कहते हैं मौन सारी परेशानियों का सफल निदान है । मेरी विनोबा भावे में कभी कोई आस्था नहीं रही । वे हमेशा मौन पर रहते थे । गांधी सड़क और संघर्ष के व्यक्ति थे विनोबा अध्यात्म के । मुझे हमेशा लगा विनोबा सड़क और संघर्ष से घबराते थे । गोकि उन्होंने भूदान की यात्रा की और उसमें उन्हें जो सफलता मिली वह सब गांधी के प्रताप के चलते क्योंकि उस समय देश गांधी मय था । विनोबा शास्त्रों के ज्ञानी थे । पर देश के लिए संघर्ष में शास्त्र किसी काम के नहीं । जब जब निर्णायक मौके आते तब तब बाबा (विनोबा) मौन पर रहे यहां तक कि इमरजेंसी को उनकी तरफ से बताया गया ‘अनुशासन पर्व’ भी इसी मौन की गफलत का नतीजा था । आज मोदी ‘मौन मनमोहन’ नहीं ‘मौन विनोबा’ बन गये हैं । मोदी चतुर हैं । वे जनता की भावनाओं से खेलना जानते हैं । आठ साल में पहली बार देश भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता नुपुर शर्मा के बहाने उबल रहा है । लेकिन मोदी मौन हैं । चौतरफा आवाज उठ रही है मोदी कुछ बोलें , मगर मोदी मौन हैं । ऐसा नहीं है कि मोदी बोलते नहीं हैं वे न मनमोहन सिंह हैं, न नरसिंहा राव और न मंडल कमीशन के दौर वाले वी पी सिंह । वे सब कुछ अपनी शर्तों पर करते हैं । इसीलिए मोदी की कार्यशैली को लेकर सारी बहसें- मुबाहिसें एकदम बेमानी हैं । जो कुछ हो रहा है वह उनके और भाजपा के लिए हितकारी है , यह मोदी जानते हैं । द्वंद्वात्मक माहौल है ‌।इस माहौल में सबसे ज्यादा गाज गोदी मीडिया पर गिरने वाली है , शायद । आवाजें उठने लगीं हैं कि गोदी मीडिया की बहसों में नकली मौलाना न जाएं। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने ऐसे मौलानाओं से अपील की है कि वे बहसों का बहिष्कार करें। ‘द वायर’ की आरफा खानम शेरवानी ने भी अपने वीडियो के जरिए नफरती मीडिया के नकली मौलानाओं के सोशल बायकाट की अपील की है । अगर ऐसा होता है तो गोदी मीडिया की वकत क्या रह जाएगी । एनडीटीवी के रवीश कुमार शुरू से गोदी मीडिया के बहिष्कार की अपील करते आ रहे हैं । उन्होंने हमेशा जनता को चेताया है कि आपके बच्चे गोदी मीडिया से बरबाद हो रहे हैं, उन्हें बचा लीजिए । पर सवाल है कि क्या टीवी के परदे की लत लगा चुके मौलाना बहिष्कार की हद तक आएंगे । लेकिन जो खेती गोदी मीडिया आज तक कर चुका है उसका लाभ तो आने वाले लंबे समय तक मोदी को मिलेगा ही ।
मोदी शुरु से जानते थे कि दिल्ली का यह ताज उनके लिए कितना कांटों भरा है । मोदी को अमरीका द्वारा वीज़ा न देने से लेकर आज तक कितनी अड़चनें उनके सामने आकर खड़ी हुईं लेकिन षड़यंत्र कारी दिमाग हमेशा वर्किंग मोड पर रहा । और वे हर मुश्किल से पार पाते रहे । प्रतिकूल माहौल को अपने अनुकूल बना लेना कोई मोदी से सीखें । इसका सबसे बड़ा उदाहरण कोरोना के समय का है । आप कोरोना की बदहाल व्यवस्था के लिए कितना ही मोदी या उनकी सरकार को कोसते रहिए लेकिन देश नहीं मानता । इस सरकार की सबसे बड़ी खूबी (!) हर मुद्दे पर भ्रांति पैदा करके लाभ उठाना है । अरब देशों की नुपुर शर्मा के मुद्दे पर नाराजगी मोदी के लिए आफत की पुड़िया जैसी लगी थी पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मोदी अरब मुल्कों के सबसे बड़े दोस्त भी हैं । सऊदी (!) सरकार ने अपने देश का सबसे बड़ा तमगा मोदी को दिया है । मोदी के चतुर दिमाग को अरब मुल्क समझें न समझें पर मोदी ने अपनी चाल से यह संदेश तो दे ही दिया कि वे मुसलमानों के भी रहनुमा हैं । बेशक हिंदुस्तान में मुसलमानों की टोपी वे न पहनें पर हिंदुस्तान के बाहर मुस्लिम देशों में अपनी साख तो बैठा ही सकते हैं । मोदी का लोहा इस मायने में तो मानना ही पड़ेगा कि आजाद हिंदुस्तान के वे पहले प्रधानमंत्री हैं जो लगातार इतने झंझावातों से जूझ रहे हैं । नेहरू के सामने दूसरी चुनौतियां थीं, जो भी ज्यादा बड़ी थीं । लेकिन अंतर महज़ इतना है कि नेहरू के सामने देश की चुनौतियां थीं जबकि मोदी के सामने उनके व्यक्तित्व की चुनौतियां हैं और आगे भी रहेंगी । वे अपनी हैसियत बखूबी जानते हैं । इसीलिए उन्होंने अपना सारा फोकस सबसे पहले देश की गरीब और अनपढ़ जनता पर किया । धीरे धीरे वे निचले वर्ग से ऊपर की ओर आये । लुटियंस जोन की ‘डिसेंसी’ उनमें नहीं थी । पर यही तो उनके लिए वरदान साबित हुई । और इसी को उन्होंने कहां कहां ,कब कब और किस किस तरह भुनाया यह हमने देखा। ऐसे व्यक्ति पर कोई भी पूर्व आकलन सिरे से मूर्खता नहीं तो और क्या है । आजकल हमारे सोशल मीडिया पर यही सब हो रहा है ।
सबसे ज्यादा एक्टिव हो रहा है ‘सत्य हिंदी’। मैं दिल्ली से बाहर के समाज का आईना प्रस्तुत करने की कोशिश किया करता हूं । सत्य हिंदी के लोग दावा करते हैं कि उन्हें देखने वालों की संख्या अच्छी खासी तादाद में है । संभव है क्योंकि उन्होंने समाचार से साहित्य और सिनेमा तक अपने पैर पसारे हैं । यही नहीं उनका सबसे बेहतरीन कार्यक्रम किसी पुस्तक पर लेखक से चर्चा का होता है । अच्छा है तो कुछ बुरा और उबाऊ भी होगा । सबसे ज्यादा उबाऊ सत्य हिंदी की डिबेट्स समझी जा रही हैं इस समय । लोगों का मानना है कि ये डिबेट्स स्वांत:सुखाय हैं । उन्हीं घिसे-पिटे चेहरों के साथ पिटी पिटाई टिप्पणियों को दोहरा दोहरा कर । आशुतोष और विनोद अग्निहोत्री में इस बात की होड़ लगी होती है कि कौन ज्यादा हाबड़ ताबड़ में अपना सिक्का जमाता है । कई बार तो जैसे जबरन उठाये मुद्दे होते हैं जिनसे कुछ निकल कर नहीं आता । मिसाल के तौर पर आलोक जोशी ने राष्ट्रपति चुनाव पर कार्यक्रम लिया । मुद्दा था उम्मीदवार कौन । ऐसे विषय देखने सुनने लायक नहीं होते फिर भी देखा क्योंकि पैनल में कुछ जिम्मेदार से लोग दिखे । उसमें कई नाम आये । नीतीश कुमार, मायावती, मुख़्तार अब्बास नकवी, आरिफ मोहम्मद खान जैसे । इस बेबात की बहस का निचोड़ निकला कि मोदी हमेशा चौंकाते हैं ।