राजनीतिक दलों के भीतर अचानक बढ़ी गतिविधियों ने चुनावी परिदृश्य में कई नए मोड़ ला दिए हैं. मीडिया हमें यह यकीन दिलाना चाहता है कि सब लोग भाजपा की ओर भागना चाहते हैं. यह उन राज्यों के लिए कुछ हद तक सही हो सकता है, जहां भाजपा की अच्छी उपस्थिति है. यह सही है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लोगों को विश्‍वास दिलाना चाहते हैं कि अगर वह सरकार बनाते हैं, तो देश जिन समस्याओं का सामना कर रहा है, उससे मुक्ति दिला देंगे. सही बात है कि मोदी एक निर्णायक व्यक्ति के रूप में सामने आए हैं. हालांकि, यह कहानी का एक पहलू है. दूसरा पहलू यह है कि देश के अन्य हिस्सों में भाजपा अनुपस्थित है. यह देश का एक बड़ा हिस्सा है. वहां क्या होता है, यह महत्वपूर्ण है. कोई कुछ भी कहे, वहां अन्य पार्टियां होंगी, कांग्रेस पार्टी होगी, क्षेत्रीय दल होंगे. भाजपा वहां कुछ भी करने में सक्षम नहीं होगी. बेशक, चुनाव के बाद वह नई लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी होगी और चुनाव में मिली सीटों के मुताबिक सत्ता में आने के लिए एक, दो या तीन छोटे दलों के साथ गठबंधन करने का प्रयास करेगी. ऐसा हो सकता है. खास तौर पर तब, जब शरद पवार जैसा एक परिपक्व राजनेता यह कहता हो कि उनके हिसाब से भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होगी और इसके बाद कांग्रेस. अब कांग्रेस कितना पीछे जाती है, यह कोई नहीं कह सकता.
नई सरकार के गठन में क्षेत्रीय दलों की निश्‍चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होगी. चाहे वे भाजपा के साथ आएं या एक मजबूत गठबंधन बनाकर कांग्रेस का समर्थन लें. बहरहाल, यह सब चुनाव के नतीजों पर निर्भर करता है. हम अभी जो कहने की कोशिश कर रहे हैं, उसका उद्देश्य अलग है. मान भी लें कि भाजपा कुछ गठबंधन के साथ एक सरकार बना लेती है, फिर भी परेशानी की बात यह है कि भाजपा हमें अपने विचारों से अवगत नहीं करा रही है. हम जानते हैं कि कांग्रेस किस तरह का भारत बनाना चाहती है. वह अल्पसंख्यकों को एक वोट बैंक के रूप में देखती है, इस बात को लेकर हमारी शिकायतें हो सकती हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि उसने यह नहीं किया, वह नहीं किया, भ्रष्टाचार बहुत ज़्यादा हावी रहा और नुकसान पहुंचाता रहा, लेकिन भाजपा ने अभी तक यह जाहिर नहीं होने दिया कि क्या वह अभी भी उसी विचारधारा को अपनाती है, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारे सामने आई थी? क्या वह अभी भी दलित आरक्षण होना चाहिए वाली बात मानती है?
क्या वह मानती है कि अल्पसंख्यक एवं पिछड़े वर्गों को सुरक्षा मिलनी चाहिए, उन्हें आगे बढ़ाने का काम करना चाहिए, लघु उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए? या फिर वह यह मानती है कि अमीर और अमीर बनता रहे और सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा. जहां तक अल्पसंख्यकों का सवाल है, वे डर रहे हैं, वे भाजपा के सत्ता में आने की बात को लेकर डर रहे हैं. हालांकि, उनके डर को उचित नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी के छह साल के शासन के दौरान ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिससे डरा जाए, लेकिन वह अटल बिहारी वाजपेयी थे. हमें इस नए शख्स के बारे में पता नहीं है.
