कांग्रेस और वाम सहित सारे विपक्षी दल खोते जा रहे अपनी प्रासंगिकता : विपक्ष भाजपा को जिताएगा

BJPलोकतंत्र की मजबूती के लिए विपक्ष का मजबूत रहना जरूरी होता है. लेकिन आज की सच्चाई यही है कि विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है. पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में हुए चुनाव के बाद भाजपा के हाथों हुए सत्ता-ग्रहण ने हमें देश के राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण करने और सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की ‘चरित्रावलि’ बांचने का मौका दिया है…

विपक्ष ने भारतीय जनता पार्टी को आखेट करने के लिए खुला मैदान छोड़ दिया है. अंदरूनी कलह ने कांग्रेस को और गपोड़बाजी ने वाम दलों को देश में अप्रासंगिक बना दिया है. रणनीति और तिकड़म में कांग्रेस और वाम दल दोनों ही भाजपा के आगे फेल साबित हो रहे हैं. इस कौशल में कमजोर होने के कारण ही मेघालय में 21 सीटें जीतने के बावजूद कांग्रेस पार्टी सरकार नहीं बना पाई और महज दो सीटें पाने वाली भाजपा अपने गठबंधन के साथ वहां सरकार बनाने में कामयाब हो गई. त्रिपुरा और नगालैंड में तो कांग्रेस इस बार खाता भी नहीं खोल पाई. त्रिपुरा में भाजपा ने अपने बूते सरकार बना ली और नगालैंड में गठबंधन के दम पर भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बन गई. यानि, एकमात्र मिजोरम छोड़ कर पूर्वोत्तर से कांग्रेस का पत्ता कट गया है. त्रिपुरा में हार के बाद वामदल पूर्वोत्तर में कहीं अस्तित्व में नहीं रहे. त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में अभी हुए विधानसभा चुनाव के बाद अब पूर्वोत्तर के छह राज्यों पर भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का कब्जा हो गया है. जबकि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले तक पूर्वोत्तर के सात राज्यों में कांग्रेस का ही वर्चस्व कायम था.

आजादी के बाद लोकतांत्रिक भारत की सत्ता पर सबसे अधिक समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी का दायरा सिमट कर आज तीन राज्यों और एक केंद्र शासित राज्य तक रह गया है. तीन राज्यों में से भी कर्नाटक और मिजोरम में इसी साल के आखिर में चुनाव होने हैं. इसके अलावा पंजाब और केंद्र शासित पुडुचेरी में कांग्रेस का शासन बचा है. मेघालय में भाजपाई बिसात पर धराशाई हुई कांग्रेस ने अगर अपनी रणनीति पुख्ता नहीं बनाई तो पूरा पूर्वोत्तर साफ हो जाएगा. पिछले लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस पार्टी को एक-दो राज्य छोड़कर हर विधानसभा चुनाव में हार का ही सामना करना पड़ा है. 2014 तक कांग्रेस के पास 13 राज्यों में सरकार थी. पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के नतीजे मिजोरम और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों पर जरूर असर डालेंगे. गुजरात चुनाव में कांग्रेस के संतोषजनक प्रदर्शन और मध्य प्रदेश के उप चुनाव में कांग्रेस को जीत मिलने से जो माहौल बना था, कांग्रेस के नेता उस माहौल को कैश कराने में पूरी तरह विफल रहे.

कांग्रेस के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अब मिजोरम और कर्नाटक को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बनाया तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बना बनाया माहौल ढह जाएगा. मेघालय से कांग्रेस को भीषण घाव लगा, लेकिन फिर भी सीख लेने का कोई भाव कांग्रेस नेताओं के चेहरे पर नजर नहीं आ रहा. सीख लेने के बजाय आरोप प्रत्यारोप का दौर और तेज और भद्दा हो गया है. पूर्वोत्तर राज्यों के प्रभारी वरिष्ठ कांग्रेस नेता सीपी जोशी कांग्रेस के शामियाने में सार्वजनिक निंदा के पात्र बने हुए हैं. मेघालय कांग्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मुकुल संगमा भी कांग्रेस में चल रही निंदा प्रतियोगिता में निशाने पर हैं.

कांग्रेसियों को यह नहीं समझ में आ रहा कि असम में चुनाव जीतने के बाद से भाजपा ने उस धार को बनाए रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जबकि कांग्रेस अपने पंजे से अपनी ही सीटें गंवाती चली जा रही है. नगालैंड के कांग्रेस अध्यक्ष केवे खाप थेरी ने तो साफ-साफ कहा भी कि कांग्रेस नेतृत्व पूर्वोत्तर से भाग खड़ा हुआ है. इस तरह के बयानों से यह साफ लगता है कि कांग्रेस पार्टी का अंदरूनी माहौल मिजोरम के चुनाव का वातावरण खराब करेगा.

दूसरी तरफ पूर्वोत्तर में वर्चस्व स्थापित करने वाले भाजपा-गठबंधन ने त्रिपुरा में 25 साल पुराना वामपंथियों का ‘लाल-किला’ ध्वस्त कर दिया. लाल सलामियों को पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा पर गर्व रहा है. धीरे-धीरे उनका लाल सलाम केरल में सिमट गया. त्रिपुरा से वामदल का सत्ता से जाना काफी अहम राजनीतिक घटनाक्रम है, क्योंकि बीते 25 वर्षों से माणिक सरकार के नेतृत्व में त्रिपुरा वाम दलों का ‘लाल-किला’ बना हुआ था. त्रिपुरा में भाजपा ने स्पष्ट बहुमत हासिल किया और 60 में से 43 सीटों पर जीत हासिल की. इनमें 35 सीटें अकेले भाजपा की हैं और बाकी अन्य सहयोगी दलों की. पिछले विधानसभा चुनाव में सहयोगियों समेत 50 सीटें जीतने वाले वाम मोर्चा को इस बार के चुनाव में महज 16 सीटों पर जीत हासिल हुई. त्रिपुरा में भाजपा के बिप्लव कुमार देब के नेतृत्व में राजग की सरकार बनी है.

पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा गठबंधन की जीत के जरिए हम विपक्ष की हार की राजनीतिक समीक्षा करें तो पाते हैं कि त्रिपुरा का ‘लाल-किला’ ढहाने में कांग्रेस ने परोक्ष रूप से भाजपा की ही मदद की. 40 लाख से अधिक आबादी वाले त्रिपुरा में मतदाताओं की संख्या 25 लाख है. इनमें से करीब 74 प्रतिशत वोटरों ने इस बार अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. छोटे से इस राज्य में हो रहे चुनाव पर दुनियाभर के अखबारों और समाचार चैनेलों की निगाह थी.

यह दुर्लभ राजनीतिक परिदृश्य था कि 25 साल में पहली बार सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) को कांग्रेस के बजाय भाजपा से सीधी टक्कर मिल रही थी. भाजपा ने इस चुनाव में त्रिपुरा की साफ-सुथरी और ईमानदार वाम सरकार को पानी, सड़क और रोजगार जैसे विकास के बुनियादी मुद्दों पर घेर लिया और इन मसलों पर जनता ने भाजपा का साथ दिया.

किसी ने सोचा नहीं था कि पिछले विधानसभा चुनाव में जिस भाजपा के 50 में से 49 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी, वही पार्टी अगले ही चुनाव में माकपा जैसे खुर्राट राजनीतिक दल को धराशाई कर देगी. पूर्वोत्तर मामलों के जानकार राजनीतिक विश्लेषक जीवानंद बोस कहते हैं कि त्रिपुरा में भाजपा ने ठोस रणनीति तो बनाई ही, लेकिन वाम दलों की काम से अधिक बेमानी बहसबाजी पर अधिक एकाग्रता और कांग्रेस की लचर नीतियों और ढीलेपन ने भाजपा को अधिक मजबूती दी. 2013 के चुनाव में त्रिपुरा में कांग्रेस ने 10 सीटों पर जीत हासिल की थी.

उस चुनाव में कांग्रेस को 36.53 प्रतिशत वोट मिले थे. हैरत की बात है कि इस बार के चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर घटकर महज 1.8 प्रतिशत रह गया. दूसरी ओर भाजपा का वोट प्रतिशत डेढ़ से बढ़कर 43 प्रतिशत तक पहुंच गया. यानि, पिछले पांच साल में वाम सरकार को चुनौती देने और अपनी स्थिति मजबूत करने के बजाय अंदरूनी कलह में घिरी और मूर्खत्व से भरे ‘कल्पनालोक’ में जीती कांग्रेस लगातार अपना जनाधार खोती चली गई. भाजपा ने इसका भरपूर फायदा उठाया.

जीवानंद बोस कहते हैं कि कांग्रेस का हाल तो यह रहा कि उसने अपनी लंगोट बचाने पर भी ध्यान नहीं दिया. 2013 के चुनाव में 10 सीटें जीतने वाले कांग्रेसी विधायकों में से छह नेता पहले तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. बाद में वे भाजपा में शामिल हो गए. पिछले साल दिसम्बर में एक अन्य कांग्रेसी विधायक रतन लाल नाथ भी भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा ने राज्य में स्थानीय नेताओं को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां देकर उनका मान बढ़ाया, जबकि कांग्रेस अपने स्थानीय नेताओं की उपेक्षा करती रही. सारे कांग्रेस नेता अपनी अलग-अलग डफली बजाते रहे और अपना अलग-अलग राग गाते रहे.

कांग्रेस आलाकमान ने इस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया. चुनाव हारने के बाद एक दूसरे को कोसने और गरियाने वाले कांग्रेसियों को राज्य के पुराने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की शिकायतें याद नहीं, जब वे कांग्रेस आलाकमान द्वारा त्रिपुरा की उपेक्षा किए जाने के बारे में लगातार उलाहना दे रहे थे. पूर्वोत्तर के प्रभारी सीपी जोशी दो-तीन बार ही राज्य के दौरे पर गए और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तो बिल्कुल आखिरी वक्त पर त्रिपुरा पहुंचे, जब जहाज डूबने की सनद हो चुकी थी. दूसरी तरफ भाजपा नेताओं ने अलग-अलग क्रम में लगातार अपनी मौजूदगी बनाए रखी. बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सघन दौरा होता रहा.

त्रिपुरा के आम लोग भी कांग्रेस के त्रिपुरा-रवैये को लेकर निंदा प्रस्ताव ही जारी करते हैं. वे कहते हैं कि त्रिपुरा में कांग्रेस हमेशा वाम दलों के दबाव में रही है. त्रिपुरा के लोग 1993 की उस घटना को अब भी याद करते हैं जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने केंद्र में वाम दलों का समर्थन हासिल करने के लिए त्रिपुरा की समीर रंजन बर्मन की सरकार बर्खास्त कर दी थी. इस फैसले का नतीजा यह हुआ कि अगले ही चुनाव में वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी. कांग्रेस उस समय जो वहां से उखड़ी, उसके बाद वहां पैर नहीं जमा पाई. त्रिपुरा के लोगों ने कांग्रेस को उसकी बेजा और ढुलमुल नीतियों की सजा दी.

अपने ही मुख्यमंत्री समीर रंजन बर्मन को अपमानित करने का परिणाम यह हुआ कि बर्मन का बगावती रुख लगातार कांग्रेस को नुकसान पहुंचाता रहा. पिछले चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल करने वाले उनके बेटे सुदीप राय बर्मन भी कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए. सुदीप राय बर्मन इस बार के चुनाव में अगरतला विधानसभा सीट पर भाजपा के टिकट से चुनाव जीते हैं. गैर वाम दलों के असंतुष्ट नेताओं को अपनी पार्टी में प्रतिष्ठा के साथ शामिल करने की भाजपा की रणनीति भी सियासत की बिसात पर कारगर साबित हुई.

