rahul gandhiमुझे नहीं लगता कि विरोधी पक्ष में रहने वाले कोई सीख ले पाएंगे और यही प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की सबसे बड़े आशा है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि चाहे उत्तर प्रदेश हो, बिहार हो या कर्नाटक हो, विरोधी पक्ष आपस में लड़ने और किसी एक साथी को किस तरह से दूर रखा जाए, इसकी रणनीति बनाने के काम में ज्यादा जुटा हुआ है. सबसे पहले हम उत्तर प्रदेश की बात करते हैं.

उत्तर प्रदेश से भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा सांसद मिले थे. अगर उत्तर प्रदेश से इतने सांसद नहीं मिलते तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार संभवतः इतनी आसानी से नहीं बन पाती. ठीक यही हाल बिहार का है. अगर सिर्फ ये दोनों प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के विरोध में एकजुट हो जाते, तब वर्तमान सरकार का स्वरूप कुछ और ही होता और शायद प्रधानमंत्री भी कोई और होता. उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव (गोरखपुर और फूलपुर) में विपक्ष जीता, यानि अखिलेश यादव की पार्टी जीती. इस जीत में मायावती जी का बहुत बड़ा योेगदान था, जिन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि वो अपना उम्मीदवार इन दोनों जगहों पर नहीं उतारेंगी. न केवल इतना, बल्कि उन्होंने इशारा भी दे दिया था कि उनके समर्थक समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दें.

कैराना में भी यही हुआ. विधानसभा की सीट भी समाजवादी पार्टी जीती. इससे एक आशा पैदा हुई कि उत्तर प्रदेश में विपक्ष एकजुट हो जाएगा. उत्तर प्रदेश में विपक्ष का मतलब अखिलेश यादव, मायावती जी और कांग्रेस पार्टी. कांग्रेस पार्टी का वहां कोई सर्वमान्य नेता नहीं है, इसलिए हम राहुल गांधी जी का ही नाम लेते हैं. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस वहां ज्यादा सीटें मांग रही है और मायावती जी तथा अखिलेश यादव उतनी सीटें कांग्रेस को देने के लिए तैयार नहीं हैं. अजित सिंह भी एक समर्थ खिलाड़ी बनकर उत्तर प्रदेश में उभरे हैं.

कैराना सीट उन्हीं के उम्मीदवार ने जीती. अब प्रश्न खड़ा होता है कि अगर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और अजित सिंह मिल जाएं, तो उत्तर प्रदेश में सीधी लड़ाई भारतीय जनता पार्टी से हो जाएगी और तब उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति 2014 जैसी नहीं होगी. भारतीय जनता पार्टी अभी भी उत्तर प्रदेश में विपक्ष को कैसे कमजोर किया जाए, इस पर जोर-शोर से लगी हुई है.

मायावती जी का बयान आया कि अगर उन्हें सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं तो उत्तर प्रदेश में वे अकेले लोकसभा का चुनाव लड़ेंगी. दूसरी तरफ, अखिलेश यादव का यह बयान कि हम कुछ कम सीटों पर भी चुनाव लड़ सकते हैं. तीसरी तरफ, कांग्रेस लगभग तीस सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है. इनमें अजित सिंह ही सबसे ज्यादा समझदार दिखाई देते हैं, जो सीटें नहीं मांग रहे हैं. लेकिन अंदाजा यह है कि वे पांच सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं.

बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी मिलकर कांग्रेस को पांच से आठ सीटें देना चाहती हैं, लेकिन कांग्रेस इस पर तैयार नहीं है. लेकिन सवाल यह नहीं है कि किसे कितनी सीटें मिलेंगी, सवाल यह है कि इन नेताओं के बीच अभी से मीडिया के माध्यम से बातचीत होनी शुरू हो गई है. होना यह चाहिए था कि प्रेस के पास जाने से पहले, आपस में किसी नतीजे पर पहुंच जाएं और उसके बाद प्रेस के पास जाएं, पर ऐसा नहीं हो रहा है.

इसी तरह, बिहार में नीतीश कुमार देश में मोदी विरोध के अकेले नेता बनकर उभर रहे थे, पर लालू यादव के साथ उनके मतभेद ने उन्हें एक किनारे खड़ा कर दिया और उन्होंने सरकार चलाने के लिए एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी का हाथ पकड़ा. शायद उनका यह मानना रहा होगा कि अगर कोई सरकार नहीं बनती है तो उस स्थिति में चुनाव होगा और भारतीय जनता पार्टी आसानी से जीत जाएगी. इसकी जगह उन्होंने बिहार में स्थानीय शासन के बलबूते अपनी साख बनाने की कोशिश करना ज्यादा श्रेयस्कर समझा. अब सीटों के सवाल पर उनमें और भारतीय जनता पार्टी में मतभेद नजर आ रहे हैं.

