बहुत से लोगों का मानना है कि इस दुनिया में सत्ता सुख ही ‘परम सुख’ है। मनुष्य द्वारा मनुष्य पर राज करते रहने की यह महाकांक्षा आदिम काल से चली आ रही है। यही इतिहास को बनाती है। बस, वक्त के साथ इसके तरीके बदलते गए हैं। सत्ता से अर्थ है समाज को संचालित और नियंत्रित करने का सर्वोच्च अधिकार। लेकिन हकीकत में जो इस अधिकार का उपयोग करते हैं, वो ही शायद सबसे ज्यादा दुखी, भीतर से डरे हुए, साशंक और सत्य को नकारते रहने की जिद पाले हुए होते हैं। ऐसी सत्ता हाथ से जाने, कुर्सी हिलने और राज करने का सुख कभी भी छिन जाने का भय उन्हें रात में ठीक से सोने नहीं देता और दिन को वो घड़ी भर भी चैन से बैठ नहीं पाते। केन्द्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने व्यंग्यात्मक शैली में नेतओ के इसी भय को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अपने ढंग से व्यक्त किया।
गडकरी ने कहा कि आपको शायद ही कोई पॉलिटिशियन ‘खुश’ मिलेगा। बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर अपने कार्यकाल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जब मैं पार्टी प्रेसीडेंट था तो कोई ऐसा नहीं मिला, जो दुखी न हो। गडकरी राजस्थान विधानसभा में ‘संसदीय प्रणाली और जन अपेक्षाएं’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी के समापन सत्र को संबोधित कर रहे थे। इसका आयोजन ‘राष्ट्रमंडल संसदीय संघ’ की राजस्थान इकाई ने किया था। इस दौरान उन्‍होंने एक किस्‍सा सुनाते हुए राजनीतिक हालातों पर चुटकी ली। गडकरी के मुताबिक एक बार किसी ने पूछा कि तुममें से कौन-कौन सुखी है? किसी ने हाथ खड़ा नहीं किया। जो एमएलए थे वे इसलिए दुखी थे कि वे मंत्री नहीं बन पाए। मंत्री इसलिए दुखी थे कि उन्हें अच्छा विभाग नहीं मिला। जिन्हें अच्छा विभाग मिला वे इसलिए दुखी थे कि वे मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। जो मुख्यमंत्री बन पाए, वे इसलिए टेंशन में थे कि कब चले जाएं इसका कोई भरोसा नहीं।

इसी संदर्भ में गडकरी ने कहा कि राजनीति का अर्थ क्या है इन बातों पर सभी को पुनर्विचार करना होगा और लोकतंत्र की भावना को समझना होगा। उन्होंने कहा कि समाज सेवा राजनीति का एक हिस्सा है, लेकिन आजकल सौभाग्य या दुर्भाग्य से राजनीति का अर्थ हम केवल सत्ताकारण (सत्तानीति) समझते हैं। इसी के साथ उन्होंने राजनीति को सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का प्रभावी उपकरण बताया। गडकरी ने कहा कि लोकतंत्र का मकसद समाज के सबसे आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन में बदलाव लाना है। गडकरी ने जो कहा वह सौ फीसदी सही है। इसलिए क्योंकि अब राजनीति का अर्थ केवल किसी भी तरह सत्ता पाना, उसका अमर्यादित उपभोग करना तथा सत्ता सुख भोगते रहने के लिए हर संभव जोड़तोड़ और सौदेबाजी करते रहना रह गया है। जो नेता पैराशूट की तरह राजनीति में आकर सीधे पदों पर ही लैंड करते हैं, वो तो सत्ता सुख को ‘बाप की जागीर’ समझ कर व्यवहार करते हैं। लेकिन जो संघर्षों के बाद धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए ‘परम पद’ तक पहुंचते हैं, वो भी उस पद डटे रहने को ही जीवन का साध्य मान बैठते हैं। जो एक बार किसी भी तरीके से कुर्सी से चिपका तो उस फेविकोल को छुटाना टेढ़ी खीर ही होता है। सत्ता की इस कायमी के लिए कई तरह के तर्क गढ़े जाते है। तमाम हथकंडो के बाद भी पद हाथ से चला जाता है तो उससे बड़ा दुर्दिन या आपदा नेता के जीवन में कोई और नहीं होती।

गडकरी के तंज को भाजपा द्वारा पिछले दिनो तीन राज्यों के मु्‍ख्यमंत्रियों को हटाए जाने के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। क्योंकि तीनो मुख्‍यमंत्री कथित अक्षमता के आधार पर हटाए गए। यानी भाजपा के मुख्यमंत्रियों की हैसियत उस टीवी चैनल की तरह हो गई है, जिसे हाइ कमान किसी भी क्षण बदल सकता है। नया चैनल ऑन कर सकता है। जहां चैनल बदला नहीं गया है, वहां मुख्यमंत्री को ‘म्यूट’ किया जा सकता है। यानी सीएम को ऑफ लाइन करने के कई आप्शन उसके पास हैं। अमूमन पद, पैसा और प्रतिष्ठा ही लोगों और खासकर राजनेताओ की महती आकांक्षा रहती है। ये मिले तो मानो ‘जहां मिल गया’ का अहसास होता है। आंखो के दीप परमानंद की लौ से रोशन होने लगते हैं। दूसरी तरफ प्रतिद्वंद्वियों की आंखों में यही सुख कांटे की तरह चुभता है। खींचने के लिए उनके हाथ टांगों की तरफ सरसराने लगते हैं। यहीं से उस अशुभ घड़ी की भी शुरूआत होती है, जिसे राजनेता सपने में भी नकारना चाहता है।