इसी तरह नगालैंड में भी भाजपा-गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया. वहां सर्वाधिक सीटें सत्तारूढ़ नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) ने जीतीं. नगा पीपुल्स फ्रंट ने पहले ही प्रस्ताव पारित कर भाजपा गठबंधन में रहने की प्रतिबद्धता घोषित कर दी थी. वहां नीफिउ रीयो के नेतृत्व में सरकार बनी. मेघालय में 21 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी का तमगा लेने के बाद भी कांग्रेस वहां सरकार नहीं बना पाई और दो सीटें पाने वाली भाजपा ने अपने गठबंधन दलों के साथ नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) नेता कॉनराड संगमा के नेतृत्व में सरकार बना ली. एनपीपी ने मेघालय में 19 सीटें जीती हैं. पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में सरकार बनाने के बाद अब देश के कुल 21 राज्यों में भाजपा गठबंधन की सरकार हो गई है. पूर्वोत्तर से शुरू करें तो अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, नगालैंड, मेघालय, मणिपुर, असम, त्रिपुरा, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, गुजरात, गोवा और जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के छाते के नीचे आ चुके हैं.

कलह और अराजकता के बीच कांग्रेस नेतृत्व का लाचार चेहरा

लब्बोलुबाब यह है कि कांग्रेस पार्टी में अनुशासन बनाए रखना भी पार्टी नेतृत्व के लिए भीषण चुनौती का विषय बन गया है. प्रदेश इकाइयों में मची कलह और अराजकता के बीच कांग्रेस आलाकमान का चेहरा बेहद कमजोर दिख रहा है. इस कमजोरी का असर विभिन्न राज्यों के चुनाव पर पड़ रहा है. केंद्रीय नेताओं द्वारा प्रदेश की इकाइयों पर बेवजह दादागीरी करने के आरोप भी सतह पर आ रहे हैं. ऐसी ही दादागीरी के कारण बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी कांग्रेस छोड़ कर जनता दल (यू) में शामिल हो गए. उनके साथ चार विधान परिषद सदस्य भी जदयू में चले गए.

अशोक चौधरी ने कांग्रेस नेता सीपी जोशी पर गुटबाजी का आरोप लगाया और कहा कि कांग्रेस का आंतरिक प्रबंधन बिल्कुल लचर है. कांग्रेस के कई और नेताओं के भाजपा, जदयू या राजद में जाने की संभावना है. उल्लेखनीय है कि कांग्रेस की पूर्व अध्यक्षा सोनिया गांधी ने सीपी जोशी के कहने पर ही अशोक चौधरी को बिहार कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया था. अशोक चौधरी बिहार के वरिष्ठ नेता महावीर चौधरी के बेटे हैं. सीपी जोशी पश्चिम बंगाल, असम और पूर्वोत्तर के भी प्रभारी रहे हैं. पूर्वोत्तर में पार्टी की दुर्गति से जोशी की मुश्किलें बढ़ गई हैं. अरुणाचल प्रदेश के बाद अब नगालैंड में कांग्रेस विद्रोह पर उतारू है. अंतरकलह के कारण कांग्रेस उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में अपनी दुर्गति पहले ही देख चुकी है.

बहरहाल, कांग्रेस की प्रदेश इकाइयों को मजबूत करने और प्रभावशाली प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति करने की मांग तेजी से बढ़ी है. कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मानना है कि कमजोर नेतृत्व के कारण ही आपस का झगड़ा बढ़ा है और हाथ की सीटें भी हारनी पड़ी हैं. राहुल गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के ठीक पहले उनके समक्ष हिमाचल प्रदेश और गुजरात की चुनौती थी और राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के फौरन बाद पूर्वोत्तर के तीन राज्यों की चुनौती सामने आई. दोनों चुनौतियों में कांग्रेस पास नहीं हुई. गुजरात में कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें तो मिलीं, लेकिन सरकार नहीं बन पाई. हिमाचल में कांग्रेस के हाथ से सत्ता निकल गई. यही हाल पूर्वोत्तर में हुआ. अब राहुल गांधी के समक्ष कर्नाटक फिर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान विधानसभा चुनाव की चुनौतियां सामने खड़ी हैं. विधानसभा चुनावों में जूझने के साथ ही संगठन को नए सिरे से खड़ा करने और फिर पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी भी सिर पर है.

अपनी करनी से नाकाम दल में तब्दील हो गया वाम दल

पूर्वोत्तर से वाम दल का पत्ता साफ हो गया. पश्चिम बंगाल की ‘कालजयी’ वाममोर्चा सरकार को इसके पहले ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस उखाड़ चुकी है. वर्ष 2011 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों को 41 प्रतिशत वोट मिले थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वाम दलों का वोट प्रतिशत 29.6 रह गया. वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में वाम दलों को 26.1 प्रतिशत वोट ही हासिल हुए. यानि, गिरावट लगातार होती रही. पश्चिम बंगाल ही क्यों, जहां-जहां भी लेफ्ट की कोई भी पार्टी अस्तित्व में रही है, वहां-वहां से उसका सफाया होता गया. अब केरल ही वाम दलों का अकेला ठौर बचा है.

इस पतन-यात्रा की वजहें भी साफ-साफ दिखती हैं. वाम दलों का शीर्ष नेतृत्व आम देशवासियों के विचार से बिल्कुल ही अलग वैचारिक धरातल पर विचरण करता रहता है. कभी वह सर्जिकल स्ट्राइक के प्रमाण मांगने लगता है तो कभी कश्मीर के पत्थरबाजों के प्रति सार्वजनिक सहानुभूति जताने लगता है. पाकिस्तान और चीन के उकसावों पर चुप्पी साध लेता है तो नेपाल के मसले पर भारत विरोधी बयान जारी करने लगता है. वाम नेताओं के ऐसे बयानों ने उन्हें जनता से दूर कर दिया और धीरे-धीरे वाम दल देश की राजनीति से अप्रासंगिक होते चले गए.

