महाराष्ट्र के भंडारा जिला अस्पताल में आग लगने से 10 नवजातों की मौत ने उस सवाल को फिर सुलगा दिया है कि खिलने से पहले ही जो जीवन मौत के मुंह में समा गए, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? कब तक दुनिया ठीक से देख सकने के पहले ही हमारे शिशु ऐसी अव्यवस्था का शिकार होते रहेंगे? अस्पतालों में ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं होता, इसलिए बच्चे मर जाते हैं।

अस्पतालों में आग लग जाती है, उसमें झुलस कर नवजात दम तोड़ देते हैं। अस्पतालों में आईसीयू भट्टी बन जाता है, ये शिशु उसमें घुट कर मर जाते हैं। उफ् ! ऐसे ज्यादातर मामले सरकारी अस्पतालों में हो रहे हैं। भंडारा जिला अस्पताल में भी नवजात शिशुओं के वार्ड में आग लगने से 10 बच्चों ने दुनिया देखने से पहले ही दम तोड़ दिया। ये सभी 1 से 3 माह के थे।

बताया जाता है कि आग शाॅर्ट सर्किट से लगी थी। हमेशा की तरह महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार ने भी जांच बैठा दी है। हो सकता है कि जांच में दोषी पाए लोगों पर कार्रवाई भी हो, लेकिन हालात बदलेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। अलबत्ता ऐसे मामलों में पहले भी राजनीति होती आई है और इस बार भी हो रही है। विपक्ष में बैठी भाजपा ने इसे हादसा नहीं नवजात बच्चों की ‘हत्या’ बताया है।

क्या यह देश का दुर्भाग्य नहीं है कि जिन्हें बचाने के लिए करोड़ो की लागत से अस्पताल ‍खड़े किए गए हैं, वही मौत का घर बन जाते हैं। इसका कारण अस्पतालों की अव्यवस्था, अपर्याप्त मेंटेनेंस, राजनीति, जिम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति और हर स्तर पर भ्रष्टाचार है। ऐसे में अपवादस्वरूप कोई डाॅक्टर या पैरामेडिकल स्टाफ जवाबदेही से काम करने की कोशिश भी करे तो वह व्यवस्था की आंखों में खटकने लगता है।

भंडारा जिला अस्पताल में हुए हादसे की प्रारंभिक जानकारी में यह बात सामने आ रही है कि वहां नवजात शिशु केयर वार्ड में रात्रि में आग शाॅर्ट सर्किट के कारण लगी। रात्रि में ड्यूटी पर तैनात नर्स ने जब वार्ड में उठता धुआं देखा तो डाॅक्टर को सूचना दी। जब तक बचाव की कार्रवाई होती, तब तक 10 बच्चो की नन्हीं जान इस फानी दुनिया से विदा हो चुकी थी। लेकिन 7 बच्चों को बचा लिया गया।

जिन मां- बाप ने अपने नवजातों को इस भरोसे में अस्पताल में रखा था कि वो वहां सुरक्षित रहेंगे, अपने जिगर के टुकड़ों की लाश देखकर उनके दिल पर क्या गुजरी होगी, इसकी सिर्फ कल्पना भी कंपा देती है। बताया जाता है कि इतने बड़े अस्पताल में 6 माह से आग बुझाने वाला यंत्र नहीं था। सिविल सर्जन ने सरकार को इस बारे में चिट्ठी भी लिखी थी, लेकिन फाायर एक्स्टींग्युशर लगाने के लिए भी मानो इतनी मौतों का होना जरूरी था।

यह बात भी सामने आई है ‍की यदि घटनास्थल पर फायर ब्रिगेड पहुंच भी जाती तो अस्पताल में वो पाइप लाइन भी नहीं है, जो पानी सप्लाई करती। पूरे अस्पताल की बिजली लाइन भी जर्जर अवस्था में थी, सो अलग। भंडारा जिला अस्पताल ऐसा अकेला उदाहरण नहीं है। पिछले माह मध्यप्रदेश के शहडोल के सरकारी जिला अस्पताल में तीन दिन में 8 बच्चों की मौत हो गई।

मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने इसकी जांच के आदेश दिए हैं। ये बच्चे अस्पताल के सिक न्यूबॉर्न केयर यूनिट (एसएनसीयू) और पीडियाट्रिक इंटेसिंव केयर यूनिट (पीआईसीयू) में भर्ती थे। इन्हें इलाज के लिए अनूपपुर से लाया गया था। चार साल पहले मप्र के ही इंदौर में शासकीय यशवंतराव चिकित्सालय की नवजात गहन चिकित्सा इकाई में भीषण आग लगी थी। लेकिन वहां 47 बच्चों को सुरक्षित बचा लिया गया। इस मामले की भी जांच हुई।

आगे क्या हुआ, इसकी ज्यादा जानकारी नही है। इसी तरह कुछ साल पहले राजस्थान में अजमेर जिले में जवाहरलाल नेहरू राजकीय अस्पताल ( जेएलएन) की नवजात शिशु इकाई में भर्ती 5 नवजातों की मौत हो गई थी। इसका कारण उनका इलाज ठीक से न होना माना गया था। पश्चिम बंगाल के अस्पतालों में नवजात शिशुओं की बड़ी संख्या में मौतों की गूंज पूरे देश में हुई थी।

