aaaaaaaआजादी के बाद देश में तीसरी बार शिक्षा नीति बन रही है. ध्यान रहे कि शिक्षा नीति पहली बार 1968 और दूसरी बार 1986 में बनाई गई थी. किसी भी वर्ग एवं समुदाय के लिए शिक्षा बहुत ही महत्वपूर्ण है, इसलिए यह जानना बहुत ही जरूरी है कि तीसरी बार बन रही नई शिक्षा नीति में अल्पसंख्यक संगठन कितनी रुचि दिखा रहे हैं?

आश्चर्य की बात यह है कि जब मानव संसाधन विकास मंत्रालय नेे नई शिक्षा नीति पर 15 सितंबर 2016 तक सुझाव मांगे, तो अल्पसंख्यकों में मात्र मुस्लिम एवं ईसाई समुदाय ने ही रुचि दिखाई. मुस्लिम समुदाय की ओर से 30 साल पुराना थिंक टैंक इन्स्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज एवं 68 साल पुराना संगठन जमाते इस्लामी हिंद सक्रिय रहा, वहीं शेष एक दर्जन बड़े संगठनों में इस मसले पर कोई हलचल नहीं दिखी. उपरोक्त दोनों संगठनों ने संबंधित मंत्रालय को सुझाव भेजे. इस दौरान  कई राज्यों में सभाएं की गईं और सुझाव पर विचार-विमर्श किया गया. इन सभाओं में मुस्लिम शिक्षाविद् एवं अन्य विद्वान भी शामिल हुए.

इसमें जमीयत उलेमा हिंद के दोनों धड़े, मर्कजी जमीयत अहले हदीस हिंद, इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल, ऑल इंडिया शिया कॉन्फ्रेंस जैसे बड़े संगठनों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली. ईसाई समुदाय का भी यही हाल रहा. इस समुदाय में से मात्र एक संगठन कन्सोर्टियम ऑफ क्रिश्चियन माइनोरिटीज हायर एडुकेशनल इंस्टीट्यूट ने नई शिक्षा नीति बनने में हिस्सा लिया. इससे साफ पता चलता है कि अल्पसंख्यकों में शिक्षा को लेकर जागरूकता का कितना अभाव है?

2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बहस शुरू हो गई थी. आखिरकार, अप्रैल 2015 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई शिक्षा नीति बनाने की घोषणा की. इसके लिए एक ड्राफ्ट सर्कुलेट कर  लोगों से सुझाव मांगे गए, जिसकी आखिरी तारीख 15 सितंबर रखी गई है.

इस ड्राफ्ट पर पूरे देश में बहस की शुरुआत हो चुकी है. छात्र, शिक्षक, शिक्षाविद् इस पर अपनी-अपनी राय दे रहे हैं. देश में अल्पसंख्यक (ईसाई और मुसलमान) भी इस बहस में शामिल हो गए हैं. तमिलनाडु में ईसाइयों के थिंक टैंक ग्रुप कंसोर्टियम ऍाफ माइनोरिटीज हायर एडुकेशन इंस्टीट्यूशंस (सीसीएमएचईआई) और नई दिल्ली में मुसलमानों के थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज (आईओएस) इस बहस में सबसे मुखर हैं. जमाते इस्लामे हिंद ने भी देश के कुछ शहरों में इस विषय पर चर्चाएं आयोजित कीं. चेन्नई में आयोजित एक बैठक में उक्त ड्राफ्ट पर अपने विचार रखते हुए सीसीएमएचईआई के महासचिव जी पुष्पराज ने इसके कुछ बिंदुओं पर आपत्ति जताई. उन्होंने कहा कि यह ड्राफ्ट देश के संविधान की आत्मा और अल्पसंख्यकों के खिलाफ है. 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मुताबिक आठवीं क्लास तक किसी भी छात्र को अगली कक्षा में प्रमोट होने से नहीं रोका जा सकता है. लेकिन नई शिक्षा नीति में इसे घटाकर क्लास 5 तक करने का प्रस्ताव रखा गया है. इस बारे में पुष्पराज कहते हैं कि ऐसा करने से ग्रामीण छात्रों (खास कर एससी/एसटी और अल्पसंख्यक समुदाय के छात्र) में ड्रॉप रेट बढ़ेगा और कमजोर तबके के लोग बुनियादी शिक्षा से और दूर होते जाएंगे. उन्होंने नई शिक्षा नीति को कमजोर वर्ग के खिलाफ साजिश बताया. उनके मुताबिक ये नीति उच्च शिक्षा हासिल करने से भी कमजोर वर्ग के लोगों को हतोत्साहित करेगी. नई शिक्षा नीति में गणित और विज्ञान में प्राप्त अंकों के आधार पर हायर सेकंडरी के छात्रों की श्रेणी बनाई जाएगी. पुष्पराज कहते हैं कि जब ये कानून ग्रामीण इलाकों के अल्पसंख्यक स्कूलों में लागू होगा तो इसका छात्रों पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

