भोपाल।  राजधानी भोपाल की नामवर शख्सियतों में शामिल पीर सिराज मियां साहब मुजद्दीदी का बुधवार की सुबह 11 बजे इंतकाल हो गया। वे पिछले कुछ दिनों से बीमार थे और उनका इलाज एक निजी अस्पताल में चल रहा था। उनके इंतकाल की खबर ने शहर को गम और शोक में डुबो दिया।
बजाहिर वे मजहबी उलेमा थे, लेकिन देश-दुनिया की हर ताजा खबर से हमेशा अपडेट रहते थे। अरबी-उर्दू के अलावा अंग्रेजी और हिंदी पर भी उनकी बेहतर कमांड थी। अपनी बात से सबको मुतास्सिर और संतुष्ट करने की काबिलियत रखने वाले पीर साहब की बातों में इस बात का भी खास ख्याल हुआ करता था कि समाने बैठा शख्स किस मिजाज का है और उससे क्या और किस तरह की बात की जा सकती है। मिजाज में नरमी और चेहरे पर सादगी लिए पीर सिराज मियां साहब ताजुल मसाजिद से लेकर खानकाह तक लोगों के लिए आसान मौजूदगी बनाए रखते थे। सामाजिक, धार्मिक और सियासी कार्यक्रमों में भी उनकी आमद-ओ-रफ्त रहती थी। शहर के निर्विवाद और सर्वमान्य आलिमों में शामिल पीर साहब को हर वर्ग, हर उम्र और समाज के हर तबके की मुहब्बतें हासिल हुआ करती थीं।

कभी दिखता उनका तल्ख रूप
आमतौर पर खामोश मिजाजी उनके साथ हुआ करती थी। धीरे बोलना, मिठास और दिल को अच्छे लगने वाले अल्फाज का इस्तेमाल करना और बेहद सादगी से मिलना उनकी आदतों में शुमार था। लेकिन कभी हालात यह भी बनते कि किसी बात पर उनकी नाराजगी सामने आती। इस दौरान भी वे अपनी बात को बेहद खूबसूरत लफ्जों में कहकर ही अपना गुस्सा भी जाहिर कर देते थे। आलमी इज्तिमा के बाद ताजुल मसाजिद कैम्पस में लगने वाले बाजार को लेकर पिछले साल कुछ लोगों ने विध्र डालने की कोशिश की। शहर के फिक्रमंद पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पीर साहब के सामने इस मामले को रखा। वे बात को समझाईश के जरिये ही खत्म करने की सलाह देते रहे। लेकिन जब सारे पहलुओं पर बात हो चुकी तो पीर साहब ने जोड़ा कि जो लोग आसान बात से न समझ पाते हों उनके लिए जूते कुशाई का एक आसान रासता भी होता है, इस तरीके को भी आजमाया जा सकता है। लेकिन उन्होंने ताकीद की कि ऐसा कुछ भी करने से पहले समझाईश और कानून का रास्ता जरूर अपनाया जाए।

बुुजुर्ग जवान
पीर साहब उम्र के लिहाज से काफी सीनियर हो चुके थे, लेकिन उनके काम का तरीका और स्फूर्ति किसी युवा और उत्साही व्यक्ति से कम नहीं थी। वे अपने हर काम को निर्धारित समय पर करते थे और दिए गए वक्त पर कहीं भी पहुंचना और वक्त की कद्र करना अपनी आदत में शुमार करते थे। मुलाकातों और बातों के लिए अक्सर वे आसानी से उपलब्ध हो जाते थे, किसी भी मसले को गंभीरता से सुनते और उसके लिए मुनासिब हल निकालने की कोशिश करते थे। राजधानी के उलेमाओं में सर्वमान्य होने के नाते उनकी बात को किसी भी मामले का आखिरी फैसला माना जाता और स्वीकार किया जाता था। शासन-प्रशासन और सरकार तक भी किसी मजहबी बात को पहुंचाने का आसान जरिया पीर सिराज मियां साहब ही हुआ करते थे।

Covid प्रोटोकॉल के साथ किए गए सुपुर्द ए खाक
पीर साहब का आखिरी सफर दोपहर करीब एक बजे पीर गेट से शुरू हुआ। लाल परेड मैदान के सामने चंद लोगों के साथ उनकी नमाज़ ए जनाजा अदा की गई। बाद में पीएचक्यू के पास स्थित कब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्द ए खाक किया गया। हालांकि बड़ी तादाद में लोग उनके आखिरी दीदार के लिए पहुंचे थे लेकिन दोनों तरफ लगा दिए गए बेरीकेट्स की वजह से लोग जनाजे के पास तक नहीं पहुंच पाए।

 

ख़ान आशू

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