पूर्वी एशिया में 1990 में आई मंदी की समस्या अतिवादी पूंजीवाद, घटिया वित्तीय व्यवस्था और बेहिचक पूंजीवादी गतिविधि से हुई थी, जो पूंजी की पूर्ण परिवर्तनीयता और कमज़ोर वित्तीय व्यवस्था की देन थी. यह तो वित्तीय संकट की महज़ शुरुआत थी. यह अलग बात है कि हमने इससे कोई सबक़ नहीं सीळा. जब आप इतिहास से नहीं सीखते, तो वह ख़ुद को दोहराता है. जैसा कि हम अभी देख रहे हैं.
एक समय था, जब नव-शास्त्रीय उदारवादियों ने 1980 के दशक में साम्यवाद के पतन पर जश्न मनाया था. इसे हम उस समय के कई आर्थिक चिंतकों के बयानों में देख सकते हैं. इसमें उदारवादी पूंजीवाद के बड़े प्रवर्तक फ्रांसिस फूकोयामा भी शामिल थे. फूकोयामा ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि आयरन कर्टेन (लोहे की दीवार) कही जाने वाली साम्यवादी व्यवस्था के पतन के साथ ही इतिहास का अंत हो गया है और उदारवादी पूंजीवाद की अंतिम तौर पर जीत हो गई है. यह बात दीगर है कि इस तरह के तमाम दावे ग़लत साबित हुए, क्योंकि हाल की घटनाओं में पूंजीवाद का नकाब भी उतर चुका है.
दुनिया की अर्थव्यवस्था में आई मंदी और उससे हुए औद्योगिक और वित्तीय घाटों के मद्देनज़र पूंजीवाद के प्रभावी होने और उसके पारदर्शी होने के दावे ध्वस्त हो गए हैं. अब हम यह जानते हैं कि दुनिया को प्रभावित करने वाले हरेक मसले का जवाब पूंजीवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था में नहीं है. अगर ऐसा होता, तो हम वर्तमान की दयनीय दशा नहीं झेल रहे होते. हम अब यह जानते हैं कि उदारवादी पूंजीवाद कोई अद्‌भुत वस्तु नहीं, और न ही हम इसे पूरी तरह नियंत्रण से मुक्त रख सकते हैं, जैसा कि इसके समर्थक बताते हैं.
बेरोकटोक पूंजीवाद कोई ज़रूरी बुराई नहीं है और इसे सार्वजनिक तौर पर नियमित करने की ज़रूरत समय-समय पर पड़ेगी ही. आख़िरकार, कई सारे लोग और तत्व-जो केवल लाभ के लिए ही सोचते हों- किसी अराजक विश्वव्यवस्था में कैसे काम कर सकते हैं, जहां सार्वजनिक हितों की अनदेखी की जा रही हो?  कुछ अमेरिकी कॉरपोरेट ने अपने असंतुलित व्यवहार से सामान्य शेयरधारकों की बलि चढ़ाकर अपने घर भर लिए. इसकी निंदा विश्व के बड़े नेताओं ने की, जिसमें बराक ओबामा भी शामिल थे.
भारत में हम लोग हालांकि ख़ुद को भुलावा दे रहे हैं कि हमारा बड़ा उपभोक्ता आधार और बाहरी व्यापार पर कम निर्भरता हमारी अर्थव्यवस्था को मंदी या स्थिरता के नकारात्मक प्रभावों से बचा ले जाएगी. हालांकि, इसमें कई विश्लेषक ग़लत साबित हुए हैं. यही हाल उत्पादन में कमी और मुहैया रोज़गार की अवसरों में कमी का भी है. इन सबका प्रभाव हमारी इकॉनॉमी पर पड़ा है और विकास दर में कमी आई है.  हालांकि इन सब के बीच राहत की बात यह रही कि ब्रिक (ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन) देशों में विकास की दर ठीक-ठाक बनी रही. इससे विश्व अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त होने से बची रही. अगर हाल में आए सरकारी आर्थिक सर्वे की मानें तो इस वित्तीय वर्ष में आर्थिक विकास की दर फिर से तेज़ हो सकती है. इसके 7 से 7.75 फीसदी के बीच में रहने की उम्मीद है, जो कि काफी स्वस्थ मानी जा सकती है. साथ ही, विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा दी गए स्टिमलस पैकेज और मदद ने भी बाज़ार में मांग बढ़ाकर उसके रुख़ को बदला है.
हालांकि अभी भी कुछ लोग हैं जो यह मानते हैं कि हमारी बचत का इस्तेमाल ख़र्च बढ़ाकर घरेलू अर्थव्यवस्था को उबारने में किया जाए. हालांकि हम ऐसा करें, उससे पहले एक बात पर विचार कर लें कि बाज़ार में जो पैसा पहले से ही है उसे भी कोई नहीं इस्तेमाल कर रहा. यह आश्चर्य की बात है कि कम ब्याज दर के बावजूद वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेने वालों की संख्या बहुत कम रही है. यह रुख़ पूरी दुनिया में देखा जा रहा है. दरअसल, बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान भी क़र्ज़ देने के मामले में हिचकते रहे हैं.