राज्य के मालदा मेडिकल काॅलेज अस्पताल में एक हफ्‍ते में 25 शिशुओं ने दम तोड़ा था। इन मौतो का कारण अस्पताल प्रशासन की लापरवाही को माना गया था। कुछ समय पहले ओडिशा के सरदार वल्लभभाई पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ
पीडियाट्रिक्स में 11 दिनों में 53 बच्चों की मौत हो गई थी। ये पूरा संस्थान ‘शिशु भवन’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन वास्तव में यह ‘शिशु मृत्यु भवन’ साबित हुआ।

यही नहीं गुजरात के राजकोट के सरकारी अस्पताल में साल भर पहले 134 तथा राजस्थान के कोटा के जेके लोन शासकीय अस्पताल में 100 से ज्यादा शिशुओं की मौत पूरी दुनिया में सुर्खी बनी थी। उसी तरह यूपी के गोरखपुर के चर्चित बीआरडी मेडिकल काॅलेज में चार साल पहले ऑक्सीजन सिलेंडर के अभाव में 72 घंटे में 30 बच्चों ने दम तोड़ दिया था, जिनमे 11 तो नवजात थे। इस हादसे की भी जांच हुई और राजनीति तो अब तक हो रही है।
उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं।

लेकिन कुलमिलाकर कहानी ये है कि नवजातों के इलाज के लिए बने ये ज्यादातर अस्पताल यमदूत ही साबित हो रहे हैं और ऐसा होने की वजह क्या है? पिछले दिनो छपी एक अध्ययन‍ रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत के अस्पतालों में प्रति मिनट औसतन 1 बच्चे की मौत होती है। प्रति घंटा 60 और 1 दिन में देश में औसतन 1452 नवजात दम तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं हैं कि खिलने से पहले ही मुरझा जाने वाली इन कलियों को लेकर सरकारें चिंतित नहीं हैं।

नवजातों की मौतें इस तरह अस्पतालों में न हों, इसके‍ लिए भी जरूरी गाइड लाइंस हैं, लेकिन व्यवहार में उसका खास असर नहीं‍ ‍िदखाई देता। क्योंकि ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में मेडिकल अधोसरंचना और मेडिकल प्रशासन लगभग ध्वस्त हो चुका है। निजी अस्पतालों में ऐसे मामले बहुत कम होते हैं तो इसका कारण यह है कि इस तरह के संगीन पेशंट वो सरकारी अस्पतालों में रेफर करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं।

लेकिन सरकारी अस्पताल किसी के इलाज से इंकार नहीं कर सकते। ऐसे में कई बार दूसरों की लापरवाही या अक्षमता का खमियाजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ता है। राजनेता व्यवस्‍था को कसने या उसमें बुनियादी सुधार करने के बजाए‍ सियासी बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोप में ज्यादा उलझे रहते हैं।

ऐसे हादसों से हटकर भी अहम सवाल यह है कि इस देश में ऐसी कौन सी जगह है,जहां नवजात ही क्यों, वयस्क भी अपने को पूरी तरह सु‍रक्षित मानें। अगर नवजात के रूप में आपका जीवन अस्पताल में सुरक्षित नहीं है तो सामाजिक कर्तव्य के तहत किसी को अंतिम विदाई के लिए श्मशान घाट जाना भी आपके लिए जानलेवा साबित हो सकता है। गोया यमलोक में इमर्जेंसी एंट्री का भी प्रावधान हो।

कोरोना के चलते आप सार्वजनिक जगहों पर भी सुरक्षित नहीं हैं और सामूहिक आंदोलनो में भी आप जिंदा रहेंगे ही इसकी कोई गारंटी नहीं है। यानी चौतरफा असुरक्षा और गारंटीविहीनता की स्थिति। जबकि आप इस देश के ‍ज़िम्मेदार नागरिक हैं।

आपको सुनहरे ख्वाब तो दिखाए जाएंगे, लेकिन हकीकत का आईना देखने नहीं दिया जाएगा। सरकारी अस्पतालों में नवजातों की लापरवाही से जो मौतें हुई हैं, उन मामलों में कड़ी कार्रवाई की संभावना न्यून ही है। क्योंकि अव्यवस्था के खेल में सभी शामिल हैं।

वैसे भी सरकारी अस्पतालों में ज्यादातर वो ही इलाज या प्रसूति कराते हैं, जो समाज के गरीब तबके से हैं। उनकी आह राजनीतिक कराह शायद ही बन पाती है। भंडारा अस्पताल के मामले भी जिन- मां बाप ने अपने शिशुअो को गोद में खिलाने से पहले ही गंवा दिया है,उनके आंसू कौन पोंछेगा? सिवाय यह जताने के कि यह सब ‘भाग्य का लेखा’ है। हकीकत में ऐसे हादसों के लिए कहीं न कहीं हम सब दोषी हैं।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल


‘सुबह सवेरे’

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