tej pratapराष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद के परिवार में कोई दो दशक बाद ऐसा उत्सवी माहौल बना. लालू-राबड़ी की पहली संतान मीसा भारती की शादी के बाद उनकी सातवीं संतान तेजप्रताप यादव की शादी में ही राजद नेता-कार्यकर्ता की ऐसी बड़ी भागीदारी का सुयोग रहा. राजद के बड़े नेताओं के दावों पर भरोसा करें तो पचास हजार से अधिक लोगों ने शादी समारोह में शिरकत की. स्वाभाविक है इसमें अतिशयोक्ति होगी, पर संख्या बड़ी था- किसी राजनेता की संतान की शादी के भागीदारों के बनिस्बत.

सूबे के हर हिस्से से राजद के नेता तो आए ही थे, कार्यकर्ता भी आए थे. सुप्रीमो के बेटे की शादी तो थी ही, महीनों से जेल में बंद सुप्रीमो के दर्शन के सुयोग भी थे. किसको क्या लाभ मिला यह कहना तो कठिन है, पर मुख्य आयोजन स्थल पर अव्यवस्था खूब रही. अव्यवस्था के कारण राजद के अधिकतर बड़े नेता व अन्य मेहमान या तो आयोजन स्थल तक पहुंच ही नहीं सके, पहुंचे भी तो भीड़ में दब गए- भोजन तो दूर की बात रही.

भोजन सामग्री की कमी होने पर तोड़-फोड़ भी हुई, भीड़ को नियंत्रित करने के लिए अनौपचारिक तौर पर बल प्रयोग भी करना पड़ा. वस्तुतः राजद सुप्रीमो व उनके परिवार के लिए यह मई का महीना ऐतिहासिक रहा- कई दृष्टियों से. सज़ायाफ्ता लालू को इलाज के लिए छह हफ्ते की जमानत मिली है. यह जमानत कई शर्तों के साथ है, पर परिवार व उनके समर्थकों के लिए यही काफी है कि वे जेल से बाहर हैं. परिवार के ज्येष्ठ पुत्र तेजप्रताप यादव की शादी हुई. इस शादी के लिए श्रीमती राबड़ी देवी ने छठ देवी से मन्नत मांगी थी. लालू-राबड़ी परिवार में एकबार औऱ शहनाई बजनी है और हम उम्मीद करते हैं, यह अवसर भी जल्द ही आएगा.

शादी नितांत मांगलिक और एक सामाजिक अवसर होता है. पर जब यह बड़ी हस्तियों के परिवार से जुड़ा हो तो इसके आयाम ही बदल जाते हैं, फिर शादी केवल मांगलिक अवसर नहीं रह जाती है. यह उम्मीद सूबे के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तेजप्रताप यादव के विवाह को लेकर भी की गई थी. राजद के नेताओं, जिनमें सभी स्तर के नेता शामिल हैं, ने इस शादी को गैर भाजपाई दलों की एकता के अवसर के तौर पर तब्दील होने की उम्मीद जताई थी. उनके दावे थे कि राहुल गांधी से लेकर मायावती तक और ममता बनर्जी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक इसमें शामिल हो सकते हैं.

ऐसी खबरें शादी के दो दिन पहले तक मीडिया में खूब आती रहीं. पर हुआ यह कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी नेता अखिलेश यादव व कांग्रेस के गुलाम नबी आज़ाद व दिग्विजय सिंह और एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल जैसे कुछ राजनेताओं को दरकिनार कर दें तो बिहार से बाहर के किसी कद्दावर राजनेता ने इसमें शिरकत नहीं की. बताते हैं कि श्रीमती सोनिया गांधी व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने फोन पर अपनी शुभकामनाएं दीं. यही रास्ता ममता बनर्जी और मायावती के भी अपनाने की खबर है. हां, इस मायने में यह शादी-समारोह राजनीतिक महत्व का हो गया कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने मंत्रीमंडल के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री तेजप्रताप यादव और पूर्व परिवहन मंत्री चंद्रिका राय की बेटी ऐश्वर्या को बधाई देने खुद पहुंच गए. लगता है, लालू प्रसाद के पुत्र की शादी में उनके दरवाजे पर नीतीश कुमार का पहुंचना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेताओं को चौंका गया.