दूसरी बात. आम आदमी पार्टी ने एक अच्छे वादे के साथ शुरुआत की थी. उसके समर्थक कह रहे हैं कि पूरे देश में सौ सीटें मिल जाएंगी. ऐसा होता तो नहीं लगता, लेकिन वास्तव में सौ सीटें मिल जाती हैं, तो यह फिर नई राजनीति की शुरुआत होगी. कई मायने में यह अच्छा होगा, लेकिन जिस तरह से सब कुछ होता दिख रहा है, उससे लगता नहीं कि ऐसा कुछ होगा. जिस तरीके से पार्टी के लोग टिकट लौटा रहे हैं, उससे लगता है कि शायद वे संसाधन जुटा पाने में सक्षम नहीं हैं. आम आदमी पार्टी का विश्‍वास है कि पैसा उन्मुख राजनीति नहीं होनी चाहिए. राजनीति सीधे मतदाताओं के संपर्क में रहकर होनी चाहिए, चाहे सोेशल मीडिया के जरिये या इंटरनेट के जरिये. लेेकिन, अब वह भी पारंपरिक तरीके अपनाने की कोशिश करती दिख रही है. अगर वह ज़्यादा पैसा इकट्ठा करना चाहती है, बड़ी रैलियां करना चाहती है, तो निश्‍चित रूप से वह नुकसान में रहेगी. इस मामले में कांग्रेस और भाजपा उससे कहीं आगे होंगी.
मैं वास्तव में यह नहीं जानता कि आम Aआदमी पार्टी में क्या हो रहा है, लेकिन एक परेशानी वाली बात यह है कि इस पार्टी ने भी अब तक अपनी विचारधारा सार्वजनिक नहीं की है. अरविंद केजरीवाल ने खुद कहा कि वह विचारधारा को बहुत ज़्यादा नहीं समझते. अच्छी बात है, लेकिन दिल्ली जैसे छोटे राज्य को चलाना और देश चलाना अलग-अलग बातें हैं. अगर आप देश चलाना चाहते हैं, तो फिर आपको अपनी विचारधारा की व्यापक रूपरेखा स्पष्ट करनी होगा. विचारधारा के बिना कोई आधार नहीं होगा.
कुल मिलाकर परिदृश्य अभी भी भ्रामक है. बेशक पारंपरिक ज्ञान यह कहता है कि भाजपा को 180 सीटें मिल जाएं और वह अकाली दल, शिवसेना और कुछ अन्य ऐसे सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बना ले, जिनके पास 20, 30 या 40 सीटें हों, लेकिन वह किस तरह की सरकार देने में सक्षम होगी, हम नहीं जानते. सत्ता विरोधी लहर में यह कहना आसान है कि मुद्रास्फीति बड़े पैमाने पर बढ़ी है. अब आप कैसे मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने जा रहे हैं, इसके बारे में कोई उपाय नहीं बताया जा रहा है. किसानों के बारे में कोई बात नहीं कर रहा है. वे औद्योगिक विकास, सकल घरेलू उत्पाद के बारे में बात कर रहे हैं, दूसरे तमाम बिंदुओं पर बात कर रहे हैं, लेकिन कोई कृषि की दुर्दशा के बारे में बात नहीं कर रहा है. भारत में असली समस्या कृषि की है. कृषि क्षेत्र की वर्तमान हालत अगर दस साल भी रह जाए, तो भविष्य में हमें खाद्यान की कमी से जूझना पड़ेगा. जो भी पार्टी सत्ता में आती है, उसे समझना होगा कि भारत एक कृषि प्रधान देश है और जब तक कृषि को प्रमुखता नहीं दी जाएगी, देश के उज्ज्वल भविष्य की आशा नहीं की जा सकती. मुझे नहीं लगता कि कांग्रेस और भाजपा इस बारे में बातें और वादे कर रही हैं. बहरहाल, जितनी जल्दी इस समस्या का समाधान निकलेगा, उतना ही इस देश के बेहतर भविष्य के लिए अच्छा होगा.

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