विलास रविराज अपने छह वर्षीय बीमार पुत्र दिलीप के साथ गया (बिहार) के अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल आए हैं. दिलीप का पूरा चेहरा पट्टियों से ढंका है, बिल्कुल जेब्रा क्रॉसिंग की तरह. बच्चे की दादी भी गांव से उसके साथ आई हैं. विलास रविराज मुसहर जाति के हैं. उनका गांव उटलीबारी गया ज़िले में ही है, शहर से 30 किलोमीटर की दूरी पर. दिलीप के पिता उसके शरीर पर झुके हुए हैं और सीरिंज से उसकी नाक में लगे ट्‌यूब के ज़रिए उसे दूध पिला रहे हैं. अस्पताल के बच्चा वार्ड में एक भी बिस्तर खाली नहीं है. सभी बिस्तरों पर बच्चे भर्ती हैं. लगभग सभी एक जैसी बीमारी से पीड़ित हैं. प्रत्येक बिस्तर के बगल में बच्चे के माता-पिता और क़रीबी रिश्तेदार खड़े हैं. शरीर पर फटे-पुराने और मैले-कुचैले कपड़े तथा आंखों में डर समाया हुआ है. तभी ज़िला स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी आते हैं और मुसहरों मेंमेनिनजाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) और एनसिफलाइटिस की बीमारी के महामारी का रूप ले लेने की घोषणा करते हैं. वहां जितनी भी बार नर्स आती है और परिजनों से बच्चों के बारे में कुछ बताती है तो तीमारदारी में लगे परिजनों की आंखों में समाया डर व भ्रम गहराता चला जाता है.
बिहार में मुसहरों की आबादी 30 लाख के क़रीब है. यूं तो मुसहर पूरे राज्य में फैले हैं, लेकिन गया ज़िले में उनकी आबादी सबसे ज़्यादा है. उनके रहन-सहन का तरीक़ा कुछ ऐसा है कि मवेशीवाड़े और उनके घर में फर्क़ करना मुश्किल हो जाता है. सूअरों के बाड़े और गाय के बथान के क़रीब ही वे रहते हैं. इस वजह से इस समुदाय के बच्चों के संक्रामक रोगों से ग्रसित होने की आशंका का़फी बढ़ जाती है. गया के अस्पताल में महज़ चंद दिनों में ही इस महामारी से कई दर्ज़न बच्चों की मौत हो गई. लेकिन, अस्पताल के कर्मचारी कहते हैं कि ऐसे बच्चों की संख्या कहीं ज़्यादा है, जिन्हें चिकित्सकीय सुविधा मिली ही नहीं और अगर मिली भी तो उसे किसी भी लिहाज़ से समुचित या पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. यह लगातार तीसरा साल है, जबकि गया ज़िले में मस्तिष्क ज्वर को महामारी घोषित किया गया है. मुसहर देश के सर्वाधिक बदहाल समुदायों में एक है. उसकी दयनीय दशा को ध्यान में रखकर बिहार सरकार ने मुसहरों को महादलित की श्रेणी में रखा है. मुसहरों को ज़्यादातर लोग चूहा खाने वाले समुदाय के तौर पर जानते हैं. ऐसा माना जाता है कि मूसा (चूहा) आहार (भोजन) होने के कारण ही वे मुसहर कहलाए. यह एक ऐसी पहचान है, जिससे वे छुटकारा पाना चाहते हैं, लेकिन उनमें चूहे खाने का चलन अब भी जारी है. यहां तक कि उस गांव में भी, जहां मैं गया था. गांव वाले बार-बार मेरे अनुरोध करने के बावजूद चूहा मारने को तैयार नहीं हुए. मेरे साथ गए फोटोग्राफर उसकी तस्वीर लेना चाहते थे और प्रत्येक चूहे के लिए उन्हें दस रुपये देने का प्रलोभन दे रहे थे, लेकिन कैमरे के सामने उन्होंने चूहा पकड़ने से सा़फ मना कर दिया. इस समुदाय के सामने यह एक बड़ी परेशानी है. उनकी शिक़ायत है कि उस इलाक़े में रहने वाले अगड़ी जाति के लोग और बात का बतंगड़ बनाकर सनसनी फैलाने वाली मीडिया भी मुसहरों के अस्तित्व को चूहा खाने वाले समुदाय से जोड़कर ही देखती है. लेकिन, उनके रहन-सहन का बदतर तरीक़ा इस बात को सही ठहराता है कि मानव जीवन के लायक़ जो दशा होनी चाहिए, वे उस क़ाबिल हैं ही नहीं.