ऐसी स्थिति में बजाए इसके कि तेजस्वी यादव थोड़ा सा धैर्य रखते, यह बयान दे दिया कि नीतीश कुमार के लिए महागठबंधन में कोई जगह नहीं है. अगर तेजस्वी यादव अखबारों के जरिए बयान नहीं देते और पहले नीतीश कुमार, फिर उपेन्द्र कुशवाहा और रामविलास पासवान के साथ खामोशी से बातचीत कर लेते तो ज्यादा अच्छा होता. बिहार में ही कांग्रेस का यह बयान कि कभी किसी के लिए दरवाजे बंद नहीं होते, बताता है कि कांग्रेस अपने आंकलन में नीतीश को ज्यादा प्रासंगिक मानती है और वो कोशिश करेगी कि तेजस्वी यादव या राष्ट्रीय जनता दल किसी एक समझौते पर पहुंच जाएं. यहां तेजस्वी यादव को पहले के नेताओं से सीख लेने की जरूरत है.

कर्नाटक में अभी-अभी कांग्रेस और देवेगौड़ा जी की पार्टी की सरकार बनी है और कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने हैं. कुमारस्वामी संभल कर चलने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन जिस तरह से सरकार बनी है, उसमें हर एमएलए कुछ न कुछ चाहता है. उसे यह मालूम है कि हर एक विधायक का कर्नाटक विधानसभा में महत्व है. इसलिए नौ एमएलए कांग्रेस के भूतपूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से मिलकर एक ऐसा माहौल खड़ा कर रहे हैं, जिससे लगता है कि अगर सिद्धारमैया भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलते हैं तो मौजूदा सरकार गिर जाएगी. दरअसल, सिद्धारमैया देवेगौड़ा जी की राजनीतिक क्रिएशन हैं. वो देवेगौड़ा जी के साथी थे. पिछले चुनाव में श्री अहमद पटेल की वजह से सिद्धारमैया, देवेगौड़ा जी का साथ छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए और बाद में मुख्यमंत्री बने.

उनकी सारी कोशिशों के बावजूद, कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही और कुमारस्वामी तीसरे स्थान पर रहे. कुमारस्वामी का शुरू से स्टैंड बिल्कुल साफ था कि जो उन्हें मुख्यमंत्री बनाएगा, उसके साथ जाएंगे. भाजपा ने देर कर दी और कांग्रेस ने इसमें बाजी मार ली. अब भारतीय जनता पार्टी की तरफ से इस सरकार को गिराने की जी-जान से कोशिश हो रही है और उसमें कांग्रेस के भीतर के लोग पूरा सहयोग कर रहे हैं. कांग्रेस के भीतर जितनी अनुशासनात्मक समझ होनी चाहिए थी, वो नहीं है. दूसरी तरफ, कांग्रेस पार्टी अभी समझ नहीं पा रही है कि वो कर्नाटक को कैसे हैंडल करे. इस सरकार को चलने दे या नए सिरे से चुनाव कराए.

राहुल गांधी कोई फैसला ही नहीं करते. इसलिए राहुल गांधी से लोगों की निराशा बढ़ रही है. पूरा संगठन अभी तक राहुल गांधी ने नहीं बनाया है. जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां किस तरह का संगठन चाहिए, कौन प्रभारी होना चाहिए, किसे टिकट देना चाहिए, इसे लेकर कोई प्रक्रिया अभी भी शुरू नहीं हुई है. अभी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने हैं. उनके सामने गुजरात और कर्नाटक में हुई गलतियां हैं. पर कांग्रेस पार्टी के लोगों को लगता है कि उनका नेता उनकी बात नहीं समझ रहा है. विपक्ष में कोई एक नेता नहीं है, जो सारे लोगों को एकजुट कर सके.

अभी भी यह पहल राहुल गांधी के हाथ में ही है, लेकिन राहुल गांधी अभी भी पहल नहीं कर रहे हैं. वे आखिरी समय में पहल करेंगे और उस समय तक विपक्ष उनसे बातचीत करने से मना कर देगा. तब एक नई रणनीति उभरेगी कि हर राज्य में, जहां गैर भाजपा पार्टियां मजबूत हैं, अपने उम्मीदवार खड़ा करेंगी और कांग्रेस हर जगह अवसर खोती नजर आएगी. लेकिन यह विपक्ष का ऐसा अंतरविरोध हैं, जिससे अगर विपक्ष नहीं उभर पाया तो फिर लोग प्रधानमंत्री मोदी को वोट देना ज्यादा अच्छा समझेंगे. लोग ऐसी पार्टी को वोट देना पसंद नहीं करेंगे, जो सरकार बनाने के बाद भी सिवाय लड़ने-झगड़ने के कुछ नहीं करेगी.

दूसरी तरफ, अगर यह चुनाव जनता बनाम भारतीय जनता पार्टी हो जाता है, तो फिर नतीजा दूसरा होगा. तब प्रधानमंत्री कौन होगा, यह सवाल अर्थहीन हो जाएगा. यह ऐसा सवाल है, जिसका उत्तर विपक्ष को भी तलाशना है और भारतीय जनता पार्टी को भी तलाशना है.

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