वाम की नीतियों, कार्यक्रमों और विचारों को जनता ने एक तरह से खारिज ही कर दिया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) हो या भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) या कोई अन्य वाम दल, किसी ने भी आम आदमी के मसले को जमीनी धरातल पर हल करने के व्यवहारिक उपाय नहीं तलाशे केवल वैचारिक आकाश पर पतंगबाजी करते रहे. इसी वजह से सियासी आसमान से वाम दलों की पतंग भक्क-काटा हो गई. कभी उत्तर प्रदेश में भी वाम दलों की अच्छी पकड़ रही है, लेकिन आज उनका हाल झख मारने से भी बदतर हो गया है. यूपी के विधानसभा चुनाव में पहली बार भाकपा, माकपा और माले ने मिल कर सौ सीटों पर साझा उम्मीदवार उतारे थे.

वाम के साझा प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार में वाम दलों के सभी स्टार प्रचारक सीताराम येचुरी, डी. राजा, वृंदा करात, दीपंकर भट्‌टाचार्य समेत दर्जनों दिग्गज चुनावी सभाओं में जूझते रहे, लेकिन वोट नहीं दिला पाए. वाम दलों के नेताओं को फिर भी यह समझ में नहीं आया कि वे राजनीति की किस काल्पनिक जमीन पर खड़े हैं. सौ प्रत्याशियों के लिए देश के सभी वाम दल मिल कर भी डेढ़ लाख वोट नहीं जुटा पाए. प्रत्याशियों को अपना वोट देने के बजाय ‘इनमें से कोई नहीं’ (नोटा) का बटन दबाने वाले मतदाताओं ने भी वाम दलों के सौ प्रत्याशियों के कुल वोट से कहीं अधिक ‘नोटा’ के वोट डाले.

वाम दलों के प्रत्याशियों को कुल एक लाख 38 हजार 763 वोट मिले, जबकि ‘नोटा’ के खाते में सात लाख 57 हजार 643 मत पड़े. यूपी के विधानसभा चुनाव में वाम दलों की बुरी हालत का संक्षिप्त जायजा इससे भी मिल जाएगा कि अयोध्या में वाम दलों के साझा प्रत्याशी भाकपा के सूर्यकांत पांडेय को मात्र 1353 वोट हासिल हुए. मुजफ्फरनगर दंगे के गर्म तवे पर सियासत की रोटी सेंकने वाले वाम दलों के साझा प्रत्याशी माकपा के मुर्तजा सलमानी को महज 491 वोट मिले. आजमगढ़ में वाम दलों के साझा प्रत्याशी माकपा के रामबृक्ष को 1040 वोट मिले और गाजियाबाद के साहिबाबाद में वाम के साझा प्रत्याशी माकपा के जगदंबा प्रसाद को 1087 वोट मिल पाए. वाम दलों के सभी साझा प्रत्याशी अपनी-अपनी जमानतें भी नहीं बचा पाए.

आप समझ सकते हैं कि देश में वाम दल किस बुरी हालत में पहुंच गए हैं. फिर भी वे मान नहीं रहे और न अपनी नीतियों में समय की मांग के मुताबिक फेरबदल कर रहे हैं. 1991 के लोकसभा चुनाव में वाम दलों ने नौ राज्यों में जीत दर्ज की थी. आज लेफ्ट पार्टी एक राज्य में सिमट गई है. माकपा ने पश्चिम बंगाल में 1977 से लेकर 2011 तक राज किया. माकपा नेता ज्योति बसु सबसे लंबे समय तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे. लेकिन आज माकपा की दुर्दशा सियासी इतिहास की अजीबोगरीब बानगी है. देश के युवकों ने वाम दलों को पूरी तरह खारिज कर दिया है. अब वाम दल बुड्‌ढों की पार्टी होकर रह गए हैं. माकपा के कुल सदस्यों में महज साढ़े छह प्रतिशत सदस्य 25 वर्ष या उससे कम उम्र के हैं.

ऐसी ईमानदारी किस काम की जब विकास की फाइलों पर बैठे रहे 25 साल

वाम दलों के नेताओं ने व्यक्तिगत ईमानदारी तो बरती, लेकिन जिन राज्यों में वे राज करते रहे उन्हें विकास की दौड़ में काफी पीछे धकेल दिया. विकास की फाइलें वाम-राज में रुकी रहीं. वाम नेता विकास की फाइलों को अंडे की तरह सेते रहे, लेकिन एक चूजा भी क्यों नहीं निकाल पाए, विकास में काफी पीछे रह गए त्रिपुरा के लोग यह सवाल पूछते हैं. पिछले 25 साल में बढ़ी गरीबी की वजहें वे ईमानदार माणिक सरकार की वाम सरकार से जानना चाहते हैं. 13वें वित्त आयोग से त्रिपुरा को मिले 7283 करोड़ रुपए और 14वें वित्त आयोग के तहत मिले 25,396 करोड़ रुपए के बड़े फर्क ने भी त्रिपुरा के लोगों को राजनीतिक तौर पर सतर्क करने का काम किया. त्रिपुरा के लोग वाम दलों से 18 हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि का हिसाब मांग रहे थे, हिसाब नहीं मिला तो लोगों ने अपनी नाराजगी को वाम-विरोधी वोट में तब्दील कर दिया.