सीसीएमएचईआई ने इस बात पर चिंता जाहिर की है कि इससे धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपनी मर्जी के मुताबिक संस्था स्थापित करने, उसे चलाने, स्टाफ रखने और मूल्यांकन करने का अधिकार प्रभावित होगा, जो संविधान की आत्मा के खिलाफ है. इस संस्था के मुताबिक ड्राफ्ट में हर 5 साल पर स्कूलों के प्रदर्शन के आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाएगा. साथ ही, इसमें दस साल बाद लाइसेंस या सर्टिफिकेट नए सिरे से बनवाने या नवीनीकरण कराने की बात भी की गई है. इससे ऐसी संस्थाओं में जोड़-तोड़ और धांधली शुरू हो जाएगी.

इसके अलावा, एक और अहम बात ये है कि नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में कंपोजिट स्कूलों की स्थापना करने की बात कही गई है, जबकि अल्पसंख्यक स्कूलों में शिक्षकों की रिक्तियों को भरने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. इस बारे में सीसीएमएचईआई का साफ तौर पर कहना है कि शिक्षा को लाइसेंसबद्ध करने की ऐसी कोशिशें संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों की सरासर अनदेखी है. सीसीएमएचईआई के मुताबिक पूरे देश में ईसाइयों की 107 बड़ी संस्थाएं संचालित हो रही हैं. 24 जुलाई 2016 को चेन्नई में एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया था, जिसमें सर्वसम्मति से इस शिक्षा नीति के ड्राफ्ट में कई संशोधनों की मांग की गई.

जहां तक अल्पसंख्यक मुसलमानों का संबंध है, तो इस सिलसिले में डॅाक्टर मंजूर आलम की अध्यक्षता वाली आईओएस ने भी अपने कदम आगे बढ़ा लिए हैं. गौरतलब है कि भाजपा के सत्ता में आने के तुरंत बाद तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने का साफ इशारा देते हुए अपनी दस प्राथमिकताओं का एलान किया था. ये सिलसिला उनके जाने और प्रकाश जावड़ेकर के आने के बाद भी बरकरार है. उन दस बिंदुओं पर सबसे पहले साल 2014 में आईओएस ने सक्रियता दिखाते हुए एक गोष्ठी का आयोजन किया जिसमें देश के कई मुस्लिम शिक्षाविदों ने शिरकत की. इसमें सरकार की नई शिक्षा नीति के खिलाफ लोगों को आगाह करते हुए इसके खिलाफ माहौल बनाने की बात कही गई, ताकि देश के सेकुलर ताने-बाने को सुरक्षित रखा जा सके. आईओएस ने 16 मार्च 2016 को एक और गोष्ठी का आयोजन किया जिसमें आईओएस के महासचिव जेड एम खान ने कहा कि अब नया शिक्षा नीति टास्क फोर्स सक्रियता से काम करने लगा है. ऐसे में व्यावहारिक सुझाव देने की जरूरत है, ताकि नई नीति के नकारात्मक बिंदुओं को हटाने की कोशिश की जा सके. इसके अलावा, आईओएस अन्य बड़े शहरों में भी गोष्ठी और सेमिनार का आयोजन कर रही है, ताकि इस सिलसिले में एक राय बनाई जा सके.

