education-policyसबका साथ सबका विकास, भाजपा का चुनावी नारा था, जिसे सरकार बनने के बाद सरकार का मूल मन्त्र बताया गया. लेकिन यह मन्त्र जमीनी हकीकत से बहुत दूर दिख रहा है.

शिक्षा विकास की मूलभूत जरूरत है और जब शिक्षा में ही सबको साथ नहीं लिया जाएगा, सबकी जरूरतों और समस्याओं का ध्यान नहीं रखा जाएगा तो फिर यह किस तरह से सबके विकास को सुनिश्‍चित करेगा.

नई शिक्षा नीति के तैयार मसौदे को लेकर देश भर में विरोध मुखर होने लगा है. कई ईसाई व इस्लामिक संगठन इसे शिक्षा और भारतीय संस्कृति के मूल से छेड़छाड़ के रूप में देख रहे हैं.

मई 2014 में सरकार बनने के बाद से ही नई शिक्षा नीति बनाने को लेकर सरकारी महकमों में चर्चा शुरू हो गई थी. अंततः अप्रैल 2015 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नई शिक्षा नीति बनाने की घोषणा की. ध्यान रहे कि आजाद भारत में यह तीसरी शिक्षा नीति की तरफ कदम था.

इससे पहले 1968 और फिर 1986 में शिक्षा नीति बनाई गई थी. नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार करने के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में चार रिटायर्ड

आइएएस अफसरों की एक समिति का गठन किया गया. इस समिति ने जून 2016 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसे मानव संसाधन विकास विभाग (एमएचआरडी) ने 29 जून 2016 को अपनी वेबसाइट पर अपलोड किया.

गौर करने वाली बात यह है कि गुरुकुल और वैदिक शिक्षा की बात करने वाले एमएचआरडी के इस मसौदे की भाषा सिर्फ अंग्रेजी है. इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किसी भी अन्य भाषा में प्रकाशित नहीं किया गया है.

इस मसौदे का मुखरता से विरोध कर रहे स्टेट प्लेटफॉर्म फॉर कॉमन स्कूल सिस्टम के जेनरल सेक्रेटरी, पीबी प्रिंस गजेन्द्र बाबू कहते हैं, ‘नई शिक्षा नीति के 43 पेज के इस मसौदे में जो बातेें कही गई हैं,

या नई शिक्षा नीति को लेकर जो कदम उठाए जाने हैं, वे कई तरह से भारत विरोधी और जन विरोधी प्रतीत होते हैं. पहला ये कि यह मसौदा समाजिक न्याय के खिलाफ है, क्योंकि यह सामाजिक पिछड़ेपन को बढ़ाने की तरफ कदम है.

यह सामाजिक पिछड़ेपन की जगह आर्थिक आधार पर छात्रवृत्ति दिए जाने की बात करता है. दूसरा यह कि इस मसौदे में नई शिक्षा नीति को लेकर जो बातें कही गई हैं, वे एक तरह से संघीय ढांचे के साथ छेड़छाड़ हैं. इसमें शिक्षा को लेकर राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप साफ दिखाई देता है.

तीसरा और सबसे प्रमुख यह कि इस मसौदे में शिक्षा को जरिया बनाकर भारत में संस्कृत और सांस्कृतिक बदलाव की तरफ कदम बढ़ाने की तैयारी स्पष्ट है. यानी इस सरकार की मंशा भारत को यूनीकल्चर की तरफ बढ़ाने की है. इसे किसी भी तरह से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि भारत की पहचान शुरू से ही सांस्कृतिक विविधता वाले देश की रही है.’

हालांकि एक-दो मुस्लिम संगठनों को छोड़ दें, तो अब तक सिर्फ ईसाइयों से संबंधित संगठनों ने ही इस मसौदे के विरोध में मुखरता से आवाज उठाई है. तमिलनाडु को एक तरह से इसके विरोध का केंद्र कहा जा सकता है.

क्योंकि गजेन्द्र बाबू के संगठन के अलावा तमिलनाडु में ईसाइयों के थिंक टैंक ग्रुप कंसोर्टियम ऑफ माइनोरिटीज हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशंस (सीसीएमएचईआई) भी इसके खिलाफ है.

सीसीएमएचईआई के महासचिव जी पुष्पराज ने इसके कुछ बिंदुओं पर आपत्ति जताई है. उन्होंने कहा कि यह ड्राफ्ट देश के संविधान की आत्मा और अल्पसंख्यकों के खिलाफ है. साथ ही द कैथलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) ने भी इसपर आपत्ति जाहिर की है.

सीबीसीआई ने नई शिक्षा नीति का प्रारूप वैदिक प्रणाली और गुरुकुल व्यवस्था पर आधारित करने का विरोध किया है और कहा है कि इसे अंतिम रूप देने के लिए ऐसे प्रतिष्ठित नागरिकों का राष्ट्रीय आयोग बनाया जाए, जिनमें अधिकांश का संबंध शिक्षा के क्षेत्र से हो.

मुसलमानों का थिंक टैंक माना जाने वाला संगठन इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज (आईओएस) भी इसके विरोध में है. एक और इस्लामिक संगठन जमाते इस्लाम-ए-हिंद ने देश के कई शहरों में इस विषय पर चर्चाएं आयोजित की हैं.

