सार
मप्र. बाल अधिकार आयोग ने इसका संज्ञान लेते हुए कहा कि बच्चों को इस तरह वसूली नोटिस देना पूरी तरह गलत है।

विस्तार
यह मामला तंत्र की निष्ठुरता और व्यवस्था के अंधे होने का चिंतनीय उदाहरण है, और यह भी कि तंत्र बड़े लोगों के लिए अलग पैमानों पर काम करता है और छोटे लोगों के लिए अलग। कायदे-कानून शायद ऐसे ही बेसहारा लोगों के लिए ही हैं, रसूखदारों के लिए नहीं। ऐसा ही एक मामला उजागर भले भोपाल में हुआ, लेकिन देश में ऐसे कितने ही प्रकरण होंगे, जिस पर मानवीय संवेदना और करुणा के साथ विचार करने की जरूरत है।

कोरोना की दूसरी और सबसे घातक लहर में देश में कितने ही बच्चे अनाथ हो गए। कई बच्चों के माता-पिता दोनों ही असमय दुनिया छोड़ गए। ऐसे ही अभागे दो बच्चों के पिता ने भारतीय जीवन बीमा निगम ( एलआईसी) से घर बनाने के लिए होम लोन लिया था। लेकिन पिता और मां के भी कोरोना में अचानक निधन के बाद एलआईसी ने बच्चों के नाम लोन वसूली के नोटिस भेजने शुरू कर दिए।

दोनों बच्चे अभी स्कूल में पढ़ रहे हैं। उन जैसे कई अनाथ बच्चों को तो अनाथाश्रम में ही रहना पड़ रहा है, लेकिन गनीमत है तो इस घटना में शामिल दोनों बच्चों की देखरेख उनके मामा-मामी कर रहे हैं। मामा के सामने भी सवाल यह है कि वो अपने भांजे भांजियों की देखभाल करें या फिर अपने जीजा के होम लोन को चुकाएं। इतना पैसा तो उनके पास भी नहीं हैं। ये दिल को द्रवित करने वाली खबर मीडिया में आई तो पढ़कर कई लोगों की आंखें नम हो गईं। कुछ हाथ भी मदद के लिए आगे आए।

बेसहारा बच्चों को कर्ज का नोटिस

यह पूरा मामला भोपाल के पाठक परिवार के बच्चे वनिशा पाठक और विवान पाठक का है। वनिशा 17 साल की और विवान 11 साल का है। वनिशा पढ़ने में होशियार है और उस ने कक्षा दसवीं में 99.8 फीसद अंक लाकर अव्वल स्थान प्राप्त किया था। दोनों बच्चों के माता-पिता प्रोफेसर थे। कोरोना से पहले उनकी जिंदगी भी तमाम दूसरे बच्चों की तरह खुशहाल थी। लेकिन दूसरी लहर ने मानो भाग्य रेखा को ही बदल दिया।

पहले मां डाॅ. सीमा पाठक और उसके दस दिन बाद ही पिता प्रो.जितेन्द्र पाठक ने भी कोरोना से लड़ते हुए दम तोड़ दिया। एक हंसता-खेलता परिवार अचानक बिखर गया। बच्चों के मामा अशोक शर्मा भी प्रोफेसर हैं।

बहन और बहनोई के असमय निधन से दुखी अशोक शर्मा दोनों बच्चों को अपने घर ले आए। वनिशा के पिता जितेन्द्र पाठक ने भोपाल की पेबल वे काॅलोनी में अपना मकान बनाने के लिए एलआईसी से 2012 में 26 लाख रु. का कर्ज लिया था। उनके और पत्नी के निधन के बाद कर्ज की किस्तें भरनी बंद हो गईं और कर्ज की राशि भी बढ़कर 29 लाख हो गई। लेकिन एलआईसी बदस्तूर कर्ज वसूली के नोटिस भेजती रही।

यही नहीं, उसने जितेन्द्र पाठक के तमाम क्लेम और बचतों को इस कारण से रोक दिया कि वनिशा अभी नाबालिग है। जबकि जितेन्द्र पाठक एलआईसी की विशेष सुविधाओं वाली योजना मिलियन डाॅलर राउंड टेबल क्लब के सदस्य भी थे, लेकिन कर्ज वसूली नोटिसों पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा।

इस बीच वनिशा ने विशेष परिस्थिति और अपने अनाथ होने का हवाला देकर एलआईसी ऋण वसूली स्थगित करने की गुहार की तो संस्था ने यह कहकर टालमटोल शुरू कर दी कि आवेदन हेड ऑफिस को भेजा गया है। वहां से मंजूरी के बाद ही कोई फैसला होगा।