मौजूदा स्वरूप में नई शिक्षा नीति स्वीकार्य नहीं : नाज़ खैर

नई शिक्षा नीति के ड्राफ्ट की शुरुआत वेद की तरफ लौटने की अपील से होती है. इसमें कहा गया है कि जिस शिक्षा प्रणाली को प्राचीन भारत में सबसे पहले विकसित किया गया, उसे वैदिक प्रणाली कहते हैं. प्राचीन भारत में शिक्षा का परम लक्ष्य ज्ञान नहीं था. इसका लक्ष्य संसार या पारलौकिक जीवन के रहस्यों को समझना और उसके लिए तैयारी करना था. लेकिन यह कार्य आत्मज्ञान से किया जाता था. नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट इसी बुनियाद पर तैयार किया गया है. परिणामस्वरूप इस दस्तावेज में इस्लामी शिक्षा प्रणाली और ईसाई मिशनरियों के जरिए अपनाई गई शिक्षा प्रणाली जैसी दूसरी प्रणालियों को (जिनका देश में शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा) को नजर अंदाज कर दिया गया.

इतना ही नहीं, ड्राफ्ट यह मान लेता है कि सिर्फ वैदिक शिक्षा प्रणाली ही आत्मज्ञान पर जोर देता है. इसमें इस बात को आसानी से भुला दिया गया है कि इकबाल की मशहूर नज्म खुदी (आत्म) कुरान की बुनियाद पर लिखी गई है, जो नौजवानों के आत्मसम्मान को जगाकर उनमें जोश भर देती है और उनके अंदर छिपी काबिलियत और संभावनाओं को सामने लाती है.

देश के विभिन्न हिस्सों में शिक्षा के प्रसार में भारत की महान हस्तियों, जिनमें रवींद्रनाथ टैगोर, मौलाना कासिम नानौतवी, बी आर अंबेडकर, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जाकिर हुसैन, सर सैय्यद अहमद खान, ज्योति राव और सावित्री फूले और ईसाई मिशनरियों का योगदान रहा है, उनकी भूमिका का जिक्र इस दस्तावेज में कहीं नहीं है. आज जब शिक्षा का अधिकार (राइट टू एडुकेशन एक्ट) लागू होने के बाद प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया, तो ऐसे में इन हस्तियों की अहमियत और बढ़ जाती है.

इसके अलावा, नई शिक्षा नीति में संस्कृत की शिक्षा के लिए बेहतर सुविधा उपलब्ध कराने पर जोर दिया गया है, लेकिन इसमें उर्दू को कमजोर करने की एक सुनियोजित कोशिश भी शामिल है. जैसे ही भाजपा ने केंद्र में सत्ता संभाली, रेडियो पर प्रसारित होने वाले लोकप्रिय उर्दू प्रोग्रामों पर रोक लगा दिया गया. पिछले कई वर्षों से उर्दू की कीमत पर संस्कृत को प्रमोट किया जा रहा है. उर्दू बोलने वालों के लिए स्कूलों में सुविधाएं या तो बहुत कम हैं या हैं ही नहीं. उर्दू के छात्र संस्कृत पढ़ने को मजबूर हैं क्योंकि ऐसे कई स्कूल है जहां अनिवार्य भाषा की सूची में उर्दू का नाम शामिल नहीं है. ये स्थिति उन राज्यों में भी है, जहां उर्दू दूसरी या तीसरी जुबान है. इन मुद्दों को अखबारों में भी काफी जगह मिली. उर्दू की पैदाइश हिंदुस्तान में हुई है, लिहाजा ये वैसा ही विशेष बर्ताव चाहती है, जैसा बर्ताव नई शिक्षा नीति में संस्कृत के साथ किया जा रहा है. ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस भाषा का भारत की साझा संस्कृति को मजबूती प्रदान करने और सांप्रदायिक सौहार्द्र को मजबूती प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

सबसे अहम बात ये है कि नई शिक्षा नीति बाजार आधारित शिक्षा को प्रोत्साहित करने की बात कर रही है. इसमें समाज के पिछ़डे वर्गों की शिक्षा हासिल करने वाली पहली पीढ़ी, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं, के लिए व्यावसायिक शिक्षा और समृद्ध तबके के लिए उच्च शिक्षा की बात की गई है. इसका नतीजा ये होगा कि पहले से ही पिछड़ेपन के शिकार वर्गों का पिछड़ापन और ज्यादा बढ़ेगा.

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