यहाँ दुर्गम कुछ भी नहीं, नरेंद्र जैन की एक कविता का अंश है

शब्दों ने ऊबना शुरू किया
यह भी अच्छा हुआ
आते हुए दुःख
जाते हुए सुख नज़र आये
सम्मिलित हुए शब्द एक कमज़ोर व्यक्ति के हलफनामे में.

यह कमजोर व्यक्ति शायद वह है जिसने शब्द से रिश्ता नहीं बनाया है|जिसने शब्द से रिश्ता निभाने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं लिए हैं.लेखन की आत्ममुग्ध और लगभग भटकन भरी दुनिया में
ऐसा बहुत मुमकिन है कि व्यक्ति कमज़ोर ही रह जाये.लेकिन मैं जिस शख्स को एक कवि के रूप में १९९६ से जानता हूँ वह कतई कवि के रूप में तो कमज़ोर है ही नहीं ,बल्कि इंसान के रूप में भी कमज़ोर नहीं है,
वह एक शाम थी जब पिताजी के साथ विदिशा स्थित हमारे घर पर वह आये थे,पिताजी ने परिचय कराते हुए कहा “ ये महेश कटारे सुगम जी हैं”,फिर हम तीनों ने आरंभिक बातचीत की|मैनें ओमप्रकाश शर्मा ,प्रदीप गवांदे,और दफैरून से सहमति लेकर रात में ही एक गोष्ठी की, जिसमे मेहमान कवि के रूप में महेश कटारे रहे,और हम सबने एक विधिवत और ओपचारिक काव्यगोष्ठी का आनंद उठाया|तब महेश जी ने बुन्देली में एक शब्द भी नहीं बोला था,कुछ नवगीत और नई कवितायेँ सुनाई थी|लेकिन वह मुझे एक किताब भेंट करके गए थे जिसका उनमान था “प्यास”|यह कहानी की किताब जबरदस्त थी.उन दिनों मैं अपनी विचारधारा तय कर रहा था|इस किताब ने भी मेरी मदद की गोया इसकी कहानियां शोषण के विरुध्द एक पुरजोर बिगुल के मानिंद थीं|कम लोग होते हैं जिन्हें लिखने के लिए विषय चुनना आता है महेश भाई को बहुत पहले से अपना पक्ष मालूम था|यह संगत से आता है कदाचित उन्हें सही समय पर सही लोग मिल गए होंगे,ज़ाहिर है वह प्रगतिशीलता के घूंटों से अपनी प्यास बुझा रहे थे|
पिताजी उन दिनों विदिशा जिले की तहसील कुरवाई में पंचायत इंस्पेक्टर थे,शाम को कवि की संगत के लिए वह महेश जी को ही खोजते,या यूँ कहें कि दोनों एक दूसरे को खोजते,शनिवार को जब पिताजी विदिशा आते तो मुझे सब कुछ सुनाते,एक बार उन्होंने बताया कि महेश जी का अगला संग्रह आ गया जिसका नाम था ‘गांव के गेंवडे’|यह भी बताया कि कितनी मुश्किल से छपकर आ पाया|बहरहाल इस दिलचस्प नाम पर मैं चकित हुआ|हम तो खुद कुरवाई के पास के एक गांव के रहने वाले थें तो इस शब्द का मायना जानते थे,सोचते यह रहे कि खड़ी बोली के ज़माने में एक उम्दा कवि अगर एसी बोली का उपयोग कर रहा है तो ज़रूर इसका औचित्य भी होगा और ज़रूरत भी| कुछ ही दिनों बाद मेरे पास भी ये संग्रह आ गया|मजेदार किताब थी सच में.उसी के पहले पेज पर यह शेर था,
ऐसे कबे मुकद्दर हुईयें|
सबरे दूर दलद्दर हुईयें |
जितते लंबे पांव हमारे
उत्ते लंबे चद्दर हुईयें|