अब जरा इस विरोधाभास की ओर भी ग़ौर कीजिए. 68 वर्षीय द्वाराको सुंदरी मूलतः सिंधी हैं. विभाजन के समय वह सीमा के इस पार भारत आ गए. जब वह 20 साल के थे तो आचार्य विनोबा भावे ने उन्हें बोधगया आने और एक आश्रम बनाने के लिए प्रेरित किया. ऐसा आश्रम, जहां मुसहरों को शिक्षित और पोषित किया जा सके. वह 30 से भी ज़्यादा वर्षों से स्कूल चला रहे हैं,

बिना किसी सरकारी सहायता के. बोधगया की पवित्र भूमि की यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा दान में उन्हें जो रक़म मिलती है,उसी के सहारे वह इस काम को अंजाम दे रहे हैं. सामाजिक कार्यों के लिए 1992 में वह जमनालाल बजाज पुरस्कार से भी सम्मानित किए जा चुके हैं.

इस इलाक़े के जितने भी शिक्षित मुसहर हैं, उनके ही स्कूल से पढ़कर निकले हैं. राजनीति में अपनी पहचान बना रहे बिस्वास मांझी भी. आगामी विधानसभा चुनाव में वह राजद के टिकट पर क़िस्मत आजमाने की इच्छा रखते हैं. बिस्वास मांझी के मुताबिक़, द्वाराको जी संत सरीखे हैं और उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया है. लेकिन मुसहरों के बारे में द्वाराको जी ने जो विचार रखे, वे विचलित करते हैं. वह कहते हैं कि बहुत सोच-विचार के बाद मुझे अहसास हुआ कि मुसहर सब-ह्यूमन कम्युनिटी के लोग हैं. जय प्रकाश नारायण एक बार मेरे आश्रम में आए तो उन्होंने भी मुझसे यही कहा था. अब वर्षों बाद मुझे इस बात से सहमत होना पड़ रहा है. मेरे ऐसे कई छात्र हैं, जिन्हें मैंने अपने माता-पिता को घर से बाहर फेंकते देखा है. इसलिए, क्योंकि वे कमा नहीं सकते. औरतें मुझसे यह शिक़ायत करती हैं कि उनके पति उन्हें पत्नी मानने से इंकार कर रहे हैं. कई परिवार में तो लोगों ने अपने बच्चों को ही छोड रखा है. क्या यह आदमियों के जीने का तरीक़ा है? जब मैंने उनका ध्यान इस बात की ओर दिलाया कि जिन बातों का आप ज़िक़्र कर रहे हैं, वे दुनिया के दूसरे समुदायों, यहां तक कि अमेरिका जैसे देशों में भी चलन में हैं तो उन्होंने मेरी आपत्तियों को दरकिनार कर दिया. द्वाराको जी ने मुसहरों के बच्चों के लिए जितना किया है, उतना दुनिया में किसी ने नहीं किया है. जब वह इन बच्चों के बारे में बता रहे होते हैं तो बातचीत में बच्चों के प्रति उनका गहरा जुड़ाव सा़फ झलकता है. लेकिन मुसहर समुदाय के साथ 30 वर्षों तक प्रत्यक्ष तौर पर ज़ुडे रहने के बाद भी एक स्पष्ट भेद नज़र आता है.