बदलता गया समीकरण और ध्वस्त होता गया चुनावी गणित

पिछले ढाई दशक में उत्तर प्रदेश ने सियासी समीकरणों को बनते और बिगड़ते, टूटते और बिखरते देखा है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा 177 सीटें जीती थी. सपा को तब 109 सीटें हासिल हुई थीं. बसपा को 67 और कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं. 177 सीटें जीत कर भी भाजपा सरकार नहीं बना पाई थी और सपा-बसपा गठबंधन ने कांग्रेस से समर्थन लेकर मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सरकार बना ली थी. गठबंधन में शामिल होने के बावजूद मायावती द्वारा सार्वजनिक मंचों से मुलायम की निंदा किए जाने से तल्खी बढ़ती गई. दो जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं. राजनीतिक काल-परिस्थिति ने ऐसी करवट बदली कि गेस्ट हाउस कांड की अभियुक्त पार्टी के साथ तालमेल करने से मायावती ने परहेज नहीं किया. राजनीति इसी मौकापरस्ती का नाम है.

हम यहां तीन चुनावों का जिक्र कर रहे हैं. 1993 का विधानसभा चुनाव, 2014 का लोकसभा चुनाव और 2017 का विधानसभा चुनाव. इन तीनों चुनावों के परिणाम और उसके बाद के हालात ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूचाल लाने का काम किया है. 1993 के चुनाव और प्रतिउत्पाद के दृश्य आपने देखे. अब आते हैं 2014 के लोकसभा चुनाव पर. लोकसभा के इस चुनाव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति के सारे आंकड़े और समीकरण ध्वस्त कर डाले. 2014 के चुनाव में भाजपा को 71 सीटों पर जीत मिली. प्रदेश में सरकार में होने के बावजूद सपा को महज पांच सीटें हासिल हुईं और बसपा शून्य पर पहुंच गई. राहुल गांधी और सोनिया गांधी अपनी सीटें बचा ले गए. दो सीटें पाकर कांग्रेस ने अपनी इज्जत बचाई. इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ.

भाजपा ने रिकॉर्ड जीत हासिल करते हुए अकेले 312 सीटें अपने खाते में कर लीं. भाजपा गठबंधन को 325 सीटें मिलीं, जिसमें अपना दल को नौ और भारतीय समाज पार्टी (सुहेलदेव) को चार सीटें शामिल हैं. सरकार में बैठी सपा को 47 सीटें मिल पाईं. बसपा को 19 और कांग्रेस को महज सात सीटों पर संतोष करना पड़ा. आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ. लोकसभा चुनाव में 71 सीटों पर जीत और विधानसभा चुनाव में 312 सीटों पर भाजपा की जीत ने भविष्य के सारे राजनीतिक समीकरण गड्‌डमड्‌ड कर दिए. इसी में सारे विपक्षी दल चक्करघिन्नी हैं.

छोटे दल भी खोते जा रहे हैं अपना औचित्य

बदलते समय में छोटे और क्षेत्रीय दल भी अपना औचित्य खोते चले गए. 80 के दशक में उत्तर प्रदेश में जब जातिवादी राजनीति और क्षेत्रीयतावाद सिर चढ़ कर बोल रहा था, उस समय छोटे क्षेत्रीय दल भी प्रभावी तरीके से उभर रहे थे. हालांकि छोटे गैर मान्यता प्राप्त दलों के चुनाव मैदान में उतरने की शुरुआत 1962 में ही हो चुकी थी, जब दलितवादी रिपब्लिकन पार्टी और धर्मवादी हिन्दू महासभा और राम राज्य परिषद चुनाव मैदान में उतरी थी. उस वक्त रिपब्लिकन पार्टी को आठ सीटें और हिन्दू महासभा को दो सीटें मिली थीं. 1969 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांतिदल को 98 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और वह पार्टी उत्तर प्रदेश की 425 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.

1985 में बसपा ने कामयाबी हासिल की और उसके बाद अपना दल, राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी, इंडियन जस्टिस पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी जैसे कई राजनीतिक दल सामने आते गए. बाद के दौर में शिवसेना और उलमा काउंसिल ने भी यूपी में चुनावी दाव खेले. इसी में पीस पार्टी ने भी अपने कुछ विधायक जिता कर शिनाख्त दर्ज करा ली. यानि, 1985 के बाद छोटे दलों की संख्या लगातार बढ़ी. 2007 में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले छोटे दलों की तादाद 111 तक पहुंच गई. लेकिन संख्या बढ़ोत्तरी के साथ-साथ इनका औचित्य भी खोता गया. वर्ष 1991 के विधानसभा चुनाव में 34 छोटे दलों ने कुल 645 उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें केवल दो ही जीत सके और 641 की जमानत जब्त हो गई.

हालांकि 1993 में ग्राफ बढ़ा और 59 छोटे दलों के 1205 प्रत्याशियों में से 110 प्रत्याशी जीत गए. मुलायम सिंह यादव गैर मान्यता प्राप्त समाजवादी पार्टी (सपा) ने 109 सीटें जीती थीं. फिर यह ग्राफ नीचे गिरा और 1996 के विधानसभा चुनाव में 61 छोटे दलों के 1102 उम्मीदवारों में से महज 11 ही जीत पाए. 2002 के विधानसभा चुनाव में 58 छोटी पार्टियों ने 1332 प्रत्याशी उतारे जिनमें से 29 जीते. 2007 के विधानसभा चुनाव में 111 छोटे दलों ने 1356 प्रत्याशी उतारे लेकिन उनमें से महज सात जीत पाए और 1329 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में छोटे दलों ने बड़े समीकरणों को ‘डिस्टर्ब’ करने का खेल जरूर किया.

पीस पार्टी और महान दल जैसे छोटे दल तमाम सीटों पर चौथे, पांचवें और छठे स्थान पर तो जरूर रहे, पर इन दलों ने सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों का कई सीटों पर संतुलन बिगाड़ दिया था. 2012 के विधानसभा चुनाव में रालोद ने जो नौ सीटें जीती थीं, उनमें से आठ सीटों पर बसपा के उम्मीदवार हारे थे. पीस पार्टी ने जो चार सीटें जीती थीं, उनमें से तीन पर बसपा और एक पर सपा प्रत्याशी को हराया था. नौ सीटों पर अपना दल दूसरे नंबर पर और 23 सीटों पर तीसरे स्थान पर आया था.