जहां तक इस मसौदे के राजनीतिक विरोध की बात है, तो इसमें भी तमिलनाडु ही आगे दिख रहा है. इस मसौदे के विरोध में तमिलनाडु में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए डीएमके नेता एमके स्टालिन ने कहा, ‘यह नई शिक्षा नीति सामाजिक न्याय और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध है.

केंद्र सरकार की इस नीति से अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित शिक्षण संस्थानों को काफी कठिनाई होगी. भारत जैसे विशाल व विविधतापूर्ण देश में कॉमन सिलेबस फिट नहीं बैठेगा.’

इस मसौदे के विरोध का एक प्रमुख कारण यह भी है कि इसमें संस्कृत को अहम स्थान दिया गया है. चौथी दुनिया से बात करते हुए प्रिंस गजेन्द्र बाबू कहते हैं, ‘इस मसौदे में अंग्रेजी को भले ही नॉलेज के लिए प्रमुखता दी जा रही है, लेकिन संस्कृत को सांस्कृतिक बदलाव का माध्यम बनाया जा रहा है.

यह उस तरफ कदम है कि अगर आप संस्कृत से जुड़े हैं, तभी आप आने वाले शैक्षिक समाज में सर्वाइव कर सकेंगे, अगर आपकी सांस्कृतिक पहचान इस्लामिक है, तो फिर आपके लिए मुश्किल है. इनकी मंशा संस्कृत पढ़ाने की नहीं बल्कि संस्कृताइजेशन की है.’

इस मसौदे में एमएचआरडी कैडर कंट्रोल की बात कही गई है. गौरतलब है कि शिक्षा समवर्ती सूची में आती है. यानी शिक्षा से संबंधित कानून बनाने और उन्हें लागू करने का काम केंद्र और राज्यों के बीच बंटा हुआ है. शिक्षा पर एमएचआरडी का कंट्रोल नहीं हो सकता.

एक विवाद इस पक्ष को लेकर भी है. इस मुद्दे पर अपनी बात रखते हुए प्रिंस गजेन्द्र बाबू कहते हैं, जब आप एमएचआरडी कैडर कंट्रोल की बात करते हैं, तब आप न सिर्फ राज्यों से शैक्षिक व्यवस्था और भाषा से संबंधित उनके अधिकार छीनने की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं, बल्कि इससे जुड़े प्रशासनिक अधिकारों पर भी प्रहार कर रहे हैं. इसलिए यह फेडरल स्ट्रक्चर के खिलाफ है.

इस मसौदे में बच्चों की उम्र को लेकर भी विवाद है. इसके अनुसार 15 साल से ज्यादा उम्र का बच्चा एडल्ट होगा और इस उम्र के बच्चों के लिए ओपन स्कूल की व्यवस्था की भी बात कही गई है. वे घर पर रह कर, अपना काम करते हुए, ओपन स्कूल के माध्यम से पढ़ाई कर सकेंगे.

लेकिन क्या यह कदम बालश्रम को बढ़ावा नहीं देगा? नई शिक्षा नीति के इस ड्राफ्ट के मुताबिक पांचवीं कक्षा से ऊपर के बच्चों को अब फेल किया जा सकेगा. अब तक व्यवस्था यह थी कि दसवीं के बोर्ड एग्जाम से पहले किसी भी बच्चे को फेल नहीं कराया जाता था.

Read also : भाई-भतीजे को जज बनाने वाली लिस्ट आखिरकार खारिज हुई : आईन के घर को आइना

इस मसौदे के अनुसार दसवीं की परीक्षा में ही परीक्षा का माध्यम चुनना होगा. इसमें एक अजीब पक्ष यह है कि साइंस-मैथ और अन्य माध्यमों की परीक्षा अलग-अगल होगी.

इस मुद्दे पर प्रिंस गजेन्द्र बाबू कहते हैं, जिस छात्र ने दसवीं की यह परीक्षा साइंस-मैथ माध्यम से नहीं दी, वह आगे लैब टेक्नीशियन के लिए भी योग्य नहीं रह जाएगा, इंजीनियरिंग मेडिकल तो दूर की बात है.

हमारे समाज के पिछड़े या अल्पसंख्यक वर्गों, जिनमें जागरूकता का अभाव है, जहां अभिभावक बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूक नहीं होते, वहां बच्चे ही अपने भविष्य का निर्धारण करते हैं. हालांकि बच्चों में यह क्षमता दसवीं के बाद ही आ पाती है.

दसवीं से पहले ही बच्चों को फेल करना और दसवीं में ही उनके लिए एक महत्वपूर्ण करियर विकल्प को समाप्त कर देना कहां तक जायज है? इस मसौदे में और भी ऐसे कई प्रावधान हैं.

क्या इससे पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की एक बड़ी आबादी के लिए उच्च शिक्षा के दरवाजे बंद नहीं हो जाएंगे? हैरानी की बात यह है कि पिछड़े और अल्पसंख्यकों के हित को प्रभावित करने वाले इस मुद्दे पर वे सभी राजनीतिक दल चुप्पी साधे हैं, जो खुद को इन वर्गों का प्रतिनिधि कहते हैं.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here