इस बार भी किसी नये चेहरे से चौंकाएंगे । तब इस पूरी डिबेट का क्या लाभ । ऐसे ही मुकेश कुमार की बहस मोदी जी की चुप्पी या मौन पर थी कि मोदी जी के कब बोलेंगे । हालांकि दिलचस्प थी पर निकल कर यही आया कि मोदी जी जब चाहेंगे तब बोलेंगे । हमारे आपके कहने से तो नहीं बोलेंगे । इसमें शीबा असलम फहमी की तकरीर ने सबका मन जीत ही लिया । शीबा जब बोलती हैं दो टूक बोलती हैं । कई बार उनका बोलना लोगों को पसंद भी नहीं आता । खैर बताना यह था कि ये डिबेट्स बेजान सी होती जा रही हैं । स्वांत सुखाय , बड़े बड़े चाय के मगों के साथ। कार्यक्रम वही अच्छा लगता है जिसमें एक या दो लोग होते हैं और सीधे मुद्दों पर बात होती है । विद्वानों के साथ ज्ञान और जानकारी निकल कर आये । भेड़ चाल वाली घासलेटी टिप्पणियां नहीं । इसीलिए योगेन्द्र यादव, अपूर्वानंद, अभय कुमार दुबे , पुरुषोत्तम अग्रवाल , नीलांजन मुखोपाध्याय या इन जैसों से की गई बातचीत ज्यादा प्रभावी रहती है । वरना तो आप यह कहें कि हमारे कार्यक्रम बड़ी संख्या में देखे जाते हैं तो वह तो मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की फिल्में भी बड़ी संख्या में देखी जाती हैं । ताना-बाना के दर्शक कम हैं इसलिए तो वह कार्यक्रम व्यर्थ का नहीं हो जाता । मुकेश कुमार को चाहिए कि देश की समस्या पर अशोक वाजपेई जैसे साहित्यकारों से बात करें । कुछ बड़े कवि, बड़े लेखक । उनका वर्तमान समय को लेकर आकलन क्या है ।
संतोष भारतीय अपने कार्यक्रम में अब नियमित हैं लेकिन वे यह भी देख लें कि अभय दुबे की बातें रिपीट न हों । जैसे शनिवार को अभय जी से आशुतोष ने चर्चा की थी । उसी चर्चा की बातें रविवार को संतोष जी के कार्यक्रम में दोहराई गयीं । दोहराव का आलम तो यह है कि स्वदेशी जागरण मंच वाली बात शब्दशः दोहराई गई । यह अभय जी पहले कई बार बोल चुके हैं । बाकी सब जगह , सब मंचों पर दोहराहट है । दरअसल मोदी विरोध में अब कुछ नया बचा ही नहीं है । अब शरत प्रधान का भी कार्यक्रम शुरू हो गया है। अंबरीष कुमार का कार्यक्रम फटीचर सा ज्यादा लगता है । वे कोई भूमिका बांध नहीं सकते । सवाल जवाब के शनिवारीय कार्यक्रम में मुश्किल और अंग्रेजी के सवालों से बचते हैं । पता नहीं कैसे इंडियन एक्सप्रेस में रहे । हर कार्यक्रम हरजिंदर से शुरू करते हैं। लोग पूछते हैं क्या रिश्ता है भई दोनों में ऐसा ‘खास’ (!) । वायर में आरफा को सुनना अच्छा लगता है । गोदी मीडिया का बायकाट हो तो सोशल मीडिया की भी अच्छे से चीरफाड़ हो, यह जरूरी है । दिखावे का न हो कुछ भी । सब जानना चाहते थे कि सबा नकवी ने क्या बोला । आलोक जोशी बताने लगे तो आशुतोष ने टोक दिया , क्यों भई । जानकारी नहीं देंगे तो क्या करेंगे । अपूर्वानंद ने सिद्धार्थ वरदराजन से बात करते हुए बताया कि सबा ने किस व्हाट्सएप को ट्वीटर पर डाला और उसमें क्या था । इसी तरह ‘गोली मारो सालों को’ न जाने इसमें ‘सालों को’ क्यों छोड़ दिया जाता है । मुकेश कुमार से बात करते हुए योगेन्द्र यादव ने कई बार इसे पूरा दोहराया । आशुतोष बीच बीच में बहुत टोकते हैं । मुकेश कुमार का टोकना और आशुतोष के टोकने में अंतर है । वैसे मुकेश जी को यह ध्यान रखना होगा कि पटरी पर जाते व्यक्ति को टोकना तो अच्छा है पर इतना नहीं कि किसी दिन कोई उखड़ कर यह न कह बैठे मत बुलाया कीजिए हमें यदि बोलने नहीं देना है तो । पर हम तो बोलेंगे भाई । हम कार्यक्रम देखते हैं, लोग देखते हैं , चर्चा होती है तो बोलना तो लाजिमी है न‌।

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