हालांकि भाजपा नेता व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी विदेश दौरे पर थे और शादी के पहले ही वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाह कर चुके थे, पर भाजपा के किसी नेता ने शादी के दिन आशीर्वाद देने की न्यूनतम सामाजिक जिम्मेवारी का भी निर्वहन नहीं किया. पर, अगले दिन धड़ाधड़ सब हुआ- नरेन्द्र मोदी व अमित शाह के फोन आए. प्रदेश भाजपा के बड़े नेता व केन्द्रीय और राज्य के भाजपाई मंत्री बधाई देने लालू-राबड़ी आवास पहुंच गए. यह आनायास था क्या? स्वीकार करने में थोड़ी परेशानी हो रही है. वस्तुतः मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का लालू आवास जाना, वहां लालू परिवार के सभी छोटे-बड़े से हिलना-मिलना, अपेक्षा से अधिक देर तक रहना- भाजपा नेताओं के कान खड़े करने के लिए काफी था.

क्या राजद नेताओं की अपेक्षा इतनी भर रही होगी? वे नहीं चाहते होंगे कि इस शादी समारोह के बहाने भ्रष्टाचार के मामले में सज़ायाफ्ता होने के बावजूद उनके सुप्रीमो देश के गैर भाजपाई नेताओं के ध्रुवीकरण के एक ध्रुव बने? उनकी इस चाहत में लालू परिवार की चाहत और लालू प्रसाद की खुद की चाहत नहीं जुड़ी होगी क्या? इन सारे सवालात के जवाब केवल हां में ही हैं, पर ये अपेक्षा पूरी नहीं हुई. यह सही है कि लालू प्रसाद चारा घोटाले के चार मामले में सज़ायाफ्ता और जेल में बंद रहने के बावजूद बिहार में बहुत बड़े सामाजिक समूहों के नेता हैं. वे सूबे के सबसे बड़े वोट जुगाड़ू भी हैं. हालांकि गत कुछ चुनावों में वोट हस्तांतरण की उनकी क्षमता पर सवाल उठाए जाने लगे थे और माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण में भी कई झोल दिखने लगे. पर हाल में, विशेषकर पिछले चौदह-पंद्रह महीने के राजनीतिक घटनाचक्र के कारण हालात बदले हैं.

लालू प्रसाद का माय समीकरण ज्यादा आक्रामक तौर पर गोलबंद हुआ है. इन महीनों में उनके साथ माय के अलावा कुछ अन्य सामाजिक समूह भी जुड़े ही हैं, जबकि उनके विरोधियों के सामाजिक आधारों में दरार दिखने लगी है. इसी दौरान घोषित उत्तराधिकारी व पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव के राजनीतिक नेतृत्व को उनके वोट-बैंक की स्वीकृति मिली. राज्य के विभिन्न हिस्सों में तेजस्वी की यात्रा के दौरान लोगों की मौजूदगी और फिर एक संसदीय व दो विधानसभा उपचुनावों में मिले वोट ने इसे साफ कर दिया. तेजस्वी को लालू प्रसाद के प्रतिनिधि के तौर पर सूबे के बाहर गैर-भाजपाई विपक्षी खेमे की भी कुछ हद तक मंजूरी मिली.

यह सब लालू प्रसाद के जेल में रहते हुआ है. राजद नेता इसे लालू प्रसाद की राजनीति की सर्व-स्वीकृति के तौर पर ले रहे हैं. हालांकि ऐसा ही है, यह कहना कठिन है. बिहार की मौजूदा राजनीतिक संरचना में- हिन्दी पट्टी के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की तरह- क्षेत्रीय दलों का बोलबाला है. एक क्षेत्रीय दल जनता दल(यू) राजग के साथ है तो दूसरा, जो बड़े वोट-बैंक का हिस्सेदार है, राजद विपक्ष में. बिहार को दरकिनार कर कोई राजनीतिक अभियान चलाना कठिन है. सो राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को जब भी बिहारी प्रतिनिधि की जरूरत होगी, राजद की पूछ होगी. यह बिहार की मौजूदा राजनीति का कटु सत्य है.

प्रखर राजनीतिक चेतना की भूमि बिहार की इस कटु सच्चाई के बावजूद इस शादी समारोह से विपक्षी नेताओं की गैर मौजूदगी के कुछ तो कारण होंगे ही. ये क्या हैं, यह सही-सही बता पाना कठिन है. पर इतना तय है कि लालू प्रसाद और राजद से देश का गैर भाजपाई विपक्ष एक दूरी के साथ दोस्ती रखना चाहता है. कांग्रेस की तो अपनी मजबूरी है. उसने जद(यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार को साथ लेने का दांव भी खेला था. राजनीतिक सच्चाई है कि 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के दबाव में ही नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया गया था. राजद सुप्रीमो का जोर था कि मुख्यमंत्री का चयन चुनाव के बाद किया जाए, जबकि नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें महागठबंधन के मुख्यमंत्री के तौर पर मान लिया जाए. कांग्रेस उनके साथ थी और उसके दबाव में ही समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के कहने पर लालू प्रसाद सहमत हुए थे.