संज्ञान के बाद आदेश

यह पूरा प्रकरण जब एक दैनिक अखबार में छपा तो हडकंप मच गया। मप्र. बाल अधिकार आयोग ने इसका संज्ञान लेते हुए कहा कि बच्चों को इस तरह वसूली नोटिस देना पूरी तरह गलत है। यह द्रवित कर देने वाला मामला केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन की जानकारी में आया तो उन्होंने एलआईसी अधिकारियों को तुरंत इस मामले में कार्रवाई करने के निर्देश दिए। इसके बाद भारतीय जीवन बीमा निगम के स्थानीय अधिकारी दोनों बच्चों से मिलने शिवाजी नगर स्थित उनके मामा के घर पहुंचे। जहां अधिकारियों ने बच्चों के बालिग होने तक ऋण वसूली की कार्रवाई नहीं करने और 2023 तक ऋण बकाया पर किसी तरह का दंड नहीं लगाने का आश्वासन दिया।

उधर भोपाल जिला कलेक्टर अविनाश लवानिया ने एलआईसी के स्थानीय अधिकारियों से मामले में चर्चा कर दोनों बच्चों को राहत देने और किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं करने के निर्देश दिए हैं। इसके साथ ही बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने एलआइसी को नोटिस जारी कर एलआईसी से जवाब-तलब किया। इस बीच बेटी वनिशा ने मुख्यंमत्री व जिला प्रशासन के साथ एलआईसी अधिकारियों से मकान का लोन माफ कराने की गुहार लगाई।

उसका कहना है-
माता-पिता की मृत्यु के बाद उनके पास आय का कोई जरिया नहीं है। यदि एलआईसी घर नीलाम कर देती है, तो रहने के लिए घर भी नहीं बचेगा।

हालांकि राज्य सरकार ने भी कोरोना राहत के नाम पर दोनों बच्चों को एक-एक लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी थी। वहीं हर महीने उनकी परवरिश के लिए सरकार की ओर से पांच-पांच हजार रुपये दिए जा रहे हैं।
होनहार बेटी वनिशा को जो राहत मिली है, वह अस्थायी है। अगर एलआईसी ने कर्ज माफ नहीं किया तो बालिग होने पर उसे वह चुकाना ही पड़ेगा। बेशक एलआईसी की अपनी कर्ज और उसकी वसूली की व्यवस्था है। संस्था लोन अमूमन पालिसी के विरूद्ध ही देती है। इसके बाद भी एलआईसी के ही आंकड़ों के मुताबिक
वर्ष 2020 में 12 हजार 561 करोड़ रु. के ‘बैड’ या ‘डाउटफुल’ लोन थे। जिनकी वसूली मुश्किल है। कुछ ऐसी ही स्थिति राष्ट्रीयकृत बैंकों की भी है। वर्ष 2019 20 में 12 राष्ट्रीयकृत बैंको ने न वसूले जा सकने वाले कुल 6 लाख 32 हजार करोड़ के ऋण राइट ऑफ किए।

दुर्भाग्य इस ‘ऋण माफी’ में वनिशा जैसे अनाथ हो चुके बच्चों के लिए शायद कोई जगह नहीं है। सरकार ने कोई ठोस निर्णय नहीं लिया तो वह सिर पर कर्ज का बोझ लेकर ही बड़ी होगी। यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है।

बेसहारा बच्चों की बढ़ी संख्या

कोरोना काल में प्रतिष्ठित पत्रिका लैंसेट के फरवरी 2022 के अंक में छपे शोध आलेख के मुताबिक-
भारत में कोरोना काल की दो वर्षों की अवधि में कुल 19 लाख 2 हजार बच्चे अनाथ हुए हैं, जिनके मां या बाप में से कोई एक कोरोना का शिकार हुआ। बाल अधिकार के राष्ट्रीय आयोग की पिछले साल की रिपोर्ट बताती है कि भारत में मार्च 2020 से मई 2021 के बीच 7464 बच्चे ऐसे थे, जिन के सिर से मां और बाप दोनों का साया उठ गया था। मप्र में ऐसे बच्चों की संख्या 325 बताई जाती है। मप्र सरकार ने इन बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठाने की घोषणा की है। प्रधानमंत्री देखभाल योजना के तहत भी ऐसे बच्चों की मदद की जा रही है।

लेकिन इस मुद्दे पर शायद ही गंभीरता से विचार हुआ है कि ऐसे अनाथ बच्चों के मां-बाप ने किसी भी संस्था से कर्ज लिया हो तो उसे चुकाने की व्यवस्था क्या हो। बेहतर तो यही है कि ऐसे कर्जों को विशेष प्रकरण मानकर माफ ही कर दिया जाए। क्योंकि जब सरकार नियंत्रित संस्थाओं को करोड़ों रूपए के बिना वसूल हुए कर्जों को माफ करने में कोई परेशानी नहीं है तो ऐसे ननिहालों को ‘कर्ज मुक्त’ करना वास्तव में देश सेवा ही होगी। उनके बचपन को बचाना होगा। यही सामाजिक पुण्य कार्य भी होगा।

( अमर उजाला डाॅट काॅम में दि. 10 जून 2022 को प्रकाशित)

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