पीस पार्टी तीन सीटों पर दूसरे स्थान, आठ सीटों पर तीसरे और 24 सीटों पर चौथे स्थान पर रही थी. 2012 के चुनाव में इत्तेहाद-ए-मिल्लत काउंसिल ने बरेली की भोजीपुरा सीट जीतकर सबको हैरत में डाल दिया था. उसने बरेली शहर, कैंट और बिथरी चैनपुर सीट पर समाजवादी पार्टी का खेल भी बिगाड़ दिया था.

इन तीनों सीट पर वह तीसरे स्थान पर रही थी. काउंसिल ने बरेली की छह विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे. 2017 के विधानसभा चुनाव में विपक्षी खेमे के सारे छोटे दल हवा में उड़ गए. भाजपा गठबंधन के साथ रहे अपना दल (सोनेलाल) को नौ सीटें मिलीं और भारतीय समाज पार्टी (सुहेलदेव) को चार सीटें मिलीं. भाजपा अकेले ही 312 सीटों पर जीत गई.

अपने घर में भी तिकड़म करने से बाज नहीं आए अमित शाह

तिकड़म रचने की आदत है तो अपने घर में भी तिकड़म से बाज नहीं आते भाजपा के शीर्ष नेता. हिमाचल चुनाव से लेकर गुजरात और पूर्वोत्तर तक चुनाव जीतने के लिए भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश के ‘फायर-ब्रांड’ और ‘ऑनेस्ट-ब्रांड’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का पूरा इस्तेमाल किया, लेकिन गोरखपुर लोकसभा के लिए होने वाले उप चुनाव में योगी की पसंद का उम्मीदवार नहीं दिया. अयोध्या के एक संन्यासी ने भाजपा के शीर्ष नेता के इस चरित्र पर उस बिच्छू की कथा सुनाई, जो उसकी प्राण रक्षा करने वाले साधु की हथेली पर बैठा भी था और उन्हें लहू-लुहान भी कर रहा था.

गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ की पसंद का प्रत्याशी नहीं देने का फैसला करने वाले नेता की साधु के हाथ में बैठे बिच्छू से तुलना बिल्कुल सटीक है. गोरखपुर संसदीय सीट के लिए उपेंद्र शुक्ला को टिकट दिए जाने का फैसला योगी को डंक मारने जैसा ही है. अमित शाह ने अपने ही मुख्यमंत्री के सामने ऐसी शातिराना बिसात बिछाई है कि जीते तब भी गए और हारे तब भी गए. गोरखपुर लोकसभा सीट योगी आदित्यनाथ की पारंपरिक सीट रही है.

वहां से योगी की पकड़ को कमजोर करने के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उपेंद्र शुक्ला को उम्मीदवार बनाया. गोरखपुर सीट से हमेशा राजपूत प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरता और जीतता रहा है, लेकिन इस बार शाह ने ब्राह्मण को सामने करके राजपूत वर्चस्व को समाप्त करने का तानाबाना बुन दिया है. गोरखपुर सीट से योगी आदित्यनाथ पिछले पांच बार से चुनाव जीतते आए. उनके मुख्यमंत्री बनने से यह सीट खाली हुई. 30 साल बाद गोरखपुर संसदीय सीट के लिए कोई ब्राह्मण प्रत्याशी भाजपा के टिकट से चुनाव लड़ने जा रहा है. अमित शाह ने इस उम्मीदवार के जरिए गोरखपुर संसदीय सीट पर कायम गोरखधाम के प्रभाव को कम करने और योगी को कमजोर करने की कोशिश की है. सियासत की सारी रेस जीत लेने का दंभ भरने वाले भाजपा नेता ने टायर में सुई चुभो ली है, इसका एहसास उन्हें बाद में होगा…\

जनता की नाराज़गी के कारण राजस्थान के उप चुनावों में हारी भाजपा

अब आते हैं मध्य प्रदेश और राजस्थान के उप चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता के बावजूद अपेक्षित जन-समर्थन न मिलने के कारणों पर. राजस्थान में अलवर और अजमेर की दो लोकसभा और मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) की एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस ने जीत हासिल की. इस जीत का प्रदेश में जो ‘मैसेज’ गया वह कांग्रेस की जीत से अधिक भाजपा की हार का था. यानि, हार के बावजूद भाजपा ही चर्चा के केंद्र में रही. कांग्रेस इस जीत की ‘मार्केटिंग’ करने के बजाय अशोक गहलोत बनाम सचिन पायलट में ही फंसी रही. राजस्थान के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक भी राजस्थान उप चुनाव के नतीजों को कांग्रेस की जीत से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की हार के एंगल से देखते हैं. उनका मानना है कि जिस तरह पूर्वोत्तर में भाजपा ने रणनीतिक रफूगीरी की, वैसा ही ‘होमवर्क’अगर राजस्थान में भी कर लिया तो उसका फायदा मिल सकता है.

हालांकि राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के कार्यकाल में चौपट हुई विकास-यात्रा के कारण लोगों में व्याप्त नाराजगी को भाजपा की ‘कलाकारी’ कितना कम कर पाएगी, इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक अभी कुछ नहीं कह पा रहे हैं. उनका कहना है कि राजस्थान के उप चुनावों में कांग्रेस की जीत कांग्रेस की रणनीति के कारण नहीं, बल्कि मतदाताओं की भाजपा से नाराजगी के कारण हुई. तीनों सीटों पर आम मतदाता कांग्रेस के साथ दिखने के बजाय भाजपा के खिलाफ खड़े दिख रहे थे.

