लोक जन शक्ति पार्टी ( लोजपा) में इन दिनो जो आंतरिक घमासान छिड़ा है, वह किसी भी वंशवादी पार्टी की अनिवार्य ट्रेजिडी है। पार्टी पर कब्जे की बाजी हारने के बाद लोजपा के संस्थापक और पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने मीडिया के सामने यह दम भरना ‍कि ‘मैं शेर का बेटा हूं। किसी से डरता नहीं हूं।‘ इस बात की जमानत है कि जो हो रहा है, वह किसी भी परिवारवादी पार्टी की नियति है। क्योंकि ये पार्टियां व्यक्ति/‍परिवार से शुरू होकर वहीं पर खत्म होती हैं। इनकी कोई ठोस राजनीतिक विचारधारा, नैतिक प्रतिबद्धता या कोई दूरगामी लक्ष्य नहीं होता। किसी भी तरह सत्ता हासिल करना और इस उपक्रम में हर कीमत पर अपने किसी सगे-सम्बन्धीम को आगे बढ़ाकर उसके राजतिलक की दुंदुभि बजाते रहना ही एकमा‍त्र उद्देश्य होता है।

ऐसी व्यक्ति केन्द्रित पार्टियां सत्ता के लिए कई बार इतना वैचारिक यू-टर्न ले लेती हैं कि आश्चर्य होता है कि आखिर इस पार्टी की वैचारिक नींव आखिर है क्या? लेकिन यह भी सच है कि भारतीय मतदाता तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के अवसरवाद और नाकारापन से खीज कर कभी-कभी इन पार्टियों को सत्ता सौंपने का राजनीतिक प्रयोग करता रहता है। हालांकि लोजपा तो कभी खुद के दम पर सत्तासीन होने वाली व्यक्तिवादी पार्टी भी नहीं रही। इसके बावजूद रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को कब्जाने जिस स्तर पर घमासान मचा है, वह मध्यजयुग में सिंहासन हथियाने के लिए राजपरिवारों में होने वाले षड्यंत्रों की याद दिलाता है। शायद यही वजह है कि एक भाई अपने चचेरे भाई पर बलात्कार का आरोप लगाने में भी नहीं हिचक रहा। उधर चिराग और उनके सगे चाचा और सांसद पशुपति पारस एक दूसरे पर धोखा देने और पार्टी पर कब्जे के आरोप लगा रहे हैं। कहा जा रहा है कि इस पूरी पारिवारिक बगावत के सूत्रधार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं और इस खेल के तार भाजपा से भी जुड़ रहे हैं।

अपनी ही पार्टी के छह में से पांच सांसदो की बगावत के बाद अभी भी खुद को अध्यक्ष मानने वाले चिराग पासवान ने नई दिल्ली में राजनीतिक जोश के जो दीप बाले, उसका लुब्बोलुआब यही है कि उन्होंने अपनी उन मूर्खताओ को स्वीकार कर लिया है, जो किसी दूसरे दल के इशारे पर की गई थीं। चिराग अब कह रहे हैं कि पार्टी संविधान के हिसाब से चलेगी, तो अब तक पार्टी कौन से संविधान से चल रही थी? और कौन सी व्यक्तिवादी पार्टी संविधान के हिसाब से ही चलती है? ऐसी पार्टियों में व्यक्ति या नेता की मर्जी ही संविधान होता है। वहां राष्ट्र, राज्य, जाति और समाज सब एक व्यक्ति में ही समाहित हो जाते हैं। लेकिन इस स्थिति को पाने के लिए लंबा संघर्ष भी करना पड़ता है।

अगर व्यापकता की बात करें तो देश में अब राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी ही बची है। हालांकि परिवारवाद और वंशवाद का घुन उसे भी लग चुका है, लेकिन उसकी जड़ें अभी व्यापक नहीं हैं, उसे फैलने में वक्त लगेगा। हालांकि अपनी अलग विचारधारा का दावा करने वाली यह पार्टी भी अब करिश्माई नेतृत्व पर जरूरत से ज्यादा निर्भर होती जा रही है, जो दल के भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। कल तक सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी रही कांग्रेस इसी में निपटी है। आंशिक रूप से राष्ट्रीय पार्टी रही कांग्रेस भी अब वंशवाद से ऊर्जा और जनसमर्थन से ऑक्सीजन ग्रहण करती है। कुलमिलाकर कांग्रेस परिवारवाद, गिरोहवाद, व्यक्तिवाद, कुछ वैचारिक प्रतिबद्धता और पुरानी राजनीतिक पुण्याई का ऐसा अमर काॅकटेल है, जो कभी-कभी इतना दम मार देता है कि पार्टी किसी राज्य में सत्ता में आ जाती है या उसमें हिस्सा पा जाती है।

देश में तीसरी श्रेणी उन पार्टियों की है, जो व्यक्तिवाद की नींव पर खड़ी होने के साथ-साथ वैचारिक मुलम्मा भी साथ लिए चलती हैं। इनका अपना वोट बैंक भी होता है, लेकिन उनमें नेतृत्व की दूसरी या तीसरी पंक्ति नहीं होती अथवा नहीं बनने दी जाती। शीर्ष नेतृत्व का असुरक्षा भाव अथवा निश्चिंतता इसका कारण हो सकती है। लेकिन कुछ सालों के बाद राजनीतिक रक्तप्रवाह अवरूद्ध होने से ऐसी पार्टियां सूत्रधार के अवसान के बाद स्वत: तिरोहित होने लगती हैं। कालांतर में नेतृत्व का यह बांझपन ही इन पार्टियों की सियासी जमीन को स्वत: बंजर बना देता है। इस श्रेणी में बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल और जनता दल (यू) या ऐसी ही कुछ और छोटी-मोटी पार्टियों को रखा जा सकता है। संक्षेप में