बोधगया शहर, जहां कि महात्मा बुद्ध को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, सैकड़ों सिर मुंडाए जापानी और यूरोपीय पर्यटक बैठकर विदेशी लापसांग सूचुंग और बबल टी का आनंद लेते दिखाई देते हैं. वहीं से 15 मिनट की ड्राइविंग दूरी पर पररिया गांव है. क़रीब 300 घरों वाले इस गांव की आबादी 1200 है. गांव में मिट्टी से बनी झोंपड़ियों तक पहुंचने के लिए आपको कुछ दूरी तक पानी और कीचड़ से होकर गुज़रना होगा. भारत के तमाम दूसरे गांवों की तरह ही यहां भी टोलों का विभाजन जातियों के आधार पर हुआ है. यहां थोड़ी दूरी पर यादव और पासवान जाति के लोगों का टोला है. उक्त दोनों जातियां पिछड़ों और दलितों में अगड़ी मानी जाती हैं. दोनों ही जाति के लोग वर्षों तक लालू यादव और रामविलास पासवान की छत्रछाया में रहे. गांव में जो बड़े मकान हैं, वे राजपूतों (ठाकुरों) के हैं. राजपूत इस इलाक़े के भू-पति हैं. मुझे बताया गया कि यहां कुछ मुस्लिम परिवार भी हैं, जो अलग टोलों में रहते हैं. मुसहर जिन घरों में रहते हैं, वे बेहद साधारण हैं और गांव में उनकी हैसियत उसके अनुरूप ही है. उनकी ज़्यादातर झोंपड़ियों में दो कमरे हैं, लेकिन खिड़की किसी में भी नहीं. घर के साथ जो थोड़ी सी खुली जगह होती है, उसका इस्तेमाल वे रसोई पकाने के लिए करते हैं. दरवाजे और छत इतनी कम ऊंचाई वाले कि बिना कमर झुकाए आप अंदर जाने की सोच भी नहीं सकते. मुसहरों के घरों की ऊंचाई यादवों के घर से अधिक नहीं हो सकती और न ही उनकी हैसियत.  कुलेश्वर मांझी और उनकी पत्नी सुदामा देवी 30 सालों से विवाहित जीवन जी रहे हैं. उनके पांच बच्चे हैं. चार बच्चे घर के अंदर और बाहर इस तरह धमाचौकड़ी मचाते रहते हैं जैसे चूहे. यहां के मुसहरों के पास ज़मीन भी है. आम तौर पर इस समुदाय के लोगों के पास ज़मीन देखने को नहीं मिलती. गया बिहार के गिने-चुने इलाक़ों में है, जहां मुसहरों की राजनीति पर भी मज़बूत पकड़ है. कुछ साल पहले यहां भूमि पुनर्वितरण योजना लागू की गई थी. इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक परिवार को उसके गांव के क़रीब ही खेती के लिए थोड़ी ज़मीन उपलब्ध कराई गई थी. लेकिन, जब ज़मीन हो और पानी न हो तो उस ज़मीन का कोई मतलब नहीं रह जाता. यह तो भूमिहीन होने जैसा ही है. मुसहर भूमि के सबसे छोटे टुकड़ों के स्वामी हैं, लेकिन वे टुकड़े बेकार ज़मीन का हिस्सा हैं. खेती के दिनों में मांझी और उनकी पत्नी का ज़्यादातर समय अब भी यादवों की ज़मीन पर मज़दूरी करते बीतता है. प्रत्येक मुसहर मज़दूर को पूरे दिन की हाड़तोड़ मज़दूरी के बदले यादव भू-स्वामी की ओर से स़िर्फ 15 रुपये मिलते हैं और वह मज़दूर अगर औरत हुई तो उसे बस थोडा सा अनाज दे दिया जाता है. मुसहर मज़दूरिन को पैसे नहीं मिलते. मुसहरों के पास थोड़ी-बहुत ज़मीन भी है, फिर वे मज़दूरी क्यों करते हैं? कुलेश्वर मांझी के मुताबिक़, यहां पटवन की कोई व्यवस्था नहीं है. इसलिए हमारे पास जो भी ज़मीन है, उस पर किसी भी फसल की सिंचाई नहीं कर सकते. लेकिन, जिन इलाक़ों में ऊंची जाति के लोग रहते हैं, सरकार ने वहां पंप और पाइप लगवा रखे हैं. इसलिए अगर हम उनकी (यादवों) ज़मीन पर मज़दूरी न करें तो कुछ और कर भी नहीं पाएंगे.