नोटबंदी और जीएसटी के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों, मसलन, ढांचागत बदहाली, सड़कों की खराब हालत, किसान विरोधी नीति, खाद-बीज की सब्सिडी काटना, कर्मचारियों की उपेक्षा, पानी की अव्यवस्था, भ्रष्टाचारी मंत्रियों और अधिकारियों को बचाने के लिए काले कानून की सिफारिश, स्कूलों, बसों, चिकित्सकीय जांचों जैसे जनता से जुड़े अनिवार्य सरकारी काम को ‘पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप’ के फार्मूले से जोड़ने जैसे बेजा सरकारी फैसलों ने भी राजस्थान के मतदाताओं को भाजपा से दूर किया है.

अधिकतर विश्लेषक और जानकार प्रदेश के विकास की तरफ सिंधिया सरकार की उपेक्षा और पार्टी की प्रदेश इकाई में मची अंदरूनी कलह को इस हार की मुख्य वजह बताते हैं. अलवर में पहलू खान की हत्या पर कानूनी कार्रवाई में ढिलाई बरतने, मेव समुदाय की उपेक्षा करने, राजसमंद में बुजुर्ग की हत्या पर चुप्पी साधने, धार्मिक उन्माद फैलाने, अजमेर में बाहुबली आनंदपाल को फर्जी इन्काउंटर में मारने और राजपूतों के विरोध के बावजूद पद्मावत फिल्म के प्रदर्शन को मंजूरी देने जैसे कई अहम स्थानीय मुद्दे भी वसुंधरा सरकार के खिलाफ गए हैं.

राजधानी जयपुर में मुख्यमंत्री सचिवालय और सरकार का कवरेज करने वाले कई वरिष्ठ पत्रकारों ने भी कहा कि मुख्यमंत्री समेत कई भाजपा नेताओं पर सत्ता का अहंकार हावी रहा, जिससे आम जनता के साथ-साथ कार्यकर्ता भी बिदक गए. नाराजगी इस हद तक पहुंच गई कि उप चुनाव के परिणाम पर भाजपा के कार्यकर्ता भी खुश नजर आए. कांग्रेस खेमे से ही यह बात भी निकल कर आई कि अजमेर में कई बूथों पर भाजपा के कार्यकर्ताओं ने अपनी पार्टी के खिलाफ वोट डलवाए.

एक बूथ पर तो भाजपा के पक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा. दूसरे एक बूथ पर भाजपा को महज एक वोट मिला. इससे भाजपा के खिलाफ लोगों की नाराजगी स्पष्ट तौर पर समझी जा सकती है. स्थिति इतनी विपरीत है कि इन उपचुनावों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी खुद को अलग ही रखा. संघ से जुड़े एक वरिष्ठ स्वयं सेवक ने बताया कि चुनाव में जब संघ के कार्यकर्ता ही बाहर नहीं निकले तो वे मतदाताओं को कैसे बाहर निकालते. अजमेर में तो पार्टी की बैठक में संघ के पदाधिकारियों ने प्रदेश भाजपा के नेताओं के साथ बैठने से ही इन्कार कर दिया था.

मध्य प्रदेश उप चुनाव : कलह में भंग हो गया जीत का उत्साह

मध्य प्रदेश में भी दो विधानसभा सीटों कोलारस और मुंगावली में कांग्रेस की जीत ने कांग्रेस समर्थकों और कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार किया, लेकिन यह उत्साह ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के तीन खेमों में खिंच कर छिन्न-भिन्न हो गया. विधानसभा की महज दो सीटों पर मिली जीत के आधार पर कांग्रेस का कोई नेता ज्योतिरादित्य को भावी मुख्यमंत्री बनाए दे रहा है तो कोई कमलनाथ को. कांग्रेस नेता दिग्विजय के पर कतरे जाने की चौपाल-चर्चा में लगे हैं और यह नहीं समझ रहे कि इसका असर फाइनल मैच पर कितना पड़ेगा. उप चुनाव के परिणाम आने के बाद से यह चर्चा भी सरगर्म है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश का जिम्मा कमलनाथ संभालेंगे या फिर ज्योतिरादित्य. दोनों नेताओं के समर्थक अपने-अपने तरीके से दावेदारी पेश कर रहे हैं और दिग्विजय सिंह खेमा चुप्पी साधे हुए इस दोधारी दावेदारी के छेद तलाश रहा है.

मध्य प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में दिग्विजय सिंह को खलनायक साबित करने की मुहिम चल पड़ी है. उप चुनाव में वैसे तो दिग्विजय की भूमिका हाशिए पर रही, लेकिन भविष्य में दिग्विजय फिर न उठ कर खड़े हो जाएं, इसके लिए अभी से पेशबंदी हो रही है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी द्वारा इंदौर जिला कार्यकारिणी भंग किए जाने का मसला भी प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है. दिग्विजय सिंह और उनके विधायक पुत्र जयवर्धन सिंह की सिफारिश पर जिला कमेटी में की गई नियुक्तियों के अलावा कांग्रेस से निष्कासित कमलेश खंडेलवाल के कहने पर बोरिंग के लिए दिग्विजय द्वारा अपनी सांसद निधि से 10 लाख रुपए देना भी जंजाल बना हुआ है. वार्ड चुनाव में मुहम्मद गौरी को दिग्विजय सिंह का समर्थन मिलना और दिग्विजय के बेटे जयवर्धन द्वारा कांग्रेस के बागी इकबाल खान के बेटे शाहनवाज को शहर कांग्रेस का महामंत्री बनवा देना आफत का सबब बन गया.