कुछ दिनों बाद यह मालूम हुआ कि कुरवाई में उनके मित्र एक नाट्य प्रदर्शन कर रहे हैं| मैं भी उसे देखने गया था| अचरज ही अचरज था उस प्रोग्राम में |स्कूली बच्चे एक शिक्षक जगदीश त्रिपाठी के मार्गदर्शन में बुन्देली ग़ज़लों पर यथोचित नृत्य कर रहे थे. नई बात ये थी कि उस शो में प्रवेश के लिए एक टिकिट रखा गया था और मुझे भी बीस रूपये देने पड़े थे.महेश कटारे ही थे जो कस्बे में ऐसा वातावरण बना सके थे,हालांकि मैं उनके परिवार के सदस्यों से भी परिचित हूँ जैसे कि वह मेरे पूरे परिवार से परिचित हैं,मैं उनके घर शादियों मैं जाता रहा हूँ जैसे कि वह मेरे घर की शादियों में आते रहे हैं.साहित्यिक रिश्ता तो ये है ही कि वह मेरी प्रकाशित कविताओं पर खुलकर राय और बधाई देते रहे हैं.हम अपनी साहित्यिक योजनाओं पर भी बातचीत करते हैं,हालाँकि वह जो योजना बनाते हैं उसकि तरफ चलते भी हैं| हमारी बात और है हम बस मन में ही योजना बनाकर चलते हैं,और इस स्वभाव पर उनकी छोटी मोटी डाट डपट भी खा लेते हैं
इतने दिनों में, मैं यह तो जान चुका था कि महेश भाई आसपास की घटनाओं के प्रति संवेदित होते हैं,उन्हें वह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर गहराई के साथ अनुभव करते हैं और उनके हर पहलू पर विचार करके परिश्रम के बाद रचना को सामने लाते हैं,उनमे एक धैर्य भी है और दृश्य की खामियों की समझ भी.यही वजह रही कि वे इतने दिनों तक दृश्य में स्थान नहीं पा सके बल्कि ओझल ही रहे.उपेक्षित ही रहे,

वह एक बार विदिशा आए तो उनके हाथ में एक नवगीत की पाण्डुलिपि थी और वह मुझे दे रहे थे कि मैं उस पर भूमिका लिख दूँ | मैंने विनम्रतापूर्वक इनकार करते हुए कहा कि कहाँ मैं और कहाँ ये बड़े लोगों का काम|तब उन्होंने जवाब दिया कि मेरे लिए बड़े का मतलब प्रसिद्ध और स्थापित लेखक नहीं है,बल्कि वह है जो हमारी रचना को पढकर अभिव्यक्ति दे |इसलिए इस पर ब्रज श्रीवास्तव ही लिखेंगे|मैंने लिखा और उन्हें खूब पसंद आया| मैं तो कृतग्य ही हुआ कि आलोचना का मौका दिया उन्होंने|
महेश भाई को हम लोग बाल साहित्यकार के रूप में भी जानते रहे|उनकी एक कविता –निकल पड़े बंजारे एक स्कुल के पाठ्यक्रम में भी लगी थी|उनकी बाल वैज्ञानिक कथाएँ हम पत्रिकाओं में पढते रहे|फिर उन्हें एक शायर के रूप में जाना जब वह मुशायरों में शान से खड़े होकर एक मतला के बाद शेर अर्ज कर रहे होते.कुरवाई तो शायरी के लिए ही जाना जाता रहा है,बचपन में मैंने वहाँ तरन्नुमो में रंगे तब मुशायरे सुने हैं जब शेर समझमे नहीं आते थे,अलबत्ता दानिश साहब के बगल में रहने का गौरव महसूस करते थे,पिताजी,अजित पंकज,घनश्याम चंचल,दामोदर पहलवान साधक सहित वहाँ स्थानीय गोष्ठियाँ चलाते थे,कुछ वर्षों बाद इस कड़ी में महेश कटारे वहाँ शायरी भी कर रहे थे,| और तो और वो वह मुझे भी काव्यपाठ के लिए बुलाने लगे |अपनी जन्मभूमि पर जाकर डाइस पर खड़े होकर काव्यपाठ के लिए भला कौन मना करेगा|फिर वहाँ से लिफाफा भी मिलता था|विदिशा से मैं मुख्तलिफ आयोजनों में आलोक श्रीवास्तव,मुईन शब्बाग ,संतोष शर्मा ,और उदय ढोली के साथ कुरवाई जाता रहा हूँ| रात में कवियों के साथ महेश भाई से चर्चा होती और मैं नोटिस करता कि ये महाशय वामपंथ के पक्ष में खड़े होकर किसी भी दक्षिण पंथी को धूल चटा सकते हैं यह तभी संभव है जब अध्ययन हो ,और उनका अध्ययन था | वह अपने उसूलों के पक्के हैं और इस बात पर कोई शोर भी नहीं करते कि वह मंदिर नहीं जाते,पूजा नहीं करते,आरती नहीं गाते,उनके लिए सबसे बढ़िया मिशन है –जोर से हंसना, खुश रहना,दोस्ती निभाना,और और और खूब लिखना|प्रगतिशीलता को अपनाने का आलम यह है कि जब उनके बीना के घर का शुभारंभ हो रहा था तो उन्होंने सबसे पहले उन मजदूरों को भोजन कराया जिनकी मेहनत ने उस ताबीर को अंजाम दिया था|और पहले का एक प्रसंग है एक घनिष्ट मित्र की माताजी के निधन के बाद इन महाशय को मित्र के साथ उनकी अस्थियां विसर्जन के लिए इलाहाबाद को भेजा गया तो ये अस्थियों को चम्बल में ही विसर्जित कर के रातें बिताकर भिंड वापस आ गए,क्या जरुरत ऐसी जड़ परम्पराओं और रीतियों की जो मनुष्य के जीवन को मुश्किल और पेंचीदा बनायें.
इसके वाबजूद महेश बच्चों जैसे सरल सहज हैं,कविता उनका जीवन है कम से कम मैंने तो अभी तक ऐसा लेखक नहीं देखा जो इनकी तरह विपुल लेखन करने के वाबजूद बदले में कुछ नहीं चाहता|वह यारबाज़ हैं यात्रा उत्सुक और ज़मी से जुड़े लेखक हैं, पिछले साल में उन्हें २२ सम्मान मिले और इन सबकी खुशी से उडती हुई धूल को झटकार कर फिर खड़े हो गए|उन के साहित्यिक कामों पर एक समग्र भी प्रकाशित हो गया लेकिन उन्होंने फेस् बूक पर कभी अपना परिचय नहीं डाला|उनके ठीक ठाक घर में पढ़ने का, लिखने का कोई सज्जित कोना नहीं है, वह एक चटाई और क्लिप बोर्ड तैयार रखते हैं और जहाँ जगह मिले वहीँ अपनी कविता को उतारने के लिए बैठ जाते हैं.

