नीतीश कुमार ने राजनीतिक आत्महत्या की, नीतीश भाजपा के भेजे हुए सीक्रेट एजेंट थे, नीतीश की इस तथाकथित राजनीतिक आत्महत्या के पीछे कांग्रेस जिम्मेदार है। इस तरह की कई बातें इन दिनों राजनीतिक हलकों में हैं। लेकिन इस पूरे परिदृश्य का सच क्या है ? फिलहाल कुछ समय के लिए बीजेपी को छोड़ दिया जाए और इंडिया गठबंधन की बात की जाए तो सिवाय चारों तरफ गुस्से के और कुछ नहीं है। हम कह सकते हैं कि यदि तीसरी बार मोदी सत्ता में लौटते हैं तो इंडिया गठबंधन के नेताओं और दलों को जवाब देना होगा कि शुरु से अंत तक उनकी इस मूर्खता की पराकाष्ठा के लिए क्यों न उन्हें सूली पर चढ़ाया जाए। महीनों गुजर गए आज तक इस गठबंधन का कोई एक नेता, कोई संयोजक, कोई नीति, कोई एक सुर, जनता को विश्वास में लेने वाली कोई दृढ़ता क्यों नहीं दिखाई दी।
हमने इसी कॉलम में कई बार लिखा है कि विपक्ष के इन दलों को एकजुट रखने के लिए और एक ही सुर में बोलने के लिए कोई एक जेपी जैसा व्यक्ति होना ही चाहिए। सन् 1974 में इंदिरा गांधी का दौर था। आज नरेंद्र मोदी का दौर है। इंदिरा के समय की राजनीति और आज की राजनीति और उसके चरित्र में धरती आसमान का फर्क है। आज दरअसल राजनीति है ही नहीं। उसे कुचल दिया गया है। जनता को बुरी तरह छल कर उसे भ्रमित करने का खेल खेला जा रहा है। पूरा देश इन दिनों एक मदारी का खेल बन कर रह गया है। न स्वच्छ राजनीति है, न स्वस्थ लोकतंत्र बाकी बचा है, संविधान तार तार होने की कगार पर है। ऐसा कुछ इंदिरा गांधी के समय नहीं था। राजनीतिक क्रूरता कम से कम इस हद तक तो नहीं देखी गई थी जैसी आज हम अपनी खुली आंखों से देख रहे हैं। सच कहें तो आज जो राजनीति देश में चल रही है उसके सामने इंदिरा गांधी के समय की राजनीति नगण्य है। इस तुलना में आज के विपक्ष को देखें तो वह एक होकर भी बिखरा बिखरा है। कोई अनुशासन नहीं। उसके नेता बेलगाम हैं। छुट्टे सांड की तरह एक दूसरे पर बिफर रहे हैं। आज की राजनीति की भयावहता को देखते हुए और इस बात को भलीभांति समझते हुए कि मोदी का तीसरी बार का शासन उनके अस्तित्व को समाप्त कर देगा फिर भी वे जनता के बीच यह संदेश नहीं दे पा रहे हैं कि हम अपनी कैमिस्ट्री और अंकगणित में कभी न टूटने वाले गठबंधन से बंधे हुए हैं। राजनीति की लड़ाई हमेशा जनविश्वास और उससे बने परसेप्शन से लड़ी जाती है। चुनाव के मुहाने पर बैठे देश में यह संदेश देने में विपक्ष विफल हो रहा है ।
नीतीश कुमार का खेल बिगड़ गया है। वह स्वयं बिगड़ा है या नीतीश की बिगड़ती दिमागी हालत में अपने अस्तित्व को कायम रखने की छटपटाहट के चलते ऐसा हुआ है या इसके पीछे कांग्रेस का नौसीखियापन जिम्मेदार है या भाजपा की शतरंजी चाल। मोटे रूप में देखा जाए तो सबसे पहले कांग्रेस की भूमिका पर सवाल उठेंगे। उसके बाद यह कि नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक हाराकिरी करने के सिवाय दूसरे रास्ते भी अपना सकते थे।
