मुर्सी सरकार के ख़ात्मे के बाद अलसीसी प्रशासन ने 15 हज़ार उख़्वानियों से अधिक को गिरफ्तार कर लिया था और इनमें से सैंकड़ों को मौत की सज़ा सुनाई गई. हालांकि अभी तक मौत की सज़ा पर अमल नहीं हुआ है, लेकिन वह सब जेलों में बंद हैं.
मिस्र की अदालत ने देश के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी को 20 वर्ष कै़द की सज़ा सुनाई है. यह पहली बार हुआ है कि मोहम्मद मुर्सी को निष्कासित किए जाने के बाद उन्हें सज़ा सुनाई गई है. पूर्व राष्ट्रपति मुर्सी पर आरोप है कि उन्होंने 2012 में राष्ट्रपति भवन के बाहर होने वाले प्रदर्शन में अपने समर्थकों के द्वारा प्रदर्शनकारियों पर नियंत्रण के लिए बल प्रयोग किया और उसमें 11 लोगों की मौत हो गई थी. मोहम्मद मुर्सी पर कुल तीन आरोप लगाए गए थे. प्रदर्शनकारियों की हत्या व उत्पीड़न, न्यायालय की अवमानना और राष्ट्रीय ख़ु़िफया जानकारियां दूसरे देशों को देना. पहले आरोप का निर्णय आ चुका है. इस निर्णय में मोहम्मद मुर्सी के अलावा 12 अन्य उख़्वानियों को 20-20 वर्ष की सज़ा दी गई है. शेष दो मुक़दमों का निर्णय मई तक आने की संभावना है. जिन आरोपियों के ख़िला़फ निर्णय आया है, उनमें मोहम्मद मुर्सी के अलावा उख़्वानी प्रमुख मोहम्मद बल्ताजी, वरिष्ठ नेता वजदी और उख़्वानी मुबल्लिग़ अस्साम अरबान शामिल हैं.
अदालत के इस फैसले में कितनी पारदर्शिता बरती गई है. इस पर पूरी दुनिया में चिंता देखने को मिलती है. चिंता का कारण यह है कि इस पूरे मुक़दमे में एक तो मुर्सी को अपनी स़फाई और सबूत उपलब्ध करने के लिए मौक़ा नहीं दिया गया और दूसरे इस मुक़दमे को देखने के लिए जिस प्रकार से एक जज को क्राइम कोर्ट में नियुक्त किया गया, इसमें पूरा राजनीतिक खेल नज़र आ रहा है मुर्सी के इस मुक़दमे को क़ाहिरा क्राइम कोर्ट के क़ाज़ी अहमद सबरी यूसुफ देख रहे थे. वह पिछले वर्ष रिटायर होने वाले थे, लेकिन न्याय मंत्रालय की ओर से 27 दिसंबर को एक विशेष आदेश के द्वारा उनकी कार्यावधि को बढ़ा दिया गया, ताकि वह इस मुक़दमे को देख सकें. उनकी इस नियुक्ति के सिलसिले में अनातोलिया के न्यायिक सूत्रों का कहना है कि 6 माह पूरे होने के बाद 30 जून को उन्हें प्रोन्नति देकर अगले दो वर्षों के लिए सुप्रीम जूडिशियल कॉन्सिल का सदस्य बनाया जा सकता है. इसके बाद उन्हें रिटायर कर दिया जाएगा. अगर अनातोलिया सूत्रों पर विश्वास किया जाए तो बात बिल्कुल सा़फ हो जाती है कि इस नियुक्ति के पीछे पूरा राजनीतिक खेल है और क़ाज़ी यूसु़फ को उच्च पद का लालच देकर मन मुताबिक फैसला करवाया गया है. वैसे भी पिछले कुछ वर्षोंं में मिस्र की अदालतों को जिस प्रकार से राजनीतिक अखाड़ा बना दिया गया है, उसे देखते हुए इन संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है कि फैसले में कहीं न कहीं राजनीतिक दांव-पेंच खेला गया है. वरना क्या कारण है कि एक ही तरह के दो मुक़दमों में दो पूर्व राष्ट्रपति यानी होस्नी मुबारक और मोहम्मद मुर्सी के ख़िला़फ अलग-अलग फैसले आते हैं. 2011 में जब होस्नी मुबारक राष्ट्रपति थे तो तहरीर स्न्वायर के प्रदर्शनकारियों पर स्टेट मिशनरी ने ज़रबदस्त हिंसा की थी और इसमें सैंकड़ों इंसानों को निर्दयता से मौत के घाट उतार दिया गया था. इन आरोपों की बुनियाद पर 2012 में क़ाज़ी अहमद ऱफत ने उनको कै़द की सज़ा भी सुनाई थी. इस समय सरकार मोहम्मद मुर्सी की थी, लेकिन अलसीसी सरकार आने के बाद मिस्री अदालत ने होस्नी मुबारक को सभी आरोपों से बरी कर दिया है. इस एहसान के बदले होस्नी मुबारक अब अलसीसी सरकार के समर्थन में बयान दे रहे हैं. अभी हाल ही में सीना की 33वीं आज़ादी के एक प्रोग्राम के मौक़े पर एक चैनल को बयान देते हुए होस्नी मुबारक ने कहा कि मिस्र इस समय नाज़ुक दौर से गुज़र रहा है और इस नाज़ुक दौर में अब्दुल फतह अलसीसी के समर्थन में मदद करना न केवल मिस्र की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आवश्यक है, बल्कि पूरे अरब क्षेत्र की सुरक्षा के लिए आवश्यक है.