कुछ बातों में अड़ियल होते हुए भी वह व्यावहारिक जिंदगी में समझौता परस्त होते हैं,जब उनका गज़ल संग्रह आवाज़ का चेहरा प्रकाशित हुआ तो वह मुझसे अपनी आरंभिक खुशी साझा कर रहे थे,तो मैंने पूछा कि विमोचन कब कर रहे हो,
वह बोले- नहीं कर रहे ,का हो जात विमोचन से,
मैंने कहा –जब हम नए मकान की ,दूकान की ,और नयी चीज़ों की खुशी मनाते हुए जश्न मनाते हैं तो ये तो हम लेखक लोगों का ऐसा घर होता है जिसमे हम्म मरणोपरांत भी ज़िंदा रहते हैं इसका सेलिब्रेशन मानाने को क्यूँ नीचा काम हम प्रगतिशील मानते हैं समझ नहीं आता|उन्हें मेरी बात ठीक लगी और उन्होंने बीना में एक गंभीर कार्यक्रम किया|तो मुझे लगा कि महेश भाई को सहमत होने और असहमत होने की बीच की लाइन में फर्क का इल्म है,खैर यह सच है कि विमोचन से कुछ होता नहीं और कुछ हुआ भी नहीं, जो हुआ उनकी बुन्देली गज़लों से हुआ, सक्रियता से हुआ और डटे रहने से हुआ| आज देखिये उनकी गज़लों को उस्ताद लोग तक पसंद कर रहे हैं उनके लिए आमंत्रणों की बहार है,और वह अभी भी अपनी चटाई पर बैठकर मिसरे मिला रहे हैं,
सर्जना की साधना में लीन हूँ मत बोलिए |
आजकल तबियत से मैं रंगीन हूँ मत बोलिए|

तो मत बोलिए उनसे|उन्हें लिखने दीजिए,उन्हें सोचने दीजिए|उन्हें स्वास्थ्य के लिए मुफीद आराम कर लेने दीजिए.लेकिन उनकी इस बात पर ध्यान ज़रूर दीजिए|

मुंह मत फेरो खतरों से दो चार रहो |
लड़कर मरने को हरदम तैयार रहो |
अपनी शर्तों पर जीने का ढंग सीखो,
जीवन भर तक बनकर खुद मुख्तार रहो.|
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महेश कटारे सुगम के जन्मदिन पर यह पेशकश

-ब्रज श्रीवास्तव
9425034312

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