हम अपने पुराने और परंपरागत बैंकिंग सिस्टम को दुरुस्त कर सकते हैं, लेकिन इसी सिस्टम ने हमें मंदी की उस मार से बचाया है जो पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को अंधाधुंध क़र्ज़ देने की वजह से झेलनी पड़ी. ये पश्चिमी बैंक वैसल के  बैंकिंग नियमों पर चलते रहे हैं. इसके अलावा पूंजी उपलब्धता और पूर्ण विदेशी निवेश के मामलों में हमारा सावधानी भरा रवैया उन कारणों में से है, जिसने हमें मंदी की ज़ोरदार मार से बचाया है.
स्टॉक मार्केट में आया हालिया उछाल, उपभोक्ता वस्तुओं और रीयल इस्टेट में मांग में आई तेज़ी और अन्य क्षेत्रों में आए सुधार सकारात्मक संकेत हैं. यह सब सरकार की सहयोगी नीतियों, उदारवादी वित्त पैकेज, छठे वेतन आयोग की स़िफारिशों और किसानों की क़र्ज़ मा़फी के  बाद हुआ है. हालांकि, एक अनोखा विचार यह भी है कि भारत की तथाकथित अंडरग्राउंड या समांतर अर्थव्यवस्था ने उसे मंदी की बुरे असर से बचाया है. इस विचार को मामने वालों के हिसाब से इस अंडरग्राउंड अर्थव्यवस्था का पैसा मांग को घटने नहीं दे रहा और इस तरह एक ठीक-ठाक विकास दर बनाए रखने में मदद कर रहा है. महंगाई और पेट्रोलियम के घटे हुए दामों के बीच इस विकास दर ने मंदी की मार झेल रहे आम आदमी को सकारात्मक सोचने की ताक़त दी है. मौजूदा संकट से कमज़ोर आर्थिक खिलाड़ियों को बाहर करने में मदद मिलेगी या कम-से-कम ख़ुद में सुधार करने की अंदरूनी व्यवस्था को जन्म देगी. सत्यम, एआईजी और फोर्ड मोटर्स जैसों को बचे रहने के लिए इस मंदी से बड़े सबक़ लेने होंगे.
यह भी मांग उठी है कि कर में छूट देने वाले उपायों, जैसे विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस ई ज़ेड) को ख़त्म किया जाए, क्योंकि बढ़ते राजकोषीय घाटे की वजह से सरकार को कमाई के नए स्रोत चाहिए. हालांकि वर्तमान स्थिति में ऐसा करना सही है या नहीं, इस पर गंभीर विचार करने की ज़रूरत है.
यह मांग भी उठी है कि डॉलर को स्पेशल ड्रॉइंग राइट्‌स (एसडीआर) या किसी अन्य मुद्रा से बदला जाए. चीन ने भी ऐसी मांग की थी, लेकिन इसे अमल में लाना बहुत कठिन है. हम पहले ही एक दुष्चक्र में फंस चुके हैं. डॉलर का मज़बूत होना हमारे हित में है. कमज़ोर डॉलर का मतलब होगा-अमेरिकी अर्थव्यवस्था में और गिरावट. इससे कई दूसरी अर्थव्यवस्थाएं जुड़ी हैं और उन्हें भी नुक़सान उठाना पड़ सकता है. यह तो जगज़ाहिर है कि चीन और भारत जैसे देशों में बड़ी मात्रा में की गई घरेलू बचत ने ही अंधाधुंध अमेरिकी खपत से संतुलन बनाए रखा. इस अंधाधुंध खपत से ही वह कुख्यात सब-प्राइम  संकट उपजा, जिसने इस मंदी को जन्म दिया. यह संकट और बढ़ेगा, अगर सभी क़र्ज़दार अमेरिका से अपना विदेशी निवेश वापस ले लें. यह डॉलर को और कमज़ोर करेगा और इससे सभी को नुक़सान पहुंचेगा. कहा जा रहा है कि एक कमज़ोर अमेरिकी अर्थव्यवस्था सभी के लिए नुक़सानदेह है और इससे आर्थिक पुनरुत्थान की उम्मीद को ही ख़त्म या धीमा कर ही देगा. तथाकथित वाशिंगटन कंसेंसस के कमज़ोर पड़ने से दुनिया में नया नेतृत्व उभर रहा है, जिसमें अमेरिका अब शायद अकेली ताक़त न रहे. ब्रिक देश विश्व अर्थव्यवस्था के केंद्र पर क़ाबिज़ हो सकती हैं, जिसकी भविष्यवाणी हेनरी किंसिंगर, केनिडी ओहमै, किशोर महबूबानी, केनेथ वाल्ट्‌ज और अन्य बहुत पहले से ही करते रहे हैं. इस दौरान किसी कुशल कलाबाज़ की तरह उदारवादी पूंजीवाद के अल्पवाद और सामाजिक कल्याणवाद के बहुवाद के बीच संतुलन क़ायम करना होगा.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here