कहें तो बसपा का अतीत, भविष्य और अंत खुद मायावती हैं तो बीजेडी में नवीन पटनायक और जेडी यू में नीतीश कुमार हैं। इन नेताओ में सत्ता हासिल करने का दम है। इसीलिए बिहार में नीतीश और ओडिशा में नवीन पटनायक का इकबाल बुलंद है। वही यूपी में कभी बहनजी मायावती का था। लेकिन जैसे ही ये करिश्माई व्यक्तित्व सक्रिय परिदृश्य से अोझल हुए या होंगे, पार्टी का हाल भी पंगत उठने के बाद जैसा हो सकता है। देश में तीसरी श्रेणी उन आकंठ व्यक्ति/परिवारकेन्द्रित क्षेत्रीय दलों की है, जो आज कई राज्यों में सत्ता में हैं। यहां भी कहानी ‘तेरे नाम से शुरू, तेरे नाम में खतम’ वाली है। यूं तो आज भारतीय राजनीति में सिद्धांतवाद और वैचारिक निष्ठा जैसी कोई चीज बची नहीं है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना और उस पर कुंडली मार कर बैठना ही आज भारतीय राजनीति का असल चरित्र है।

इसके लिए सुविधानुसार फार्मूले, मुद्दे तथा नैतिक‍ सिद्धांत गढ़ लिए जाते हैं और उन्हें ‘व्यावहारिक राजनीति’ का हालमार्क करार दे दिया जाता है। लेकिन सत्ता की ‘म्यूजिकल चेयर रेस’ खेलने वाली ये पार्टियां कब किसके साथ ‘लिव इन’ में रहने लगें, कब राजनीतिक विवाह कर तलाक भी ले लें, कहा नहीं जा सकता। एक स्थायी तर्क यह है कि चूंकि राजनीति होती ही सत्ता के लिए है, इसलिए उसे पाने के लिए हर खटकरम में काहे की शरम ? सही है। लेकिन इन पार्टियों का राजनीतिक चक्र भी व्यक्ति विशेष की मर्जी, स्वार्थ, सनक और जुझारूपन के इर्द-गिर्द ही घूमता है। ये पार्टियां कब स्थानीय, कब क्षेत्रीय और कब राष्ट्रीय किरदार में होंगी, यह तात्कालिक राजनीतिक परिस्थिति पर निर्भर करता है। कोई एक करिश्माई नेता इन पार्टियों की स्थापना करता है।

चक्रवर्ती बनता है और फिर अपने बेटे-बेटी की ताजपोशी को ही अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मान लेता है। आज देश में करीब डेढ़ दर्जन पार्टियां इसी ‘परिवारवाद’ के अमर सिद्धांत पर पल्लवित हो रही हैं। दरअसल यह एक तरह की लोकतांत्रिक राजशाही है, जिसमें लोक का महत्व केवल सत्ता की पालकी ढोते रहने तक का होता है। उस पालकी में विराजमान सदा नेता या उसके स्वजन ही होते हैं। सत्ता का अधिकार गादी के रूप में चलता है और जनादेश से वैधता पाता रहता है। लोकजनशक्ति पार्टी उन्हीं में से एक है। इसकी स्थापना (आंशिक रूप से) दलित नेता रामविलास पासवान ने की थी। उन्होंने भी पहले अपने परिजनो को उपकृत किया। बाद में सारी ताकत बेटे चिराग की ताजपोशी में लगा दी।

उनकी ‘सामाजिक न्याय’ की लड़ाई का अंतिम लक्ष्य शायद यही था। यूं चिराग भी केवल राजनीतिक रूप से ही दलित हैं। वैसे चिराग का जो हश्र हुआ या होता दिख रहा है, वह उन लोगों के लिए चेतावनी है, जो दिल्ली में बैठकर राज्यों या अंचलों की राजनीति करना चाहते हैं। लोजपा की तरह आज समाजवादी पार्टी, डीएमके, शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, जनता दल (एस), राजद, तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस, वायएसआर कांग्रेस, अपना दल, राष्ट्रीय लोकदल व जननायक जनता आदि ऐसी पार्टियां हैं, जिनमें सत्ता और संगठन व्यक्ति/ परिवार के आसपास घूमते हैं और व्यक्ति के कमजोर पड़ते ही बिखरने को अभिशप्त हैं।

अब सवाल यह कि देश का राजनीतिक कम्पास किस दिशा की ओर इंगित कर रहा है? लोजपा प्रकरण व्यक्तिकेन्द्रित दलों के बिखराव की शुरूआत है या फिर भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल की राजनीतिक दंबगई के खिलाफ उनके और मजबूत होने की ओर इशारा है? क्या वैकल्पिक राष्ट्रीय पार्टी समझी जाने वाली कांग्रेस भी व्यक्तिकेन्द्रित दल में तब्दील हो चुकी है या फिर भाजपा से लड़ने की नैतिक ताकत उसमें अभी बाकी है? इनसे भी बड़ा सवाल यह है कि देश और लोकतंत्र को मजबूत करने में इन व्यक्तिकेन्द्रित दलों की कितनी सार्थक भूमिका है? है भी या नहीं? इस पर गंभीरता से विचार जरूरी है। आज चिराग पासवान के बहाने परिवारवाद जरूर ‘अनाथ’ हुआ है, इसमे दो राय नहीं।

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