सपा-बसपा के अवसरवादी तालमेल से सशंकित कांग्रेस

बिहार में महागठबंधन से अलग होने वाली समाजवादी पार्टी के साथ उत्तर प्रदेश में हाथ मिलाने वाली कांग्रेस अब बसपा को लेकर फंस गई है. समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी जैसी बैरी पार्टी से तालमेल कर लिया है. अब कांग्रेस को तय करना है कि 2019 के पहले वह यूपी में सपा बसपा के साथ तिकड़ी में शामिल होती है या अपना अलग रास्ता अख्तियार करती है, जैसा उसने इस बार यूपी के दो उप चुनाव को लेकर अपना अलग रास्ता अख्तियार किया. कांग्रेस ने एक-एक सीट पर चुनाव लड़ने का सपा को प्रस्ताव दिया था, लेकिन सपा ने इन्कार कर दिया. सपा को बसपा से गठजोड़ पसंद आया. हालांकि सपा-बसपा का गठबंधन भी 2019 के लोकसभा चुनाव तक शायद ही चल पाए. 23 साल बाद मिले हाथ जल्दी ही विलग भी हो सकते हैं. मायावती ने ऐसे संकेत भी दिए हैं. बहरहाल, अभी गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में मायावती की पार्टी सपा प्रत्याशी का समर्थन करेगी.

राजनीतिक पंडित इसे अवसरवादी करार बता रहे हैं. उनका मानना है कि मायावती ने राज्यसभा में अपनी एक सीट पक्की करने के लिए सपा से हाथ मिलाया है. बसपा अपने बूते राज्यसभा में एक भी प्रतिनिधि नहीं भेज सकती थी. बसपा ने कांग्रेस को भी यह कह कर अपने जाल में फंसाया है कि कांग्रेस अगर मध्य प्रदेश में राज्यसभा चुनाव जीतना चाहती है तो उसे यूपी के राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के सात विधायकों के जरिए बसपा को वोट देना होगा. मध्य प्रदेश में बसपा के चार विधायक हैं.

प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा-बसपा समझौते को ‘केरबेरका करार’ कहा है. बसपा के साथ हाथ मिलाने के बाद सपा ने दिन में सपना देखना शुरू कर दिया है. सपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नंदा कहते हैं कि सपा और बसपा के एक होने से फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव में साम्प्रदायिक ताकतें पराजित होंगी, क्योंकि भाजपा दोनों उप चुनाव हारने जा रही है. ‘स्वप्निल’ नंदा यह भी कहते हैं कि फूलपुर उपचुनाव 2019 के चुनावों की दिशा और दशा तय करेगा.

राज्यसभा पहुंचने के लिए सीटों का गणित बसपा के रास्ते में बाधा डाल रहा था. 19 विधायकों के बूते बसपा के किसी प्रतिनिधि का राज्यसभा पहुंच पाना मुश्किल था. इसलिए बसपा ने सपा का हाथ थाम लिया. बसपा प्रमुख मायावती ने कहा भी कि सपा राज्यसभा में बसपा का समर्थन करेगी और बसपा सपा को विधान परिषद में मदद करेगी.

इससे सपा को विधान परिषद में एक सीट का फायदा हो जाएगा. पिछले साल जुलाई में मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था. मायावती की खाली सीट समेत राज्यसभा की यूपी से 10 सीटों पर 23 मार्च को चुनाव होगा. सपा छोड़कर कोई भी विपक्षी दल अपना एक भी उम्मीदवार राज्यसभा भेजने की स्थिति में नहीं है. सपा-बसपा करार हो जाने के बाद साझा उम्मीदवार के तौर पर बसपा का एक सदस्य राज्यसभा पहुंच जाएगा. राज्यसभा पहुंचने के लिए कम से कम 37 वोटों की जरूरत है.

संख्या गणित के हिसाब से भाजपा अपने आठ उम्मीदवारों को राज्यसभा पहुंचा देगी. सपा के पास 47 विधायक हैं. मायावती के 19 विधायकों को मिला कर यह संख्या 66 हो जाएगी. सपा-बसपा का साथ देने के अलावा सात विधायकों वाली कांग्रेस पार्टी के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है. बसपा का साथ मिलने से 12 सीटों के लिए अप्रैल में होने वाले विधान परिषद चुनाव में सपा एक और सीट हासिल कर लेगी. विधान परिषद की एक सीट के लिए 32 वोटों की जरूरत है. लिहाजा संख्या बल के मुताबिक भाजपा 10 सीटें हासिल कर लेगी. गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनाव और राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव सपा-बसपा के भविष्य के तालमेल को भी निर्धारित करेंगे.

राजनीतिक विश्लेेषकों का मानना है कि तालमेल के जरिए सपा और बसपा दोनों ने मिल कर कांग्रेस को दबाव में लिया है. उप चुनाव में कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी उतारा है, लेकिन उसकी मजबूरी है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा से भिड़ने के लिए वह सपा, बसपा, वाम दलों और राजग विरोधी छोटे दलों के साथ रहे. सपाई प्रेक्षकों की यह ‘कल्पना’ है कि उप चुनाव में यदि सपा का कोई प्रत्याशी जीता तो भाजपा के खिलाफ व्यापक गठबंधन तैयार करने में अखिलेश यादव का हाथ ऊपर रहेगा. गोरखपुर और फूलपुर के उप चुनाव में निषाद पार्टी और पीस पार्टी ने सपा का समर्थन किया है.

सपा ने निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय कुमार निषाद के बेटे प्रवीण कुमार निषाद को गोरखपुर से अपना उम्मीदवार बनाया है. फूलपुर से सपा ने नागेंद्र पटेल को अपना प्रत्याशी बनाया है. फूलपुर से निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर माफिया सरगना अतीक अहमद के खड़े होने और कांग्रेस द्वारा ब्राह्मण उम्मीदवार मनीष मिश्र को उतार दिए जाने से सपा का रास्ता मुश्किल और भाजपा के लिए आसान हो गया है. गोरखपुर में भी कांग्रेस द्वारा मुस्लिम प्रत्याशी मशहूर डॉक्टर सुरहिता करीम को उम्मीदवार बनाने से सपा के सामने अड़चन खड़ी हो गई है. डॉ. सुरहिता करीम समाजवादी पार्टी के वोट में असरकारक सेंध लगा सकती हैं.

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