खेती का मौसम रहा तो खेतों में मज़दूरी से क़रीब पांच सौ रुपये की आमदनी हो जाती है. मांझी और सुदामा कमाई के मामले में थोड़े ख़ुशक़िस्मत हैं. उनका बड़ा लड़का भूटान में बिल्डिंग निर्माण के काम में म़जदूरी करता है और वहां से हर माह उन्हें पांच सौ रुपये भेजता है. मांझी कहते हैं कि एक हज़ार रुपये में ज़िंदगी ज़्यादा आराम से गुज़र रही है. अब मेरे तीन बच्चे स्कूल जाते हैं. लेकिन यहां रहने वाले ज़्यादातर परिवारों में ऐसा कोई नहीं है, जो उन्हें पैसे भेज सके. अगर हम यादवों के खेतों में काम करने के बदले मिलने वाले पैसों के ही सहारे रहें, तो हमारी मुश्किलें बढ़ जाएंगी.
मांझी और उनकी पत्नी सुदामा दोनों स्वीकार करते हैं कि बिना खेती वाले मौसम में जब कमाई का दूसरा कोई ज़रिया नज़र नहीं आता तो वैसे कठिन समय में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना किसी वरदान से कम नहीं है. इस योजना के कारण हर रोज उन्हें 80 रुपये की कमाई हो जाती है. इस योजना को लागू करने में बिहार सरकार का रिकॉर्ड भी अच्छा है. लेकिन, ऐसी ग़रीबी केवल असंतोष ही बढ़ाती है. प्रत्येक गांव में निम्न जाति के परिवारों के युवक इसी वजह से नक्सली बन रहे हैं. समाज के स्वरूप में कोई बदलाव न आने से वे घोर निराशा की स्थिति में हैं. द्वाराको सुंदर जी के स्कूल में पढ़ाई कर चुका मुसहर जाति का एक पूर्व नक्सली, जो अब बोधगया में अपना व्यवसाय कर रहा है, बताता है कि यहां बहुत सारे गांव ऐसे हैं, जिनका नामकरण नक्सली नायकों के नाम पर किया गया है. लोग परिवर्तन की राह देखते-देखते थक गए. मैं स़िर्फ 15 वर्ष का था, जब इन कैंपों में आता-जाता था. मैं पंचैती (न्याय) का काम देखता था. अदालत भ्रष्ट है. गांव के लोग वहां जा-जाकर थक गए. नक्सली समस्या ने ग्रामीण विकास को बुरी तरह प्रभावित किया है. प्रशासनिक अमलों के पास तो बना बनाया बहाना है कि नक्सली काम नहीं करने देते. जब मैं छोटा था, तब भी स्कूलों में शिक्षक नहीं थे. कभी भी इस इलाक़े में स्वास्थ्य विभाग का कोई कर्मचारी आया हो, मैंने नहीं देखा. आज भी यहां का यही हाल है.
पूरी दुनिया के पर्यटक बोधगया आते हैं. बिहार सरकार ने पटना और छोटे से शहर गया के बीच बेहतरीन सड़क का निर्माण कराया है. गया में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का निर्माण कराया गया है, ताकि बौद्ध पर्यटक शेष भारत से अलग-थलग रहकर यहां आ और जा सकें. विदेशियों के आने-जाने के लिए इतना कुछ ख़र्च किया गया, लेकिन यहां रहने वाले लोगों के लिए क्या किया गया?  इस ज़िले के निर्धनतम लोगों के लिए तो पर्यटन से होने वाली आमदनी का एक पैसा भी ख़र्च नहीं किया गया. मुसहर तो इन निर्धनतम लोगों का बस एक समुदाय भर है.
कपिलवस्तु का राजपाट और दुनियादारी छोड़ने के बाद बुद्ध को रोग और निराशा के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ. जब आप बोधगया से निकलेंगे तो आप ऐसी दुनिया में होंगे, जिसे ग़रीबों की मरुभूमि कहना ज़्यादा सही होगा. पररिया में अगर अमीर हैं तो स़िर्फ राजपूत. उनके पास मोटरसाइकिलें हैं, इसलिए मुख्य सड़क से गांव तक पहुंचने में उनके पैर कीचड़ से नहीं सनते. इन गांवों में जिनके पास मोटरसाइकिल है उनमें और जिनके पास नहीं है, फर्क़ करना आसान नहीं है. यह हज़ारों साल पुरानी जाति आधारित दमन, शोषण और लोकतंत्र में आत्मसम्मान से जीने की प्रति लोगों की ललक जो अब तक पूरी नहीं हो पाई है, उसकी कहानी है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here