उन दिनों लालू प्रसाद का एक वाक्य खूब चर्चा में रहा थाः मैंने विष का प्याला पी लिया. फिर, सूबे में महागठबंधन सरकार बनने के कोई बीस महीने बाद नीतीश कुमार उनके राजनीतिक डीएनए पर सवाल उठानेवाले नरेन्द्र मोदी व भाजपा के साथ चले गए और राजद के साथ कांग्रेस को भी भला-बुरा कहने लगे. इतना ही नहीं, कांग्रेस विधायकों को दल-बदल के लिए भी जमीन तैयार करने की परोक्ष कोशिश की. सो, कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को लगता है कि मौजूदा बिहार में अपना साइनबोर्ड बचाए रखने के लिए उसे लालू प्रसाद की जरूरत है. पर, उसने भी एक दूरी बनाए रखी. गुलाम नबी आज़ाद व दिग्विजय सिंह को इस शादी समारोह में भेज दिया, राहुल गांधी खुद नहीं आए. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी देश में गैर-भाजपाई विपक्षी एकता के लिए सभी से मिल रही हैं, सभी को बुला रही हैं.

तेलांगना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, एनसीपी नेता शरद पवार, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, बसपा सुप्रीमो मायावती, सपा नेता अखिलेश यादव आदि सभी से वे औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत कर रही हैं. पर अब तक राजद नेताओं से उनकी किसी बातचीत की कोई खबर नहीं है. लेकिन उन्हें अंततः बिहार की जरूरत पड़ेगी ही, बिहार के बिना गैर भाजपाई विपक्षी एकता को सफल बना पाना थोड़ा कठिन है. मगर वे नहीं चाहतीं कि अपने अभियान की शुरुआत में ही वह लालू प्रसाद के साथ दिखें. हालांकि जिन नेताओं से वे बातचीत कर रही हैं, उनमें कई पर कई गंभीर आरोप लगे हैं, कई के खिलाफ जांच चल रही है. स्वयं उन पर भी आरोप लगे हैं. फिर भी, आरोप का लगना और सज़ायाफ्ता होना दो अलग-अलग बातें हैं. लगता है, शादी समारोह से देश के बड़े विपक्षी नेताओं की दूरी के और जो भी कारण हों, एक बड़ा कारण यह भी हो सकता है.

इस लिहाज से तेज प्रताप की शादी लालू परिवार के लिए एक मांगलिक अवसर ही बनकर रह गया. बिहार की राजनीति में भी यह कोई हलचल नहीं पैदा कर सका. हां, एक लिहाज़ से यह बड़ा सियासी मकसद का रहा. तेजप्रताप की शादी के साथ सारण के दो सियासी परिवार एक डोर में बंध गए. लालू प्रसाद की यह बड़ी बहु ऐश्वर्या राय बिहार के किसी जमाने में बड़े और ताकतवर नेता व तत्कालीन मुख्यमंत्री दारोगा प्रसाद राय की पौत्री हैं. ऐश्वर्या के पिता चंद्रिका राय राबड़ी देवी की सरकारों के अलावा महागठबंधन सरकार में भी मंत्री रहे हैं. वैसे तो एक दौर में बिहार के कांग्रेसी हलके में दारोगा प्रसाद राय तेज-तर्रार माने जाते थे, पर सारण क्षेत्र (सारण, सीवान व गोपालगंज जिलों) में उनका खासा राजनीतिक दबदबा रहा था.

दारोगा बाबू के राजनीतिक अवसान के बाद एक रिक्तता पैदा हुई, जिसकी भरपाई हाल के दशकों में लालू प्रसाद ने की. सो, सारण क्षेत्र की पिछड़ों की राजनीति अनौपचारिक तौर पर एक जगह आ गई. हालांकि इस शादी में किसी राजनीति को पढ़ने के लिए फिलवक्त बहुत कुछ सामने नहीं आया है, पर इससे चुनावी राजनीति का प्रभावित होना अनिवार्य है. इसका इज़हार कई रूप में हो सकता है. मसलन, राजद के उम्मीदवार चयन में, पिछड़े समाजिक समूहों की मतदान-शैली में, माय की- और इस बहाने अन्य पिछड़े सामाजिक समूहों की भी- आक्रामक गोलबंदी में. पर इन सब का आकलन अगले संसदीय चुनाव में ही किया जा सकता है.

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