दरअसल सत्ता पाना भी मृग मरीचिका ही है। जो दरी बिछाने से राजनीति में पदार्पण करता है, वह पार्षद बनना चाहता है। पार्षद विधायक और विधायक मंत्री बनना चाहता है। मंत्री बनने पर मलाईदार महकमा हासिल करना चाहता है। मलाईदार विभाग से आगे मुख्यमंत्री बनने की मनोकामना पालने लगता है। राजनीतिक प्रगति की हर पायदान पर ज्यादा रूआब, ज्यादा जोखिम, ज्यादा जुगाड़, ज्यादा जिम्मेदारी और ज्यादा बेशरमी की दरकार होती है। और राजनीति ही क्यों, जीवन के हर उस क्षेत्र में भी होती है, जो ‘गैर राजनीतिक ‘होते हुए भी वास्तव में ‘राजनीतिक’ ही होते हैं।
इसी के साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि लोग राजनीति में आते क्यों हैं और आते हैं तो जाने का नाम क्यों नहीं लेते? कौन-सा फेविकोल है, जो उन्हें आखिरी सांस तक उससे चिपकाए रखता है? इसका संभावित उत्तर है- अनंत इच्छा और लोभ। हालांकि कहने को राजनीति को ‘समाज सेवा’ अथवा ‘जन सेवा’ का नाम भी दिया जाता है, लेकिन ‘सेवा’ और ‘राज’ में कोई सीधा भावात्मक सम्बन्ध नहीं है।

‘राज’ में अपनी सत्ता के रौब को हर परिस्थिति में कायम और निर्द्वंद्व बनाए रखने की जद्दोजहद का भाव है। जबकि ‘सेवा’ में समर्पण और आत्म को पीछे रखने का जज्बा है। ‍सत्ता का खेल सच और झूठ का छाया युद्ध भी है। मसलनराजनीति में लोग ‘क्लिक’ तो ‘ सेवा’ के बटन पर करते हैं, लेकिन फाइल ‘मेवे’ की खोलना चाहते हैं। यह मेवा हुकूमत का, जी हुजूरो से घिरे होने का, यस्सर के कर्णमधुर तकियाकलाम का और खुद को लोगो का भाग्यविधाता मान लेने के मुगालते का होता है। इसीलिए सत्ता सुख की इच्छाएं कभी नहीं मरतीं। चूंकि इच्‍छाएं और लोभ अमर होते हैं, इसलिए सुख भी दुख के डाटा में बदलता जाता है। जो मिला, वो नाकाफी इसलिए है क्योंकि चाहना उससे भी ज्यादा की है। विधायक से मंत्री बने तो लगता है कि वक्त वहीं ठहर जाए। मंत्री से मुख्यमंत्री बनने की चाहत तो ऐसी है कि जो सीएम बन गया वो मानकर चलने लगता है कि ईश्वर ने ही उसे इस काम के लिए चुना है और वही उसे हटा सकेगा। सीएम बनते ही जन सेवा की इच्‍छाएं इस ठाठें मारने लगती हैं कि उनकी मार में कई दूसरे प्रतिद्वंद्विंयों के अरमान झुलसने लगते हैं। लेकिन सत्ता मिलने के सुख से कई गुना बड़ा दुख मिली सत्ता के छिन जाने का डर होता है। ‘दो घड़ी और जन सेवा कर लेने’ का लोभ कभी खत्म नहीं होता। इस सेवा भाव में मुसाहिबों, बंगला, गाड़ी और ‘यशस्विता’ का जयगान सुनते रहने की अतृप्त आकांक्षा समाहित रहती है। इस का कोई ‘दि एंड’ नहीं होता। प्रधानमंत्री बनने पर भी नहीं। तमाम आध्यात्मिक सबक इस इच्छा के आगे ‘बौने’ साबित होते हैं।

मंत्री गडकरी ने अपने भाषण में एक बोध वाक्य भी कहा कि ‘लोगों की भावनाओं को जीतकर आगे आना ही लीडरशिप कहलाता है।‘ सही है। लेकिन यही लीडरशिप कब अपनी भावनाओ को लोगों पर थोपने लगती है, कई पता ही नहीं चलता। म्यांमार की अपदस्थ प्रधानमंत्री और नोबेल‍ विजेता आंग सान सू की का एक मशहूर वाक्य है-‘सत्ता नेताओ को भ्रष्ट नहीं करती बल्कि सत्ता खोने का डर उन्हें भ्रष्ट बनाता है, जो इसका उपयोग करते हैं।‘ गडकरी ने जो कहा, वो भी काफी कुछ इसी ओर इशारा करता है। शायद इसीिलए राजनेताओ की जिंदगी जितनी सत्ता सुख से भरी दिखाई देती है, असल में वैसी होती नहीं है। सुखों के झरनो से ज्यादा वहां दुखों और प्रताड़ना के पहाड़ होते हैं। जिसे सरे आम बयान करना भी खतरे से खाली नहीं होता। जो दर्द गडकरी ने मुस्कुराते हुए ‘दूसरों का’ कहकर बयां किया। वह कहीं उनका अपना दर्द भी है। ऐसा दर्द, जिसे वहन करने से ज्यादा सहन करना होता है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है- सियासत इस कदर अवाम पे अहसान करती है, आँखे छीन लेती है फिर चश्में दान करती है..!

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