अतीत की कांग्रेस को देखते हुए आज की कांग्रेस दिग्भ्रमित, नेताविहीन, संगठनविहीन और जनता में विश्वास पैदा करने में सरासर अक्षम नजर आती है। राहुल गांधी को आज कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता माना जा रहा है। लेकिन मुझे वह शख्स दुकानों के बाहर खड़े पुतलों में जान फूंका हुआ ऐसा शख्स नजर आता है जिसके पास न भाषा है, न कांग्रेस का चिंतन है, न राजनीति का कोई खांटी अनुभव है, न किसी प्रकार की कोई राजनीतिक तालीम प्राप्त है। ऐसे शख्स को एक राष्ट्रीय स्तर का दल सिर्फ इसलिए अपना बड़ा नेता मान बैठता है कि वह एक राजनीतिक घराने से आया है और जिसकी दादी और नाना मंझे हुए राजनीतिज्ञ थे। परंपराओं में विश्वास रखने वाली कांग्रेस पूरी तरह से दिग्भ्रमित हो चुकी है । उसका अध्यक्ष समर्थ होते हुए भी केवल गांधी परिवार की कठपुतली ही नजर आ रहा है। सोनिया एक किनारे पर हैं और नौसीखिए राहुल गांधी के लिए कहा जा रहा है कि उसको अपनी टीम के साथ काम नहीं करने दिया जा रहा। एक अजीबोगरीब स्थिति में आकर एक ऐसी पार्टी गठबंधन की सिरमौर समझी जा रही है जो स्वयं अपना ही कोई भी कदम ठीक से नहीं उठा पा रही। नीतीश कुमार और उनके विश्वसनीय लोग कई दिनों से कांग्रेस को चेता रहे थे, उस पर कैसे न कैसे हमले भी कर रहे थे। कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार को अपमानित करने का खेल राहुल गांधी ने किया। सोच समझ कर या अनजाने में, कहा नहीं जा सकता। पर हमारा मानना है कि मूर्खतावश किया। नीतीश कुमार को दृढ़ता के साथ संयोजक क्यों नहीं बनाया गया। एक ममता और केजरीवाल के चलते अपमानित किया गया। या तो कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व स्वयं करे या अपनी भूमिका गठबंधन में स्पष्ट करे। कुछ भी ऐसा नहीं हो रहा। सब गड्डमगड्ड है। यदि चीजों को समझदारी से किया गया होता तो आज न केवल गठबंधन के सभी दल आपस में संतुष्ट दिखाई देते बल्कि नीतीश कुमार अपनी उसी भूमिका और सुदृढ़ता से निभा रहे होते जो उन्होंने सबसे पहले दलों के बीच घूम घूम कर और सबका विश्वास जीत कर निभाई थी।‌ इसे तो मानना ही होगा कि नीतीश कुमार ने ही समूचे विपक्ष के लिए गठबंधन का एक उचित प्लेटफार्म तैयार किया था और पटना की सफल बैठक आयोजित की थी। फिर कांग्रेस और खासतौर पर राहुल गांधी नीतीश के नाम पर क्यों बिदक गये। वे यहां तक भूल गए कि नीतीश कुमार ने अकेले सिर्फ राहुल गांधी की पटना हवाई अड्डे पर अगवानी की थी।
कांग्रेस के प्रशंसक और राहुल गांधी को बड़ा नेता मानने वाले राहुल गांधी की यात्राओं से गद् गद् हैं। सही है कि पहली यात्रा राहुल गांधी की प्रशंसनीय थी। उससे न केवल राहुल गांधी की छवि बदली थी बल्कि कांग्रेस में एक जान सी आयी थी। दूसरी यात्रा ने भी कमाल किया है अब तक। लेकिन समझ नहीं आता कि इस यात्रा को चुनावी यात्रा क्यों नहीं बताया जा रहा। क्यों चुनाव के मुहाने पर इसे चुनावी यात्रा कहने से परहेज़ किया जा रहा है। इसे न्याय यात्रा कहा गया है। केवल नारों में पांच न्याय कह देने से काम चल जाएगा क्या? जनता क्या जाने और कैसे जाने कि ये न्याय कैसे होंगे। उनकी