसीलिए प्रभाष जी तिहत्तर साल तक ऐसे ही जिए, पिछले सत्ताइस सालों से उनके दिल की धड़कन को नियमित रखने के लिए पेस मेकर लगा था, पर उन्होंने कभी इसका प्रचार नहीं किया. अपनी बीमारियों को कभी उन्होंने अपने बचाव और आराम का बहाना नहीं बनाया. उनका जीवन, ख़ास तौर से जीवन के आख़िरी दस साल, उन सब के लिए उदाहरण हैं जो साठ वर्ष पूरा करते न करते अपने को बूढ़ा मान रिटायर होना चाहते हैं. वे जांबाज़ थे और ऐसे इंसानों को केवल मौत ही रिटायर करती है. प्रभाष जी को भी मौत ने ही रिटायर किया.
फकीर, योगी और संत के दुनिया से विदा लेने का शोक नहीं मनाया जाता. प्रभाष जी के जाने का भी शोक नहीं मनाया जाना चाहिए. शोक उन्हें मनाना चाहिए जो प्रभाष जी की ज़िंदगी का अनुसरण नहीं करना चाहते, शोक उन्हें मनाना चाहिए जो प्रभाष जी की पत्रकारिता में विश्वास नहीं करते, अ़फसोस उन्हें ज़ाहिर करना चाहिए जो देश औऱ पत्रकारिता को अलग-अलग मानते हैं. लेकिन जो प्रभाष जोशी को जानते हैं, मानते हैं और विश्वास करते हैं, उनके लिए प्रभाष जोशी एक नया ध्रुव तारा हैं. ऐसा ध्रुव तारा, जो पत्रकारिता के कठोर रास्ते पर चलने वालों को घनघोर अंधेरे में सच्चाई तलाशने वालों को हमेशा दिशा का ज्ञान कराता रहेगा. ध्रुवतारे के रूप में आप हमेशा जीवित रहेंगे प्रभाष जी.