बहरहाल, निर्णय दबाव में दिया गया हो या स्वतंत्र, लेकिन जिन 13 लोगों के ख़िला़फ यह निर्णय सुनाए गए हैं, इस फैसले ने पूरी दुनिया को चिंता में डाल दिया है और यह संदेह पैदा कर दिया है कि वहां की अदालतें सेना के दबाव में अपना काम कर रही हैं. ऐसा सोचने का एक कारण यह भी है कि मोहम्मद मुर्सी को अपने ऊपर लगाए गए आरोप के ख़िला़फ स़फाई देने और सबूत उपलब्ध करने का मौक़ा नहीं दिया गया. इस सिलसिले में एमनेस्टी इंटरनैशनल ने सवाल उठाया है कि बिना किसी आरोप के गिरफ्तार करना, तीन हफ्तों तक बिना कोई आरोप साबित किए उन्हें हिरासत में रखना मिस्री संविधान के ख़िला़फ है. संस्था ने यह भी कहा है कि मिस्र की सेना ने उन्हें न तो अपनी बात रखने का अवसर दिया और न ही अपने लिए सबूत उपलब्ध करने की मोहलत दी. ऐसे में फैसले को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है. क़ानून सबको अपनी बेगुनाही साबित करने का मौक़ा देता है और यह हर नागरिक का मूल अधिकार है, जिसे मिस्र की सैन्य अदालत ने नज़रअंदाज़ कर दिया है. आश्चर्य की बात तो यह है कि मुर्सी को अपने वकील से मिलने का भी म़ौक़ा नहीं दिया जाता है. मुर्सी के वकील इस पूरे मुक़दमे की पैरवी के दौरान नबंवर 2013 में केवल एक बार मुलाक़ात कर पाए हैं. ऐसी स्थिति में किसी के लिए न्यायोचित फैसला सुनाए जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है. यह फैसला पूरी तरह पक्षपातपूर्ण है.
मिस्री अदालत के इस फैसले पर मशहूर धार्मिक विद्वान यूसु़फ क़रज़ावी ने ट्वीट किया है कि मिस्र की अदालत पूर्ण रूप से सेना की प्रतिनिधि बनी हुई है और वह फौजी दबाव में फैसले सुनाती हैं. इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनैशनल स्ट्रैटजिक रिलेशंस ने मिस्री अदालतों के फैसले को राजनीति से प्रभावित बताया है. तुर्की के विदेश मंत्रालय ने अपने एक बयान में मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी को 20 वर्ष कै़द का आदेश सुनाए जाने से संबंधित कहा है कि मिस्री अदालत का यह फैसला वहां की जनता से मज़ाक और अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन है, जो कि मिस्र के लोकतांत्रिक भविष्य को प्रभावित भी करेगा.
यूरोपीय यूनियन ने भी इस सिलसिले में कहा है कि मिस्री अदालत का यह फैसला अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के उलट है और हमारी मिस्री अदालतों से मांग है कि वह मुक़दमा चलाते समय मानवाधिकारों का ख़्याल रखें. व्हाइट हाउस के प्रवक्ता जोश अर्नेस्ट ने इस फैसले के हवाले से कहा है कि मिस्री न्याय व्यवस्था को अन्य आरोपियों की तरह मुर्सी को भी अपनी स़फाई पेश करने का पूरा मौक़ा देना चाहिए. मुर्सी सरकार के ख़ात्मे के बाद अलसीसी प्रशासन ने 15 हज़ार उख़्वानियों से अधिक को गिरफ्तार कर लिया था और इनमें से सैंकड़ों को मौत की सज़ा सुनाई गई. हालांकि अभी तक मौत की सज़ा पर अमल नहीं हुआ है, लेकिन वह सब जेलों में बंद हैं. जहां तक मोहम्मद मुर्सी की बात है, तो अभी विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता है कि मई में आने वाले फैसले में अदालत का रुख़ क्या और कैसा होगा. अगर दूसरे देशों को राष्ट्रीय गुप्त संदेश देने का आरोप साबित हो जाता है, तो उन्हें मौत की सज़ा भी हो सकती है. कहा जाता है कि मोहम्मद मुर्सी ने अपने शासनकाल में जिस देश को गुप्त जानकारियां उपलब्ध कराई थी, वह क़तर है. मोहम्मद मुर्सी ने अपने शासनकाल में कुछ गलतियां की हैं कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित होने के बावजूद उन्होंने जो तरीक़ा अपनाया था, उसमें कहीं न कहीं यह अहसास होता था कि वह मिस्र में एक इस्लामी कट्टरवादी सरकार स्थापित करना चाहते हैं. ज़ाहिर है कि एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह ठीक नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सरकार का तख़्तापलट करके सरकार का मकान सेना के हवाले कर दी जाए, जैसा कि मिस्र में हुआ.