व्याख्या क्यों नहीं की जा रही। सच तो यह है कि राहुल गांधी सिर्फ जनता के बीच सिर्फ पैदल चलने के मास्टर हुए हैं। हताश जनता के लिए इतना भी काफी है लेकिन क्या देश में राजनीति का विकल्प देने के लिए इतना भर काफी है। इसी का परिणाम है कि पहली यात्रा के बाद तीनों हिंदी प्रदेश कांग्रेस के हाथ से निकल गये जिनमें कांग्रेस की जीत शत प्रतिशत मानी जा रही थी। आज की कांग्रेस न अपने क्षेत्रीय नेताओं पर लगाम लगा पा रही है, न राष्ट्रीय स्तर पर अपने संगठनों को मजबूत कर पा रही है, न ही कोई स्पष्ट नीति का निर्माण कर पा रही है। वह भाजपा से किन मायनों में अलग साबित होगी उसके पास यह सब बताने के लिए कुछ नहीं है। नीतीश कुमार को कांग्रेस के नेता नहीं साध पाये।
कांग्रेस से अपमानित महसूस कर रहे नीतीश कुमार के पास क्या सिर्फ यही विकल्प था कि वे पुनः भाजपा की गोद में जाकर बैठ जाएं। उस भाजपा की जिसे वे पानी पी पीकर कोस रहे थे और जिसके खिलाफ उन्होंने महा गठबंधन की भूमिका तैयार की और उसे एक ठोस प्लेटफार्म दिया। उनके सामने और भी विकल्प थे। वे चाहते तो गठबंधन के सभी नेताओं से पुनः मिल कर उसे और मजबूत करते और एक नया स्वरूप देते। लेकिन कहीं न कहीं राम मंदिर के निर्माण ने नीतीश कुमार को इस कदर हिला कर रख दिया कि वे मान चुके थे कि इंडिया गठबंधन की संभावनाएं धूमिल हो रही हैं और मंदिर का प्रभाव मोदी को एक बार फिर मौका देगा। लिहाजा कमजोर व्यक्तित्व के मालिक नीतीश कुमार ने मोदी के सामने पूरी तरह सरेंडर किया और स्वयं की राजनीतिक आत्महत्या कर डाली।‌ इन स्थितियों से निश्चित रूप से बचा जा सकता था। पर बिखरे हुए और गठबंधन के दिग्भ्रमित नेताओं से आप कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं। नतीजे में हम देख रहे हैं कि एनडीए के हाथ एक और राज्य आ गया है।
मोदी के पास खबरें हैं कि राम मंदिर से कोई उद्धार नहीं होने वाला। जितना वोट पहले था वही मजबूत हुआ है उससे ज्यादा कुछ नहीं। गठबंधन के पास अभी भी वक्त है। नीतीश का जाना एक दु: स्वप्न की तरह लेकर गठबंधन के नेता फिर मिलें। लेकिन सबसे बड़ा अवरोध यही है कि इन्हें सद्बुद्धि कौन दे और कौन इनकी दिशा तय करे । अंततः होगा यही कि ममता बंगाल में भाजपा को मजबूती के साथ रोकेंगी। दिल्ली में केजरीवाल और गठबंधन में हुआ समझौता रोकेगा। उप्र में अखिलेश यादव की समझदारी दिख रही है वहां वे मजबूती से लड़ें तो भाजपा को रोका जा सकता है। पर देश स्तर पर कांग्रेस की स्थिति में कोई बदलाव तो हमें नजर आता नहीं। दक्षिण और उत्तर पूर्व को छोड़ बाकी जगह कांग्रेस की हालत पतली थी और वैसी ही रहेगी। दूसरी यात्रा के शेष पड़ाव में हिंदी प्रदेशों में यात्रा क्या गुल खिलाती है यह देखना अभी बाकी है।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि हाथी के दांत खाने के और होते हैं और दिखाने के दांत के और। कहीं कांग्रेस के साथ ऐसा न हो । अभी तक तो यही होता आया है आगे देखिए।

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